कई वैज्ञानिक और उनके समर्थक यह दावा करते हैं कि मन केवल मस्तिष्क का एक उप-उत्पाद है, इसलिए जब मैं प्रवचन देता हूँ तो प्रश्नोत्तर सत्र में अक्सर मुझसे पूछा जाता है: “क्या मन वास्तव में मौजूद है? अगर है, तो कहाँ है? क्या यह शरीर के अंदर है? या बाहर? या यह हर जगह फैला हुआ है? मन आखिर है कहाँ?”
इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए मैं एक आसान सा प्रयोग करता हूँ।
मैं अपने श्रोताओं से कहता हूँ: “अगर आप अभी खुश हैं, तो कृपया अपना दायाँ हाथ उठाएँ। अगर आप दुखी हैं, थोड़ा भी, तो कृपया अपना बाँया हाथ उठाएँ।” ज़्यादातर लोग अपना दायाँ हाथ उठाते हैं—कुछ सच में, बाकी गर्व के कारण।
फिर मैं कहता हूँ, “अब जो लोग खुश हैं, कृपया अपनी खुशी की ओर अपने दाएँ हाथ की तर्जनी से इशारा करें। जो लोग दुखी हैं, कृपया अपनी दुख की भावना की ओर अपने बाएँ हाथ की तर्जनी से इशारा करें। मुझे दिखाएँ कि वह कहाँ है।”
मेरे श्रोता अपनी उंगलियाँ बेकार में इधर-उधर हिलाने लगते हैं। फिर वे आसपास बैठों की ओर देखते हैं, जो उसी उलझन में होते हैं। जब उन्हें बात समझ में आती है, तो वे हँस पड़ते हैं।
खुशी असली होती है। दुख भी सच्चा होता है। इसमें कोई शक नहीं कि ये भावनाएँ मौजूद हैं। लेकिन आप इनको न अपने शरीर में कहीं ढूँढ सकते हैं, न शरीर के बाहर, और न ही कहीं और।
ऐसा इसलिए है क्योंकि खुशी और दुख ऐसी चीज़ें हैं जो सिर्फ मन के क्षेत्र में आती हैं। ये मन से संबंधित हैं, जैसे फूल और घास एक बाग़ से संबंधित होते हैं। जैसे फूलों और घास का अस्तित्व साबित करता है कि बाग़ भी है, वैसे ही खुशी और दुख का अस्तित्व यह साबित करता है कि मन भी है।
यह खोज कि आप न खुशी की ओर इशारा कर सकते हैं, न दुख की ओर, यह दिखाती है कि आप मन को त्रि-आयामी (three-dimensional) स्थान में कहीं निर्धारित नहीं कर सकते। सच तो यह है कि अगर मन दुनिया की सबसे बड़ी चीज़ है, तो वह किसी स्थान के भीतर नहीं हो सकता—बल्कि स्थान ही मन के भीतर होता है। मन सम्पूर्ण ब्रह्मांड को समेटे हुए है।