नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

हथौड़ी

हम सब कभी न कभी गलती कर ही बैठते हैं। जीवन का असली काम यही है कि इन गलतियों को धीरे-धीरे कम किया जाए। इसी सोच के साथ हमारे विहार में एक नियम है — भिक्षुओं को गलती करने की अनुमति है। और जब कोई गलती करने से नहीं डरता, तो वे ज़्यादा गलती करते भी नहीं।

एक दिन मैं विहार के परिसर में टहल रहा था, तो घास में एक हथौड़ी पड़ी मिली। वो काफ़ी देर से वहीं थी, क्योंकि उस पर ज़ंग चढ़ चुका था। ये देखकर मैं बहुत निराश हुआ — कितना लापरवाह व्यवहार था यह! हमारे विहार में जो भी चीज़ें होती हैं — चाहे चिवर हों या औज़ार — सब कुछ हमारे श्रमशील उपासकों की दान-भावना से आता है। कोई गरीब मगर श्रद्धावान उपासक शायद कई हफ्तों तक बचत करके ये हथौड़ी लाया होगा। और हम उसे यूँ घास में सड़ने को छोड़ दें? ये तो ठीक नहीं।

मैंने उसी शाम भिक्षुओं की बैठक बुलाई।

लोग कहते हैं मेरा स्वभाव आमतौर पर रुई जैसा मुलायम होता है, लेकिन उस दिन मैं एकदम तीखा मिर्चा बन गया था। मैंने सबको जमकर सुनाया। उन्हें समझाने की कोशिश की कि हमारे पास जो थोड़ी-सी चीज़ें हैं, उनकी देखरेख कैसे करनी चाहिए।

मेरी फटकार पूरी होते-होते सब भिक्षु सीधे बैठे थे — चेहरे पीले, होंठ बंद और सन्नाटा पसरा हुआ। मैंने थोड़ा इंतज़ार किया, सोचते हुए कि अब दोषी भिक्षु खड़ा होकर अपनी गलती मानेगा। लेकिन कोई नहीं बोला। सब यूँ बैठे रहे जैसे पत्थर के बुत हों।

मुझे अपने साथियों पर बहुत अफ़सोस हुआ। कम से कम जिसने वो हथौड़ी बाहर छोड़ी थी, वो तो सामने आकर एक ‘मा अफ़’ कह सकता था! शायद मेरी बात ज़रूरत से ज़्यादा कड़ी हो गई थी?

जैसे ही मैं सभा-गृह से बाहर निकला, मुझे अचानक याद आया — अरे! वो हथौड़ी तो मैंने ही बाहर छोड़ी थी!

मैं तुरंत पलटा और वापस भीतर गया।

“भंतेगण,” मैंने कहा, “अब मुझे पता चल गया है कि वो हथौड़ी घास में किसने छोड़ी थी — वो मैं ही था!”

मुझे पूरा भूल गया था कि उस दिन मैं खुद बाहर कुछ काम कर रहा था, और जल्दबाज़ी में हथौड़ी वहीं छोड़ आया था। जब मैं सबको डाँट रहा था, तब भी याद नहीं आया। लेकिन जैसे ही बाहर निकला, स्मृति ने झटका दिया — और आत्मग्लानि ने भी।

उफ़! कितना लज्जाजनक क्षण था वो।

सौभाग्य से, हमारे विहार में सबको गलती करने की छूट है — यहाँ तक कि विहाराध्यक्ष को भी!


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