थाईलैंड में एक बहुत कनिष्ठ भिक्षु के रूप में जीवन बड़ा ही अन्यायपूर्ण लगता था। वरिष्ठ भिक्षुओं को सबसे अच्छा भोजन मिलता था, वे सबसे मुलायम गद्दों पर बैठते थे और उन्हें कभी ठेलागाड़ी नहीं धकेलनी पड़ती थी। जबकि मेरी दिन की एकमात्र थाली घिनौनी होती थी; मुझे लंबी-लंबी रस्मों में सख्त कंक्रीट के फर्श पर बैठना पड़ता था (जो ऊबड़-खाबड़ भी था, क्योंकि गाँववाले कंक्रीट बिछाने में बड़े अनाड़ी थे); और कभी-कभी तो मुझे बहुत मेहनत करनी पड़ती थी। बेचारा मैं, खुशकिस्मत वो।
मैंने घंटों तक अपने शिकायती मन को खुद ही तर्कों से समझाया। शायद वरिष्ठ भिक्षु इतने प्रबुद्ध हो चुके थे कि स्वादिष्ट भोजन उनके लिए व्यर्थ था, इसलिए मुझे सबसे अच्छा भोजन मिलना चाहिए। वरिष्ठ भिक्षु वर्षों से सख्त फर्श पर पालथी मारकर बैठते आ रहे हैं, वे इसके आदी हो चुके हैं, इसलिए मुझे बड़ा नरम गद्दा मिलना चाहिए। इसके अलावा, वे वरिष्ठ भिक्षु तो सभी मोटे थे, सबसे अच्छे खाने से उनके शरीर में “प्राकृतिक कुशनिंग” हो गई थी। वरिष्ठ भिक्षु बस हमें कनिष्ठों को काम का हुक्म देते थे, खुद कभी परिश्रम नहीं करते थे, तो उन्हें कैसे पता चले कि गर्मी में ठेलागाड़ी चलाना कितना थकाऊ होता है? वो सारे प्रोजेक्ट तो उनके ही दिमाग की उपज थे, तो काम भी उन्हें ही करना चाहिए था! बेचारा मैं, खुशकिस्मत वो।
जब मैं वरिष्ठ भिक्षु बना, तब मुझे सबसे अच्छा भोजन मिला, मुलायम गद्दे पर बैठने को मिला, और शारीरिक श्रम भी कम हुआ। लेकिन तब मैंने खुद को कनिष्ठ भिक्षुओं से ईर्ष्या करते पाया। उन्हें सार्वजनिक प्रवचन नहीं देने पड़ते थे, न ही दिन भर लोगों की समस्याएँ सुननी पड़ती थीं, और न ही घंटों तक प्रशासनिक कार्य करना पड़ता था। उनके पास कोई ज़िम्मेदारी नहीं थी और अपने लिए बहुत समय था। मैंने खुद को कहते सुना, “बेचारा मैं, खुशकिस्मत वो!”
जल्द ही मुझे समझ आ गया कि हो क्या रहा था। कनिष्ठ भिक्षुओं के पास “कनिष्ठ-भिक्षु वाला दुःख” होता है। वरिष्ठ भिक्षुओं के पास “वरिष्ठ-भिक्षु वाला दुःख” होता है। जब मैं वरिष्ठ बना, तो बस एक प्रकार का दुःख छोड़कर दूसरे प्रकार का दुःख अपना लिया।
बिल्कुल यही बात उन अविवाहित लोगों पर लागू होती है जो विवाहितों से ईर्ष्या करते हैं, और विवाहितों पर जो अविवाहितों से ईर्ष्या करते हैं। जैसा कि अब तक हमें समझ जाना चाहिए, जब हम शादी करते हैं, तो हम सिर्फ “अविवाहित व्यक्ति का दुःख” छोड़कर “विवाहित व्यक्ति का दुःख” ले लेते हैं। फिर जब हम तलाक लेते हैं, तो हम “विवाहित व्यक्ति का दुःख” छोड़कर “अविवाहित व्यक्ति का दुःख” दोबारा अपना लेते हैं। बेचारा मैं, खुशकिस्मत वो।
जब हम गरीब होते हैं, तो अमीरों से ईर्ष्या करते हैं। लेकिन कई अमीर लोग, गरीबों की सच्ची मित्रता और ज़िम्मेदारियों से मुक्ति को लेकर ईर्ष्या करते हैं। अमीर बनना बस “गरीब व्यक्ति का दुःख” छोड़कर “अमीर व्यक्ति का दुःख” अपनाना है। रिटायर होना और आय में कटौती करना भी “अमीर व्यक्ति का दुःख” छोड़कर “गरीब व्यक्ति का दुःख” अपनाना है। और यह चक्र चलता ही रहता है। बेचारा मैं, खुशकिस्मत वो।
यह सोचना कि किसी और चीज़ में बदल जाने से तुम्हें ख़ुशी मिलेगी—यह एक भ्रांति है। कुछ और बनने का मतलब है बस एक तरह के दुःख को छोड़कर दूसरी तरह का दुःख अपनाना। लेकिन जब तुम इस बात से संतुष्ट हो जाते हो कि तुम अभी जो हो, वही ठीक हो—चाहे कनिष्ठ हो या वरिष्ठ, विवाहित हो या अविवाहित, गरीब हो या अमीर—तब तुम दुःख से मुक्त हो जाते हो।
खुशकिस्मत मैं, बेचारे वो!