नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

जब मुझे बोधि मिली

भिक्षु जीवन के चौथे साल में, जब मैं थाईलैंड के उत्तर-पूर्वी जंगल में एक दूरदराज़ विहार में कठिन साधना कर रहा था, एक रात ध्यान करते-करते कुछ अलग ही घटा। मन एकदम निर्मल हो गया। जैसे झरने से जल गिरता है, वैसे ही भीतर ज्ञान की धाराएँ बहने लगीं। जीवन के गहरे रहस्य एक-एक करके खुलने लगे। और फिर… वो अनुभव हुआ। जिसने मुझे उड़ा दिया। बस, यही था — बोधि।

ऐसी आनंद की अनुभूति पहले कभी नहीं हुई थी। भीतर गहरी शांति थी, और साथ में असीम आनंद। पूरी रात ध्यान करता रहा, नींद भी मुश्किल से आई, और फिर 3 बजे सुबह की घंटी से पहले ही फिर ध्यान में बैठ गया। आमतौर पर उस समय थाई जंगल की उमस और गर्मी में नींद और सुस्ती से जूझता था। लेकिन उस दिन? शरीर सीधा, चित्त चाकू की धार की तरह सजग, और ध्यान बिना प्रयास के गहराता जा रहा था।

बोधिसंपन्न होना कितना सुखद होता है!

पर यह सुख… ज़्यादा देर नहीं टिक पाया।

उन दिनों उस क्षेत्र में भोजन बहुत कष्टप्रद होता था। कभी-कभी तो हमारे एकमात्र भोजन में बस एक चिपचिपे चावल की लोई होती, जिसके ऊपर मध्यम आकार का उबला हुआ मेंढक रखा होता। न सब्ज़ी, न फल — सिर्फ़ मेंढक और चावल, वही दिन भर का भोजन।

मेंढक के पैर का माँस पहले निकाला, फिर थोड़ी हिम्मत करके उसके अंदरूनी अंगों की तरफ़ बढ़ा। बगल में बैठे एक और भिक्षु भी वही कर रहे थे। दुर्भाग्य से उन्होंने मेंढक का मूत्राशय दबा दिया। और फिर क्या — मेंढक ने उनके चावल पर पेशाब कर दिया। उस भिक्षु ने वहीं खाना छोड़ दिया।

अक्सर हमारा मुख्य व्यंजन होता था — सड़ी मछली की करी। और यह कोई मज़ाक नहीं — वाकई सड़ी हुई मछलियाँ। बारिश के मौसम में पकड़ी गईं छोटी मछलियाँ मिट्टी के मटकों में भर दी जातीं, और फिर सालभर चलतीं। एक बार मैं विहार की रसोई साफ़ कर रहा था, तो एक ऐसा मटका मिला। उसमें कीड़े रेंग रहे थे। मैं उसे फेंकने ही वाला था कि गाँव के मुखिया, जो वहाँ के सबसे पढ़े-लिखे और “सभ्य” माने जाते थे, मुझे रोकते हुए बोले: “क्यों फेंक रहे हो?”

मैंने कहा, “इसमें तो कीड़े हैं!”

बोले, “और भी स्वादिष्ट!”

और वो मटका ले गए।

अगले दिन वही सड़ी मछली की करी हमारे भोजन में थी।

अब, बोधि प्राप्ति के अगले दिन कुछ चमत्कारी दृश्य दिखा — दो बर्तन करी के! एक में वही पुरानी सड़ी मछली की बदबूदार करी, लेकिन दूसरे में असली सूअर के माँस की करी! मैंने सोचा, चलो आज तो उत्सव मनाया जाए — बोधि और स्वाद दोनों का मिलन!

आचार्य मुझसे पहले परोसने आए। उन्होंने तीन बड़े करछुल सूअर की करी में डाल लिए — लोभ के अवतार! लेकिन कोई बात नहीं, अभी भी मेरे लिए काफ़ी बचा था।

फिर जो उन्होंने किया, वह देखकर मन ही हिल गया। उन्होंने मेरी झुनझुनी करी को उठाकर सीधा सड़ी मछली की करी में उड़ेल दिया… और सब मिला दिया।

कहने लगे, “सब एक ही तो है!”

मैं स्तब्ध। अवाक्। भीतर कुछ जलने लगा। अगर वाकई सब एक जैसा है, तो पहले तीन करछुल खुद क्यों उठाए, श्रीमान तथागत!? और फिर तुम तो गाँव के हो, बचपन से सड़ी करी में पले हो, तुम्हें तो स्वाद आना ही चाहिए! पाखंडी कहीं के! नकली भिक्षु! लालची सूअर!

और तभी — आघात

बोधिसंपन्न व्यक्ति को खाने में भेद नहीं होता। वो क्रोध में नहीं आता। और यहाँ मैं अपने ही आचार्य को मन ही मन ‘सूअर’ कह रहा हूँ? अरे नहीं! तो मतलब… मैं अभी भी अज्ञान में हूँ!

क्रोध की ज्वाला बुझ गई, लेकिन उसके नीचे उदासी का कीचड़ उमड़ आया। जैसे काले बादलों ने बोधि के सूरज को ढक लिया हो। मन भारी, हृदय बुझा हुआ।

मैंने चुपचाप दो करछुल उस मिलीजुली करी के अपने चावल पर उड़ेल दिए। अब क्या फ़र्क पड़ता था? जब बोधि ही न रही, तो खाना भी बेस्वाद ही लगेगा।

जिस दिन पता चला कि मैं बोधिसंपन्न नहीं, वही दिन सबसे ज़्यादा बिगड़ा हुआ लगा।


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