नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

सबसे सुंदर आवाज़

एक अनपढ़ बूढ़ा आदमी पहली बार अपने जीवन में शहर घूमने आया था। वह एक दूरदराज़ पहाड़ी गाँव में पला-बढ़ा था, जहाँ उसने कड़ी मेहनत करके अपने बच्चों को बड़ा किया था। अब वह अपने बच्चों के आधुनिक घरों में कुछ समय बिता रहा था।

एक दिन, जब उसे शहर में घुमाया जा रहा था, उसने एक ऐसी आवाज़ सुनी जो उसके कानों को चुभ गई। उसके शांत पहाड़ी गाँव में उसने कभी इतनी भयानक आवाज़ नहीं सुनी थी। उसने ज़िद की कि इस आवाज़ का कारण पता किया जाए। वह उस कर्कश ध्वनि का पीछा करते हुए एक घर के पीछे के कमरे तक पहुँचा, जहाँ एक छोटा लड़का वायलिन बजाने का अभ्यास कर रहा था।

“च्याँ… च्र्र्र…!"—वायलिन से आ रही बेसुरी, कराहती हुई ध्वनियाँ।

जब उसके बेटे ने बताया कि इसे ‘वायलिन’ कहते हैं, तो बूढ़े आदमी ने तय कर लिया कि वह दोबारा ऐसा भयानक यंत्र कभी नहीं सुनेगा।

अगले दिन, शहर के एक दूसरे हिस्से में, उस बूढ़े आदमी ने एक ऐसी आवाज़ सुनी जो उसके वृद्ध कानों को सहला रही थी। उसकी पहाड़ी घाटी में उसने कभी इतनी मधुर धुन नहीं सुनी थी। उसने फिर ज़ोर दिया कि इसका स्रोत देखा जाए। वह उस सुरीली आवाज़ का पीछा करते हुए एक घर के सामने वाले कमरे तक पहुँचा, जहाँ एक बुज़ुर्ग महिला—एक उस्ताद—वायलिन पर एक सॉनाटा बजा रही थीं।

तभी बूढ़े आदमी को अपनी पिछली भूल समझ में आ गई। जो भयानक आवाज़ उसने पहले दिन सुनी थी, वह न तो वायलिन की ग़लती थी, न ही उस बच्चे की। बस इतना था कि वह लड़का अभी तक अपने वाद्य यंत्र को ठीक से बजाना नहीं सीख पाया था।

सीधी-सरल सोच रखने वालों की एक अलग ही बुद्धिमत्ता होती है। उस बूढ़े आदमी ने सोचा कि धर्म भी कुछ ऐसा ही है। जब हम किसी धार्मिक जोशीले व्यक्ति को अपने विश्वासों के नाम पर झगड़ा करते देखते हैं, तो धर्म को दोष देना सही नहीं होता। बस इतना होता है कि वह व्यक्ति अभी अपने धर्म को ठीक से सीख नहीं पाया है। लेकिन जब हम किसी संत से मिलते हैं, जो अपने धर्म का सच्चा उस्ताद होता है, तो वह मिलन इतना मधुर होता है कि वह हमें सालों तक प्रेरित करता है—चाहे उसका धर्म कोई भी हो।

…लेकिन वायलिन और उस बूढ़े आदमी की कहानी यहीं खत्म नहीं होती।

तीसरे दिन, शहर के एक और कोने में, उस बूढ़े आदमी ने एक और आवाज़ सुनी—इतनी सुंदर, इतनी शुद्ध, कि वह पिछली दोनों ध्वनियों से भी अधिक मनमोहक लगी। सोचिए, वह कौन सी आवाज़ थी?

वह एक ऐसी आवाज़ थी, जो वसंत में झरने की कलकल से, पतझड़ की हवा के मधुर स्पर्श से, और भारी बारिश के बाद पहाड़ी पक्षियों के गीतों से भी ज़्यादा सुंदर थी। वह तो उस गूंजती खामोशी से भी ज़्यादा सुंदर थी, जो सर्दियों की रातों में पहाड़ी घाटियों में छा जाती है। तो वह आवाज़ थी क्या?

वह थी—एक बड़ा ऑर्केस्ट्रा, जो सिम्फनी बजा रहा था।

उस बूढ़े आदमी के लिए वह दुनिया की सबसे सुंदर आवाज़ इसलिए थी, क्योंकि उस ऑर्केस्ट्रा का हर सदस्य अपने वाद्य का उस्ताद था; और उन्होंने न केवल अपने-अपने वाद्य यंत्रों को सीख लिया था, बल्कि एक-दूसरे के साथ तालमेल में, सामंजस्य से बजाना भी सीख लिया था।

“काश, धर्मों के साथ भी ऐसा ही हो,” उस बूढ़े आदमी ने सोचा। “हर कोई जीवन के अनुभवों से अपने विश्वासों के कोमल हृदय को सीखे। हर कोई अपने धर्म के प्रेम का उस्ताद बने। और फिर, जब हम अपने धर्म को भली-भाँति जान जाएँ, तब हम और आगे बढ़ें—जैसे ऑर्केस्ट्रा के सदस्य—एक-दूसरे धर्मों के साथ भी मेल में, लय में, प्रेम में बजाना सीखें।”

वही होगी सबसे सुंदर आवाज़।


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