इस किताब की आख़िरी साँप-कथा एक प्राचीन बौद्ध जातक कहानी पर आधारित है। यह कहानी दिखाती है कि “करुणा” का अर्थ हमेशा कोमल, मौन या निर्बल होना नहीं होता।
एक बुरा साँप एक गाँव के बाहर जंगल में रहता था। वह क्रूर, दुष्ट और निर्दयी था। लोगों को यूँ ही काट लेता—बस अपने मनोरंजन के लिए। जैसे-जैसे वह साँप उम्रदराज़ हुआ, उसने सोचना शुरू किया: “मरने के बाद साँपों का क्या होता है?” जीवन भर वह धर्म का मज़ाक उड़ाता रहा था, और उन साँपों को मूर्ख समझता था जो धर्म की बात करते थे। पर अब, वह खुद जिज्ञासु हो गया।
उसी जंगल के पास एक पहाड़ी की चोटी पर एक पवित्र साँप रहता था। जैसा कि परंपरा है—पवित्र लोग, यहाँ तक कि पवित्र साँप भी, पहाड़ की चोटी पर रहते हैं। किसी ने कभी किसी संत को दलदल में रहते नहीं देखा।
एक दिन बुरा साँप, पहचान छुपाने के लिए रेनकोट, चश्मा और टोपी पहनकर, पवित्र साँप से मिलने चल पड़ा। जब वह पहुँचा, तब पवित्र साँप एक बड़ी चट्टान पर बैठा उपदेश दे रहा था और सैकड़ों साँप ध्यानपूर्वक सुन रहे थे।
बुरा साँप चुपचाप भीड़ के किनारे जा बैठा, एक निकास द्वार के पास। और सुनने लगा।
जैसे-जैसे उसने सुना, सब कुछ समझ में आने लगा। पहले वह प्रभावित हुआ, फिर प्रेरित, और फिर परिवर्तित।
प्रवचन के बाद वह पवित्र साँप के पास गया, आँसुओं के साथ अपने सारे पाप स्वीकारे, और प्रतिज्ञा की—अब से वह बदलेगा। वह अब किसी को नहीं काटेगा। वह दयालु बनेगा, दूसरों को भी अच्छा बनने की शिक्षा देगा। जाते समय दान-पात्र में कुछ सिक्के भी डाले… जब सब देख रहे थे।
हालाँकि साँप आपस में बातचीत कर सकते हैं, लेकिन इंसानों को वह सब एक जैसे हिस्स्स्स्स ही सुनाई देता है। तो गाँववालों को यह कैसे पता चलता कि यह साँप अब अहिंसक बन गया है? बस इतना दिखा कि अब वह साँप अपने छाती पर “एमनेस्टी इंटरनेशनल” का बिल्ला लगाए बैठा है।
एक दिन एक गाँववाला, अपने आइपॉड में मग्न, साँप के पास से गुज़रा, और साँप ने कुछ नहीं किया—सिर्फ धार्मिक मुस्कान के साथ उसे देखा।
अब लोगों को समझ आ गया कि यह साँप अब खतरा नहीं है। वे उसके पास से बेझिझक निकलने लगे, जबकि वह अपनी बिल के बाहर ध्यान में बैठा रहता।
फिर एक दिन कुछ शरारती लड़के आए।
“ओए, ओ चिपचिपे कीड़े!” उन्होंने दूर से चिल्लाया। “दिखा अपने दाँत! या फिर तू तो बस एक मोटा कीड़ा है! डरपोक! शर्म का नाम मिटा दिया तूने साँपों का!”
साँप को गुस्सा आया। “चिपचिपा कीड़ा”—यह बात थोड़ी सच तो थी, पर फिर भी अपमानजनक।
पर वह क्या कर सकता था? उसने वचन दिया था कि वह अब किसी को नहीं डसेगा।
लड़के और भी निडर हो गए। उन्होंने उस पर पत्थर और मिट्टी फेंकी। जब पत्थर लगा, तो हँस पड़े। साँप जानता था कि वह इतनी तेज़ी से किसी को काट सकता है कि तुम “वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड” भी पूरा न कह पाओ। लेकिन वचन ने उसे रोके रखा।
अब लड़के पास आकर डंडों से उसे पीटने लगे। वह साँप पीड़ा सहता रहा।
फिर उसने सोचा—इस दुनिया में जीने के लिए थोड़ा निर्दय बनना ही पड़ता है। धर्म तो सिर्फ मठों में काम आता है, असली दुनिया में नहीं। अब उसे उस पवित्र साँप के पास जाकर अपने व्रत से मुक्ति माँगनी थी।
वह चोटिल और थका हुआ ऊपर पहाड़ी चढ़ा।
पवित्र साँप ने उसे देखा और पूछा, “क्या हुआ तुम्हें?”
बुरा साँप ग़ुस्से में बोला, “ये सब तुम्हारी वजह से हुआ!”
“मेरी वजह से?” पवित्र साँप ने हैरानी से पूछा।
“हाँ! तुमने मुझे कहा था कि मैं किसी को काटूँ नहीं। देखो अब मेरी हालत! धर्म बाहर की दुनिया में नहीं चलता।”
पवित्र साँप ने उसकी बात काटी—“अरे मूर्ख साँप! नादान साँप! बेवकूफ़ साँप! ये सच है कि मैंने तुम्हें काटने से मना किया था। पर क्या कभी मैंने कहा था कि हिस्स्स्स्स भी मत करना?”
कभी-कभी जीवन में संतों को भी “हिस्स्स्स्स” करना पड़ता है, अगर सच्ची करुणा करनी हो। पर किसी को डसना—उसकी ज़रूरत कभी नहीं पड़ती।