नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

बोलने की आज़ादी

मुझे हैरानी होती है कि आज के इस बाज़ार-प्रधान युग में भी “बोलना” अब तक मुफ़्त है। लगता है यह केवल समय की बात है जब कोई सरकार, जिसे पैसे की सख्त ज़रूरत हो, भाषण को भी एक “उत्पाद” मानकर उस पर कर (टैक्स) लगा दे।

सोचने पर लगता है, शायद ये इतना बुरा विचार भी नहीं है। चुप्पी फिर से “सोना” कहलाएगी। फोन लाइनें किशोरों द्वारा कब्ज़ा नहीं की जाएँगी। सुपरमार्केट की कतारें ज़्यादा तेज़ी से चलेंगी। शादीशुदा ज़िंदगियाँ भी शायद लंबी चलें, क्योंकि अब लड़ाई झगड़े करना आर्थिक रूप से भारी पड़ेगा।

और सबसे संतोषजनक बात यह होगी कि वो सब लोग जो सालों से दूसरों के कान के पर्दे फाड़ते आ रहे हैं, अब सरकारी राजस्व में इतना योगदान देंगे कि उन्हीं के शिकार लोगों को मुफ़्त हियरिंग एड मिल सके। यह टैक्स मेहनती लोगों से हटकर बातूनी लोगों पर पड़ जाएगा—यानी एकदम न्यायसंगत।

सबसे बड़े करदाता कौन होंगे? राजनेता! जितना वे संसद में बहस करेंगे, उतने ही स्कूल और अस्पताल बनेंगे। क्या सोच है—सिर्फ उनकी बातों से देश का भला हो जाए!

और अगर कोई इस टैक्स स्कीम के खिलाफ तर्क करना चाहे… तो सोचिए—इतनी बहस की कीमत कौन चुका पाएगा?

शायद इसी डर से आज भी “फ्री स्पीच” वाकई फ्री है! 😄


📋 सूची | अगला अध्याय »