अनुभवी ध्यान-आचार्यों को कई बार ऐसे शिष्यों से निपटना पड़ता है जो बड़े गर्व से कहते हैं – “मुझे बोधि मिल गई है!” अब ऐसे मामलों में एक पुराना, आज़माया हुआ तरीका है उनकी परीक्षा लेने का – ज़रा अच्छी तरह डाँटो-फटकारो, देखो गुस्सा आता है या नहीं। क्योंकि जैसा सब भिक्षु और भिक्षुणियाँ जानते हैं – बुद्ध ने साफ़ कहा है कि जिसे क्रोध आ जाता है, वह अब भी अज्ञान में है।
अब सुनो एक ऐसे ही महत्वाकांक्षी युवा जापानी भिक्षु की कहानी। वो ठान चुका था कि इस जीवन में ही निर्वाण पा लेना है – ताकि बाक़ी ज़िंदगी कुछ और किया जा सके। उसने एक प्रसिद्ध विहार के पास झील के बीच बने एक टापू पर एकांत वास शुरू किया। न कोई शोर, न लोग – बस ध्यान और एकमात्र लक्ष्य: बोधि।
तीन साल हो गए थे। अब उसे लगा कि बस, अब तो कुछ होना ही चाहिए। जब हर हफ़्ते राशन लाने वाला सेवक आया, तो भिक्षु ने उसे एक चिट्ठी थमाई – उसमें माँगा था बढ़िया किस्म का काग़ज़, एक कलम, और उत्तम स्याही। उसे अब अपने आचार्य को यह बताना था कि वह कहाँ तक पहुँच गया है।
अगले हफ्ते सामग्री आ गई। भिक्षु ने कई दिन तक ध्यान करते हुए, हर शब्द पर सोचते हुए, बहुत सुंदर अक्षरों में यह कविता लिखी:
"तीन वर्षों तक एकांत साधना
करने वाला यह सजग भिक्षु
अब लोकधर्म की चार
हवाओं से डिगता नहीं।"
उसे पूरा विश्वास था कि उसके आचार्य इस कविता में उसकी बोधि देख लेंगे – उसकी स्याही में आत्मज्ञान की गंध होगी! उसने काग़ज़ को बड़े प्रेम से मोड़ा, एक रिबन से बाँधा और अगली बार सेवक को दे दिया।
फिर तो वो बस कल्पना करता रहा – आचार्य कितने खुश होंगे! शायद कविता को मुख्य सभा भवन में फ्रेम करवाकर टाँग दिया जाएगा। और कौन जाने, अब उसे किसी बड़े शहर के विहार का अधिपति भी बना दिया जाए!
कुछ दिन बाद सेवक फिर नाव लेकर आया। इस बार उसने भी वैसा ही काग़ज़ थमाया, लेकिन रिबन का रंग बदला हुआ था।
“आचार्य की ओर से,” सेवक ने संक्षेप में कहा।
भिक्षु ने उत्साह में रिबन खोल दिया। लेकिन जैसे ही उसने पढ़ा, उसकी आँखें चाँद जितनी गोल हो गईं और चेहरा राख जितना सफेद।
वही उसकी लिखी कविता थी, लेकिन पहली पंक्ति के बगल में किसी ने लाल बॉलपेन से लिखा था – “पाद!”
दूसरी पंक्ति के पास भी वही – “पाद!” तीसरी लाइन के ऊपर – फिर “पाद!” और चौथी पर भी – जी हाँ, “पाद!”
बस बहुत हो गया! उस पुराने मुनी ने तो हद ही कर दी। न तो उसे ज्ञान पहचानने की समझ थी, और न ही कला या परंपरा की इज़्ज़त। ऐसी सुंदर रचना पर इस तरह की बेहूदा हरकत! यह कोई भिक्षु नहीं, गली का आवारा लगता था।
भिक्षु की नाक फड़कने लगी, चेहरा गुस्से से तमतमा गया, और उसने सेवक से कहा – “अभी! मुझे आचार्य से मिलवाओ!”
तीन साल में पहली बार वह टापू छोड़कर आया। आंधी की तरह विहार पहुँचा, सीधा आचार्य के कक्ष में घुसा, कविता मेज़ पर पटकी और बोला – “यह क्या है?”
आचार्य ने धीरे से काग़ज़ उठाया, गला साफ़ किया और ज़ोर से कविता पढ़ी: “तीन वर्षों तक एकांत साधना करने वाला यह सजग भिक्षु, अब लोकधर्म की चार हवाओं से डिगता नहीं।”
फिर उन्होंने सिर उठाया, भिक्षु की आँखों में देखा और बोले – “हूँ। तो अब तुम्हें चार लोकधम्मों से कोई असर नहीं होता? लेकिन ये चार छोटे-से ‘पाद’ तुम्हें झील के पार उड़ा लाए!”