बनभंते ही वह महान व्यक्ति थे जिन्होंने बांग्लादेश के पहाड़ी इलाकों में लोगों के बीच वास्तविक बुद्ध धम्म की शिक्षाओं का प्रसार किया। उनकी देशना सुनकर लोगों में कल्याण की भावना जागृत हुई और वे बुद्ध धम्म के गहरे अर्थ को समझने लगे।
जब बनभंते के धम्म उपदेशों की चर्चा दूर-दूर तक फैलने लगी, तो कचलौंग क्षेत्र के दुरचारी में रहने वाले एक श्रद्धालु गृहस्थ ने उन्हें अपने यहाँ ठहरने का निमंत्रण दिया। पूज्य बनभंते ने धम्म को और अधिक दूर-दराज़ के क्षेत्रों तक पहुँचाने के उद्देश्य से यह आमंत्रण स्वीकार कर लिया। वे दुरचारी विहार में कुछ समय तक रुके। यह घटना १९७० की है, जब उन्होंने बोआलखाली और मैनी क्षेत्रों को छोड़ दिया था।
उनकी अनुपस्थिति में उनकी कुटिया एक सुदूर स्थान में परिवर्तित हो गई थी, लेकिन उनके समर्पित उपासक बुद्ध के चित्र को देखने और बनभंते की स्मृतियों को हृदय में बसाने के लिए वहाँ जाते थे। बोआलखाली में उनके उपासकों को उनकी बहुत याद आती थी। जब वे उनकी कुटिया में प्रवेश करते, तो उन्हें एक अद्भुत और अनोखी सुगंध का अनुभव होता। यह सुगंध इतनी मधुर और दिव्य थी कि उन्होंने पहले कभी ऐसी सुगंध नहीं महसूस की थी। वे आपस में चर्चा करते, “ओह! यह कितनी मीठी गंध है!”
धीरे-धीरे यह रहस्यमय सुगंध की बात पूरे क्षेत्र में फैल गई। कई अन्य लोग भी इसकी वास्तविकता को परखने के लिए वहाँ गए। लेकिन कोई नहीं समझ पाया कि यह सुगंध कहाँ से आ रही थी। उन्होंने झोपड़ी के भीतर और आसपास हर स्थान की जाँच की, मगर कोई स्रोत नहीं मिला। सभी का यही मानना था कि यह दिव्य सुगंध बनभंते की ऋद्धि शक्ति का परिणाम थी।
यह ध्यान देने योग्य है कि १९७० के दौर में बौलखाली जैसे सुदूर, ग्रामीण, पहाड़ी इलाकों में इत्र, बॉडी स्प्रे या एयर फ्रेशनर जैसी चीज़ों का कोई अस्तित्व नहीं था। वहाँ के लोगों को इन कृत्रिम सुगंधों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। इसके अलावा, सामान्य इत्र या परफ्यूम की गंध अधिक देर तक नहीं टिकती, जबकि बनभंते की कुटिया में यह दिव्य सुगंध लंबे समय तक बनी रहती थी।
इस रहस्यमय घटना की कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं की जा सकती थी। शायद यह बनभंते के असीम पुण्य, उनकी शील-संपन्नता, गहन समाधि, और अद्वितीय ज्ञान का परिणाम था। यह भी संभव था कि यह देवताओं द्वारा दिया गया एक संकेत हो, जो उनके भविष्य के यश और कीर्ति का प्रतीक था।
बनभंते ने लोगों में धम्म की भावना जागृत करने के लिए पहाड़ी इलाकों में कई स्थानों की यात्रा की। बाद में वे लंगडू गए और अंततः रंगमती के राजबन विहार पहुँचे। वहाँ प्रवास के दौरान उनका नाम और यश न केवल बांग्लादेश, बल्कि दुनिया के कई देशों में फैल गया।
गंध की इस रहस्यमय घटना को देवताओं का संकेत माना जा सकता है, जो लोगों को बनभंते के महान भविष्य की ओर इंगित कर रहा था। जब स्वयं बुद्ध इस संसार में थे, तब भी अनेक पुण्यवान और सिद्धि-संपन्न देवता सदैव उनकी रक्षा और सेवा में उपस्थित रहते थे। बुद्ध ने एक भयावह नरभक्षी यक्ष, अलबक यक्ष को भी धम्म का ज्ञान दिया और उसे इस योग्य बना दिया कि वह उनके साथ रहकर उनकी रक्षा कर सके।
इसी प्रकार, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी कि बनभंते के चारों ओर भी देवता उनकी सहायता और धम्म प्रचार में योगदान देने के लिए सदैव उपस्थित रहते थे।
संसार में ऋद्धि शक्तियाँ अनेक प्रकार से प्रकट हो सकती हैं। इसके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं—
(१) अरहंत की ऋद्धि शक्ति: एक अरहंत, जो सम्यक ज्ञान और करुणा से परिपूर्ण होता है, अपनी ऋद्धि शक्ति को करुणा के प्रतीक के रूप में देवों और मनुष्यों के समक्ष दृढ़ संकल्प के माध्यम से प्रकट कर सकता है।
(२) ध्यानी व्यक्ति की ऋद्धि शक्ति: जो कोई पाँच पारलौकिक शक्तियों (अभिज्ञाओं) को प्राप्त कर चुका हो, वह भी अपने दृढ़ संकल्प के द्वारा ऋद्धि व्यवहार प्रदर्शित कर सकता है।
(३) देवों की ऋद्धि शक्ति: देवता भी अपने संकल्प के माध्यम से अलौकिक घटनाओं को प्रकट कर सकते हैं।
(४) श्रद्धालु व्यक्ति की शक्ति: कोई भी श्रद्धालु, बुद्धिमान और चतुर व्यक्ति, अपने दृढ़ संकल्प और विचार शक्ति से कुछ चमत्कारिक घटनाओं को घटित कर सकता है।
(५) तंत्र-मंत्र शक्ति: कोई व्यक्ति, जो तंत्र-मंत्र में निपुण हो, वह भी अपने मंत्रों के प्रभाव से अलौकिक शक्तियों को उत्पन्न कर सकता है।
हालाँकि, कई लोग तंत्र-मंत्र में विश्वास नहीं करते। स्वयं बुद्ध ने भी इस प्रकार की शक्तियों को नकारा नहीं, बल्कि उन्होंने लोगों को सही दृष्टिकोण अपनाने की शिक्षा दी। संसार में यह देखा जाता है कि लोग जब किसी दुख, बाधा, अशांति या बीमारी का सामना करते हैं, तो वे ब्राह्मणों, बैद्यों (गाँव के पारंपरिक चिकित्सकों) या अन्य साधकों के पास जाते हैं।
यहाँ एक उदाहरण दिया जा सकता है—
एक व्यक्ति प्रतिदिन एक गहरे कुएँ के पास स्नान करता था। उस कुएँ के पास एक पेड़ था, जिसमें एक देवता का वास माना जाता था। एक दिन उस देवता ने उस व्यक्ति को कुछ बुरे संकेत दिखाए, जिसके बाद वह बीमार पड़ गया। उस व्यक्ति ने गाँव के एक बैद्य से सलाह ली। बैद्य ने कुछ मंत्र पढ़े और कहा, “जिस कुएँ में तुम नहाते हो, वहाँ एक देवता रहता है। तुम उसके प्रभाव से बीमार हुए हो। यदि तुम उस देवता को एक मुर्गी, एक बत्तख, एक बोतल शराब, कुछ चावल और एक अंडा अर्पित करोगे, तो वह तुम्हें छोड़ देगा, अन्यथा तुम ठीक नहीं हो पाओगे।”
उस व्यक्ति ने बैद्य के कहे अनुसार देवता के लिए सामग्री चढ़ा दी और कुछ ही दिनों में उसकी तबीयत ठीक हो गई।
हालाँकि, यह भी सत्य है कि अधिकांश ग्रामीण बैद्य और तांत्रिक पूरी तरह ईमानदार नहीं होते। वे भौतिक लालसाओं और लाभ की चाह में लोगों को भ्रमित कर धोखा देते हैं। हालाँकि, कुछ बैद्य वास्तव में अपनी परामनोवैज्ञानिक शक्तियों का उपयोग करने में कुशल होते हैं, लेकिन उनके द्वारा दी गई सहायता लेना गलत दृष्टिकोण का परिणाम होता है।
इसलिए, बुद्ध ने स्पष्ट रूप से कहा—“बुद्ध, धम्म और संघ से बढ़कर कोई दूसरा श्रेष्ठ आश्रय नहीं है। इन्हीं तीन रत्नों के आश्रय में सभी प्रकार के दुखों से मुक्ति पाई जा सकती है। इनके अतिरिक्त और कोई भी उपाय निर्वाण प्राप्ति के लिए सक्षम नहीं है।”
सुपुब्बह्न सुत्त में यह कहा गया है:
इसका अर्थ यह है कि बुद्ध, धम्म और संघ की शक्ति से सभी प्रकार के अशुभ संकेत, अमंगल प्रतीक, अप्रिय ध्वनियाँ, दुर्भाग्यपूर्ण ग्रहों का प्रभाव और बुरे सपने नष्ट हो सकते हैं।
संक्षेप में, यह उपदेश हमें यह समझाता है कि यदि कोई व्यक्ति त्रिरत्न—बुद्ध, धम्म और संघ—का स्मरण करता है, तो किसी भी प्रकार का भय, संकट या बुरा स्वप्न उसे परेशान नहीं कर सकता। बुद्ध, धम्म और संघ की शरण लेने से मन में शांति, सुरक्षा और आत्मविश्वास उत्पन्न होता है, जिससे नकारात्मक शक्तियाँ और विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं।
बुद्ध के समय की एक घटना है। जब भगवान बुद्ध श्रावस्ती के जेतवन विहार में निवास कर रहे थे, जिसे अनाथपिंडिक ने दान दिया था, तब चंद्रमा के राजकुमार पर राहु ने आक्रमण किया। संकट के उस क्षण में, चंद्रमा के राजकुमार ने बुद्ध का स्मरण किया और भावपूर्वक कहा, “हे भगवान बुद्ध! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। आपने अष्टांगिक मार्ग के प्रभाव से सभी प्रकार के शारीरिक और मानसिक कष्टों से मुक्ति प्राप्त की है। आप सभी दुखों से परे हैं। मैं इस समय गंभीर संकट में हूँ। कृपया मेरी रक्षा करें!”
चंद्रमा के राजकुमार की यह पुकार भगवान बुद्ध तक पहुँची। बुद्ध ने राहु से कहा, “हे राहु, चंद्रमा के राजकुमार ने अरहन्त सम्यक सम्बुद्ध का स्मरण किया है। तुम उस पर कृपा करो और अपनी करुणा प्रकट करते हुए उन्हें मुक्त कर दो।”
बुद्ध की यह वाणी सुनकर राहु ने तुरंत राजकुमार को छोड़ दिया और असुरों के राजा बेपचित्ती के पास लौट गया। बेपचित्ती ने राहु से पूछा, “तुमने इतनी जल्दी चंद्रमा के राजकुमार को क्यों छोड़ दिया? क्या तुम डर गए?”
राहु ने उत्तर दिया, “मैंने बुद्ध की वाणी सुनी। यदि मैं बुद्ध की आज्ञा मानने से इंकार करता, तो मेरा सिर सात टुकड़ों में विभाजित हो जाता। मैं चाहे कितने भी जन्म लूँ, मुझे कहीं भी शांति नहीं मिलती!”
यह घटना स्पष्ट रूप से दर्शाती है कि बुद्ध के नाम की शक्ति कितनी महान थी।
इसी प्रकार, पूज्य बनभंते के बारे में भी यह पाया गया कि उनके नाम के स्मरण मात्र से लोग कई प्रकार के खतरों से बच जाते थे।
एक बार कुछ लुटेरों ने दो व्यक्तियों को पकड़ लिया और उन्हें बुरी तरह पीटने लगे। उनमें से एक व्यक्ति लगातार पूज्य बनभंते का नाम ले रहा था। बाद में जब उन दोनों की स्थिति देखी गई, तो पाया गया कि जो व्यक्ति बनभंते का नाम जप रहा था, उसे कोई गंभीर चोट नहीं आई थी और उसका शरीर लगभग स्वस्थ था। जबकि उसका मित्र, जो बनभंते का स्मरण नहीं कर रहा था, इतना घायल हो गया कि उसका चेहरा पहचान में नहीं आ रहा था। बाद में, जिसने बनभंते को स्मरण किया था, वह राजबन विहार में भिक्षु बन गया।
एक अन्य घटना में, कुछ दुष्ट लोगों ने एक व्यक्ति का अपहरण कर लिया और उसे मारने के लिए ले गए। अपहृत व्यक्ति ने कोई अन्य उपाय न देखकर उन दुष्ट लोगों से मित्रता और प्रेमभाव दिखाना शुरू कर दिया। कुछ समय बाद, आश्चर्यजनक रूप से, वे लोग उसके प्रति दयालु हो गए और उसे बिना किसी हानि के मुक्त कर दिया।
ये घटनाएँ काल्पनिक कथाएँ नहीं हैं, बल्कि सत्य घटनाएँ हैं, जो यह दर्शाती हैं कि सद्गुणों से युक्त व्यक्ति का स्मरण भी रक्षा प्रदान कर सकता है।
ज्ञानी जन कहते हैं कि संसार में सबसे श्रेष्ठ स्तुति बुद्ध के नौ गुणों की है। ये नौ गुण इस प्रकार हैं:
१. अरहं – जो समस्त केल्मषों(मन की गंदगी) से मुक्त हैं।
२. सम्मासम्बुद्धो – जिन्होंने सही ज्ञान के द्वारा स्वयं बोधि प्राप्त की।
३. विज्जाचरण-सम्पन्नो – जो पूर्ण ज्ञान और सदाचरण से युक्त हैं।
४. सुगतो – जो सद्गति को प्राप्त करने वाले हैं।
५. लोकविदु – जो समस्त लोकों के ज्ञाता हैं।
६. अनुत्तरो पूरीसदम्मा सारथि – जो मनुष्यों को नियंत्रित करने में अद्वितीय सारथी (मार्गदर्शक) हैं।
७. सत्था देवमानुस्सानं – जो देवों और मनुष्यों के श्रेष्ठ गुरु हैं।
८. बुद्धो – जो ज्ञान और जागरूकता से संपन्न हैं।
९. भगवा – जो महान पुण्य और शुभ गुणों से परिपूर्ण हैं।
इन नौ गुणों का स्मरण करने से सभी प्रकार के भय, संकट, षड्यंत्र और समस्याएँ समाप्त हो जाती हैं। बुद्ध की इन विशेषताओं का जाप करना न केवल उनकी स्तुति करने का एक तरीका है, बल्कि यह बुद्धानुस्मृति ध्यान भी है।
इन नौ गुणों में से “अरहं” सबसे श्रेष्ठ गुण माना जाता है। यह शब्द देवों, ब्रह्माओं और समस्त प्राणियों के लिए पूजनीय है। यदि कोई केवल “अरहं” शब्द का भी स्मरण करे, तो वह देवताओं की कृपा से अनेक संकटों से बच सकता है। यदि कोई इस शब्द को सही अर्थों में समझ ले और इसे अपने मन में धारण कर ले, तो उसका जीवन सुखमय बन जाता है।
माँ से मुलाकात
पूज्य बनभंते की माता, छोटे भाई, बहनें और बहनों के पति १९६० से ही कर्णफूली नदी की बाढ़ के बाद बंगालटाली में रह रहे थे। जब बनभंते दुरचरी में निवास कर रहे थे, तब उन्हें अपनी माता की बीमारी का समाचार मिला। वे अपनी माता से मिलने के लिए अत्यंत व्याकुल हो उठे। उनके मन में विचार आया, “मुझे अपनी माता को उनकी बीमारी के समय अवश्य देखना चाहिए। वे मुझे देखकर प्रसनन होंगी। इसके अतिरिक्त, यह मेरी भी जिम्मेदारी है कि मैं उन्हें धम्म के कुछ सिद्धांत सुनाऊँ, जिससे उनकी अगली पीढ़ी का कल्याण और सुख सुनिश्चित हो सके।”
इसी प्रकार, जब अतीत में महाथेर सारिपुत्त अपनी माता और अन्य सात अरहंतों की माताओं से संबंधित मिथ्या धारणाओं को दूर करने के लिए अपने जन्मस्थान नलक गाँव गए, तब उन्होंने बुद्ध के नौ महान गुणों का उपदेश दिया:
“इतिपि सो भगवा अरहं, सम्मासम्बुद्धो, विज्जाचरण-सम्पन्नो, सुगतो, लोकविदु, अनुत्तरो, पूरीसदम्मा सारथि, सत्था देवमानुस्सानं, बुद्धो भगवा।”
सारिपुत्त भंते के इन शब्दों को सुनकर उनकी माता तुरंत स्रोतापत्ति मार्ग में प्रविष्ट हो गईं। अत्यंत भावविभोर होकर उन्होंने अपने पुत्र से कहा, “उपतिस्स, तुमने मुझे पहले ये सिद्धांत क्यों नहीं बताए?”
जब पूज्य बनभंते बंगालटाली गाँव पहुँचे, तो उन्होंने पाया कि उनकी माता अत्यधिक बीमार थीं और मृत्यु के करीब थीं। किंतु अपनी बुद्धिमान दृष्टि से उन्होंने देखा कि माता का जीवन अभी समाप्त नहीं होने वाला था। उन्होंने अनुभव किया कि भले ही मृत्यु अभी दूर हो, लेकिन उनकी माता के अगले गंतव्य का मार्ग निश्चित नहीं था। उन्होंने सोचा, “यदि मैं उन्हें धम्म के विषय में शिक्षाएँ दूँ, तो उनकी मृत्यु के बाद उनका पुनर्जन्म किसी शुभ स्थान पर हो सकता है।”
माता बिरपुड़ी ने जब अपने पुत्र रथींद्र (बनभंते) को देखा, तो अत्यंत प्रसनन हुईं और कहा, “रथींद्र, तुम कैसे हो? मैंने सोचा था कि मैं तुम्हें फिर कभी नहीं देख पाऊँगी।”
बनभंते ने उत्तर दिया, “मैं अच्छा हूँ, माँ। तुम कैसी हो?”
माता ने उत्तर दिया, “तुम्हें देखने के बाद मैं अब अधिक स्वस्थ महसूस कर रही हूँ। मुझे लगता है कि मैं अब जीवित रहूँगी। लेकिन जब तुम घर छोड़कर गए थे, तब मैंने तुमसे कहा था कि मेरी मृत्यु से पहले एक बार मुझसे मिलने आना। मुझे विश्वास है कि तुम्हें यह याद होगा। रथींद्र, कृपया इसे मत भूलना। मेरी मृत्यु से पहले आओ, तभी मुझे शांति मिलेगी।”
बनभंते ने अपनी माता को धम्म के सिद्धांत अत्यंत श्रद्धा और सम्मानपूर्वक प्रदान किए। जाते समय, उन्होंने अपनी माता को बुद्ध, धम्म और संघ (त्रिरत्न) में अटूट श्रद्धा रखने की प्रेरणा दी और यह भी कहा कि उन्हें सदैव पूर्ण जागरूकता (सम्प्रजन्य) और ध्यान की भावना में रहना चाहिए।
इसके पश्चात, पूज्य बनभंते बंगालटाली से वापस दुरचरी लौट गए।
एक ही पूर्वज के लोगों द्वारा आमंत्रण जब पूज्य बनभंते दुरचरी (एक जगह का नाम हैं) जा रहे थे, तो उनके अपने पूर्वज समुदाय के लोगों ने उनसे अनुरोध किया कि वे रूपकारी के एक स्थानीय विहार में एक रात ठहरें, ताकि गाँव के लोग उनके प्रवचन सुन सकें। बनभंते ने सहर्ष यह आमंत्रण स्वीकार कर लिया। जब यह समाचार पूरे गाँव में फैला कि बनभंते रूपकारी विहार में ठहरे हुए हैं, तो उन्हें देखने और उनकी शिक्षाएँ सुनने के लिए लोग बड़ी संख्या में वहाँ एकत्र होने लगे।
हालाँकि, गाँव में एक व्यक्ति था जो बनभंते का सम्मान नहीं करता था और उनका उपहास कर रहा था। उसने व्यंग्यपूर्वक टिप्पणी की, “बनभंते अवश्य ही उभयलिंगी होंगे। अन्यथा, उन्होंने हमारी तरह विवाह करके गृहस्थ जीवन क्यों नहीं अपनाया?”
वहाँ उपस्थित अन्य लोगों ने उसे इस तरह की अनुचित बातें न करने की चेतावनी दी, लेकिन वह अपनी बातों से पीछे नहीं हटा।
अगले दिन, गाँववालों ने बनभंते के सम्मान में एक धार्मिक कार्यक्रम का आयोजन किया। जब कार्यक्रम का समय आया, तो पूज्य बनभंते निर्धारित समय पर आए और उनके लिए बनाए गए मंच पर आसीन हुए।
वही दुष्ट व्यक्ति, जो पहले बनभंते का मजाक उड़ा रहा था, उन्हें देखकर फिर से मुस्कुराने लगा और अपने आस-पास बैठे लोगों से व्यंग्यपूर्वक कहने लगा, “भाइयों, देखो तो सही, बनभंते मंच पर कैसे बैठे हैं! उन्हें देखकर मुझे शर्म आती है। वे नंगे बैठे हैं, कम से कम ठीक से तो बैठ सकते थे!”
उसके बगल में बैठे एक व्यक्ति ने गुस्से में उसे डाँटते हुए कहा, “क्या तुम पागल हो? भंते पूरी मर्यादा और शालीनता के साथ बैठे हैं। तुम यहाँ अपशब्द बोलना बंद करो! तुम्हारी आदत ही बन गई है कि हर समय बेकार की बातें करते रहते हो। कृपया अपनी मूर्खता छोड़ो और भंते के उपदेशों को सुनो। इससे कम से कम तुम्हारा कुछ भला तो हो सकता है।”
लेकिन वह व्यक्ति अपनी हँसी रोक नहीं पाया। वह फिर से बनभंते की ओर देखता रहा और भीतर ही भीतर मुस्कुराता रहा।
संभव था कि बनभंते के प्रति उसके मन में जो अपशब्द और अपमानजनक विचार उठ रहे थे, वे ही उसे एक विकृत दृष्टि प्रदान कर रहे थे। जहाँ अन्य लोगों को बनभंते पूरी गरिमा के साथ बैठे दिखाई दे रहे थे, वहीं उस व्यक्ति को उनका स्वरूप कुछ विचित्र प्रतीत हो रहा था। यह इस बात का प्रमाण था कि मन का पूर्वाग्रह और विकृत दृष्टिकोण, व्यक्ति को वास्तविकता को देखने से रोक सकता है।
लंगाडू के तिनतिला में आगमन दुर्चरी बौद्ध विहार में कुछ दिन बिताने के बाद, पूज्य बनभंते को ऐसा स्थान चाहिए था जहाँ ध्यान और साधना में अधिक सुविधा हो और गृहस्थों का व्यवधान कम हो। बाघाचारी के खेदारमा बौद्ध विहार के मुख्य भिक्षु, पूज्य इंद्रचार भिक्खु ने उन्हें लंगडू में एक उपयुक्त स्थान के बारे में बताया और वहाँ आने का आग्रह किया।
जब पूज्य बनभंते ने लंगडू जाने की इच्छा जताई, तो पूज्य इंद्रचार भंते ने समाज के लोगों से इस विषय में चर्चा की। इसके बाद, समाज के प्रमुख व्यक्तियों ने एक काठिना सिवारा दान समारोह आयोजित कर पूज्य बनभंते को तिनतिला बौद्ध विहार में आमंत्रित करने का निर्णय लिया। इस समिति में कई सम्मानित लोग शामिल थे, जैसे—राज गुरु पूज्य अग्रबंश महाथेर, पूज्य बोधिपाल महाथेर, तिनतिला के मुखिया और अध्यक्ष श्री अनिल बिहारी चकमा, श्री प्रतुल विकास चकमा (निरोध), श्री सत्यव्रत चकमा, श्री निशिचंद्र चकमा, श्री सचिनथ चकमा और श्री बीरसेन चकमा आदि।
वर्ष १९७० में, यह समिति पूज्य बनभंते को आमंत्रित करने के लिए दुर्चरी गई। वहाँ उन्होंने भंते को पुष्पगुच्छ भेंट किए और उनसे निवेदन किया कि वे तिनतिला बौद्ध विहार पधारें। इस पर पूज्य बनभंते ने उनसे पूछा, “प्रिय गृहस्थों, क्या आप एक महीने के भीतर विहार का निर्माण कर सकते हैं?” इस पर सभी ने पूरे आत्मविश्वास के साथ उत्तर दिया कि उन्हें हर हाल में एक महीने में विहार का निर्माण पूरा करना होगा।
यह सुनकर पूज्य बनभंते ने उन्हें शीघ्रता से नींव रखने की सलाह दी और उनका निमंत्रण स्वीकार कर लिया। फिर, १९७० में काठिना उत्सव से पहले, पूज्य बनभंते पहली बार लंगडू पहुंचे।
लंगडू, रंगमती जिले के सबसे बड़े क्षेत्रों में से एक था और प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर था। कचलोंग नदी इसके मध्य से बहती थी। यहाँ तिनतिला नामक एक स्थान था, जहाँ तिनतिला बौद्ध विहार स्थित था। जब पूज्य बनभंते को इस बौद्ध विहार में आमंत्रित किया गया, उस समय यह स्थान वर्तमान बांग्लादेश कृषि विकास निगम (B.A.D.C.) की उर्वरक कंपनी के क्षेत्र में स्थित था।
यह उल्लेखनीय है कि जब पूज्य बनभंते लंगडू आए, उस समय यह कोई विकसित क्षेत्र नहीं था, बल्कि एक घना वन था। काठिना समारोह के दिन, पूज्य बनभंते ने वन की ओर इशारा करते हुए कहा, “भिक्षुओं और साधकों के लिए ये घने वन सबसे उपयुक्त हैं। यदि विहार किसी बस्ती के बहुत निकट हो, तो ध्यान में बाधा आ सकती है।”
इस अवसर पर श्री गंगाधन चकमा, श्री विकास चकमा, पूज्य बोधिपाल महाथेर और कई अन्य श्रद्धालु उपस्थित थे। उन्होंने महसूस किया कि यदि इस वन क्षेत्र में एक नया विहार बनाया जाए, तो यह पूज्य बनभंते के ध्यान और साधना के लिए अत्यंत लाभकारी होगा।
अतः काठिना समारोह के बाद, पूज्य अग्रबंश महाथेर, पूज्य बोधिपाल महाथेर और अन्य वरिष्ठ श्रद्धालुओं ने उसी दिन तिनतिला बन विहार के लिए स्थान का चयन किया। जब तक इस विहार का निर्माण पूरा नहीं हुआ, तब तक पूज्य बनभंते खेदारमा बौद्ध विहार में रहे।
यह उल्लेखनीय है कि खेदारमा बौद्ध विहार के मुख्य भिक्षु, जिन्होंने पूज्य बनभंते को तिनतिला बन विहार में आमंत्रित करने की पहल की थी, समाज में विशेष सम्मान प्राप्त करने लगे।
समर्पित गृहस्थों के अथक प्रयासों से तिनतिला बन विहार केवल एक महीने में बनकर तैयार हो गया। जब पूज्य बनभंते को वहां लाया गया, तो पूरे समाज में हर्ष और श्रद्धा का वातावरण व्याप्त हो गया।
तिनतिला बौद्ध विहार के भविष्य की भविष्यवाणी १९७० के अंत तक, जब तिनतिला बन विहार का निर्माण पूरा हो गया, तब समुदाय के कुछ श्रद्धालु पूज्य बनभंते के पास पहुँचे। इनमें श्री अनिल बिहारी चकमा, श्री गंगाधन चकमा और उनके सबसे बड़े पुत्र श्री सुबल चंद्र चकमा, श्री सचिनथ चकमा, श्री निशिचंद्र चकमा, श्री प्रतुल विकास चकमा, श्री बिजॉय कुमार चकमा आदि शामिल थे। उन्होंने पूज्य बनभंते से पुराने तिनतिला बौद्ध विहार के पुनर्निर्माण के लिए अनुमति, मार्गदर्शन और आशीर्वाद की विनती की।
पूज्य बनभंते ने उनकी बात सुनकर पूछा, “इसके लिए आपको कितनी धनराशि की आवश्यकता होगी?”
इस पर उन्होंने उत्तर दिया, “भंते, यदि हम श्रम का योगदान स्वयं करें, तो हमें केवल पाँच हज़ार टका की आवश्यकता होगी।”
यह सुनकर पूज्य बनभंते ने गंभीर स्वर में कहा, “यह बहुत बड़ी रकम है। वर्तमान तिनतिला बौद्ध विहार जिस स्थान पर स्थित है, भविष्य में वहाँ से बहुत सारे सैनिक सड़क पर चलते हुए गुजरेंगे। वे अपने जूतों और हथियारों के साथ विहार में प्रवेश करेंगे, जिससे यह स्थान अकुशल हो जाएगा। तिनतिला पारा (या समुदाय) के बीच जो मुख्य सड़क है, एक दिन वहाँ भी बहुत सारे लोग आने-जाने लगेंगे।”
पूज्य बनभंते की यह भविष्यवाणी सुनकर सभी लोग स्तब्ध रह गए। उनकी गहन दृष्टि और भविष्य के प्रति उनकी स्पष्टता को देखकर वे बहुत प्रभावित हुए।
इसके बाद, उन्होंने पुराने बौद्ध विहार के पुनर्निर्माण की योजना छोड़ दी और तिनतिला बन विहार के विकास के लिए धनराशि का उपयोग करने का निर्णय लिया।
१९७१ में, पूज्य बनभंते की भविष्यवाणियाँ सच साबित हुईं। जब पश्चिमी पाकिस्तान के अत्याचारी शासकों ने पूर्वी पाकिस्तान में हर तरह के अत्याचार, दंगे, लूट, बलात्कार और हत्याएँ कीं, तब तिनतिला बौद्ध विहार भी इस विनाश से अछूता नहीं रहा। मई या जून के युद्ध के दौरान, पाकिस्तानी सैनिक अपने जूते और हथियार लेकर तिनतिला बौद्ध विहार में घुस आए और शुद्ध स्थानों को अशुद्ध कर दिया।
उस कठिन समय में, हर धर्म और समुदाय के लोग—हिंदू, मुस्लिम, बौद्ध और ईसाई—अपनी सुरक्षा और मार्गदर्शन के लिए पूज्य बनभंते के पास गए। वे उनसे सलाह मांगते थे, और बनभंते हमेशा धैर्य और सत्य की राह दिखाते हुए कहते, “तुम सब सत्यनिष्ठ बनो। सभी प्रकार के मिथ्या विचारों को त्याग दो। केवल अच्छे काम करो, और किसी को कोई हानि मत पहुँचाओ। यदि तुम सत्य के मार्ग पर चलोगे और अच्छे कर्मों में लगे रहोगे, तो कोई भी विपत्ति तुम्हें गिरा नहीं सकती। सत्य को न तो रोका जा सकता है, न ही छिपाया जा सकता है। एक दिन सत्य की विजय होगी। इसलिए सत्य को पकड़ो।”
मुक्ति संग्राम के दौरान, पूज्य बनभंते अक्सर कहते थे, “जिस तरह पाकिस्तानी सेना निर्दोष लोगों पर अत्याचार, दमन, लूट, बलात्कार और हत्या कर रही है, अब उनका पतन दूर नहीं है।” वे यह भी बताते थे कि सामान्य लोग जब विवेकहीन होकर न्याय को अन्याय, अन्याय को न्याय, सत्य को असत्य और असत्य को सत्य समझने लगते हैं, तब वे अपने ही दुष्कर्मों से दुख को आमंत्रित कर लेते हैं।
यहाँ एक और घटना उल्लेखनीय है। पूज्य बनभंते के समर्पित उपासक, डॉ. अरबिंद बरुआ, अक्सर तिनतिला जाकर बनभंते से मिलते और उनके धम्म देशना को सुनते थे। वे कई बार अपने एक अन्य प्रमुख उपासक, मुखिया श्री अनिल बिहारी चकमा के साथ वहाँ रुकते थे।
मार्च १९७१ में, जब बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान के आह्वान पर पूरे पूर्वी पाकिस्तान में युद्ध छिड़ गया, तब श्री अरबिंद भी तिनतिला में ठहरे हुए थे। एक दिन, बनभंते ने गहरी चिंता प्रकट करते हुए कहा, “शोक, शोक, और शोक! नौ महीने तक केवल खून और खून बहेगा।”
एक महान संत के वचन कभी असत्य नहीं होते। कुछ ही महीनों बाद, यह भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। पाकिस्तानी सेना को अंततः स्वतंत्रता सेनानियों के समक्ष आत्मसमर्पण करना पड़ा। लगभग तीस लाख लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी, और असंख्य माताओं-बहनों को घोर यातनाएँ सहनी पड़ीं। अंततः, इन बलिदानों के बाद, बांग्लादेश स्वतंत्र हुआ।
हालाँकि, यह एक अद्भुत बात थी कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लंगडू क्षेत्र में कोई भी घायल नहीं हुआ। यह पूज्य बनभंते के वहाँ निवास, उनके पुण्य, और सभी जीवों के प्रति उनकी करुणा का प्रभाव था।
हालाँकि युद्ध के समय, सुरक्षा कारणों से, पूज्य बनभंते ने तिनतिला क्षेत्र छोड़ दिया और एक सुरक्षित ध्यान स्थल की तलाश में भाईबोनचरा चले गए। वहाँ के लोगों के अनुरोध पर वे सितंबर से दिसंबर १९७१ तक चार महीने तक एक विहार में रहे।
फिर, जब १६ दिसंबर १९७१ को बांग्लादेश स्वतंत्र हुआ, तो वे पुनः तिनतिला बन विहार लौट आए। उनके वापस आने से विहार और पूरे क्षेत्र में शांति और श्रद्धा का वातावरण फिर से स्थापित हो गया।
अत्यधिक सम्मान और भक्ति के परिणामों का अवलोकन
बांग्लादेश के स्वतंत्र होने के अगले दिन, शाम करीब चार बजे, श्री गंगाधन चकमा और श्री प्रतुल चकमा पूज्य बनभंते के विहार में उन्हें कुछ पेय दान करने के बाद वापस लौट रहे थे। रास्ते में, उनकी मुलाकात थाना सहकारिता अधिकारी श्री शमसुल हक और थाना मत्स्य अधिकारी श्री सुकुमार बरुआ से हुई। बातचीत के दौरान पता चला कि वे किसी विशेष कारण से पूज्य बनभंते के विहार जा रहे थे।
श्री शमसुल हक के विशेष अनुरोध पर, श्री गंगाधन और श्री प्रतुल भी उनके साथ दोबारा विहार चले गए। पूज्य बनभंते ने उनकी ओर देख कर पूछा, “आप लोग वापस क्यों आए?”
श्री प्रतुल ने श्री शमसुल की ओर इशारा करते हुए कहा, “भंते, हम उनके अनुरोध पर लौटे हैं। हम यहाँ एक विशेष कारण से आए हैं।”
बनभंते ने श्री शमसुल हक से उनकी आने की वजह पूछी। उन्होंने आदरपूर्वक निवेदन किया, “भंते, मेरी पत्नी एक असाध्य रोग से पीड़ित है। मैंने कई डॉक्टरों से इलाज करवाया, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। मेरे मन में आपके प्रति अपार श्रद्धा और आस्था है। मेरा विश्वास है कि केवल आपके आशीर्वाद से मेरी पत्नी ठीक हो सकती है। कृपया हमें आशीर्वाद दें।”
पूज्य बनभंते ने शांत भाव से उत्तर दिया, “मैं कोई डॉक्टर, आयुर्वेदाचार्य या वैद्य नहीं हूँ। यदि मैं होता, तो तुम्हें कोई औषधि लिखकर दे देता।”
फिर उन्होंने श्री शमसुल को धैर्य और सदाचार का मार्ग अपनाने की सलाह दी और कहा, “कभी-कभी, ईमानदारी से कमाए गए धन से महान और सच्चरित्र लोगों को दान देने से जटिल रोगों से मुक्ति मिल सकती है।”
विहार से लौटते समय, श्री शमसुल हक चिंतित हो उठे और श्री प्रतुल से पूछा, “अब मुझे क्या करना चाहिए? पूज्य बनभंते ने मुझे कोई सीधी बात नहीं बताई!”
श्री प्रतुल ने मुस्कुराते हुए कहा, “क्या तुमने उनकी बात को समझा नहीं?”
श्री शमसुल ने असमंजस में सिर हिलाया, “नहीं, मुझे कुछ भी स्पष्ट समझ में नहीं आया।”
तब श्री प्रतुल ने श्री गंगाधन से पूछा, “क्या तुमने कुछ समझा?”
उन्होंने भी उत्तर दिया, “नहीं।”
इस पर श्री प्रतुल बिकाश ने समझाया, “महापुरुष सीधे शब्दों में बात नहीं करते। वे संकेतों के माध्यम से लोगों को सही दिशा दिखाते हैं। उनकी बातों में गहरी शिक्षा छिपी होती है, जिसे समझने के लिए श्रद्धा और चिंतन आवश्यक होता है।”
फिर उन्होंने श्री शमसुल हक से कहा, “बनभंते ने यह कहा है कि ईमानदारी से अर्जित धन से महान व्यक्तियों को दान देने से रोग दूर हो सकते हैं। अब, क्या तुम इस बात से सहमत नहीं हो कि पूज्य बनभंते सबसे महान व्यक्ति हैं? वे स्वयं यह नहीं कह सकते कि मुझे दान करने से तुम्हारी पत्नी ठीक हो जाएगी। लेकिन उनके संकेत का अर्थ यही है कि तुम अपनी सच्ची कमाई से कुछ दान करो और उनके प्रति श्रद्धा रखो। आशा है कि तुम्हारी पत्नी जल्द ठीक हो जाएगी।”
यह सुनकर, श्री शमसुल हक ने अपने मासिक वेतन से पंद्रह टका निकालकर कुछ खाद्यान्न खरीदा और श्रद्धा भाव से श्री गंगाधन चकमा के माध्यम से पूज्य बनभंते को दान कर दिया।
आश्चर्यजनक रूप से, एक सप्ताह के भीतर ही श्री शमसुल हक की पत्नी पूरी तरह स्वस्थ हो गई। इस घटना की जानकारी धीरे-धीरे कई लोगों तक पहुँची, और इससे पूज्य बनभंते के प्रति लोगों की श्रद्धा और सम्मान और अधिक बढ़ गया।
विहार दान के एक समारोह में
बनभन्ते की माँ और उनके धार्मिक शिक्षक का निमंत्रण बांग्लादेश की स्वतंत्रता के बाद, तिनतिला में पूज्य बनभंते के लिए एक विहार का निर्माण किया गया। सभी आवश्यक अनुष्ठानों को पूरा करने के पश्चात, श्रद्धालु उपासकों ने पूज्य बनभंते से अनुरोध किया कि वे इस विहार को उन्हें और उनके शिष्यों को दान करने की अनुमति दें।
पूज्य बनभंते ने यह सुनकर विनम्रतापूर्वक कहा, “यदि यह विहार दान करना ही है, तो मेरी धर्मपरायण और पुण्यवान माता, श्रीमती बीरापुडी चकमा, और मेरे भिक्षु जीवन के प्रथम गुरु, प्रधान पूज्य दीपांकर श्रीज्ञान महाथेर, इन दोनों को यहाँ लाओ और विहार दान समारोह के दौरान उनकी उपस्थिति सुनिश्चित करो।”
बनभंते की इस इच्छा का सम्मान करते हुए, उनके अनुयायियों ने उनकी माता और पूज्य दीपांकर श्रीज्ञान महाथेर को तिनतिला लाने की पूरी व्यवस्था की। जब पूज्य दीपांकर महाथेर ने वर्षों बाद अपने शिष्य, पूज्य बनभंते को देखा, तो उनके हृदय में गहन श्रद्धा उमड़ आई। उन्होंने अनुभव किया कि उनके शिष्य ने निश्चित रूप से गहन धार्मिक ज्ञान और संसार के बंधनों से मुक्ति का साक्षात्कार कर लिया होगा।
पूज्य दीपांकर महाथेर ने यह देख कर कहा, “संयम, आत्मानुशासन और आत्मबलिदान, मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक हैं। मेरे शिष्य में भिक्षु विनय के अनुसार अनुशासन, सहिष्णुता, उदार मानसिकता और सचेत स्मृति के गुण विद्यमान हैं। ये सब संकेत करते हैं कि वह अरहंत मार्ग पर अग्रसर हैं।”
पूर्ण प्रसननता और संतोष के साथ उन्होंने कहा, “साधु, साधु! यह कितना प्रशंसनीय है! मेरे शिष्य ने वास्तव में अलौकिक ज्ञान प्राप्त किया है। यह असाधारण उपलब्धि है!”
उन्होंने विस्मित होते हुए आगे कहा, “मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि मेरा शिष्य इस प्रकार अलौकिक ज्ञान को प्राप्त करेगा! आज, उसे देखकर मुझे पूर्ण विश्वास हो गया है कि वह इस महान सत्य का साक्षात्कार कर चुका है और एक दिन वह अनेक लोगों को दुखों से मुक्ति दिलाने वाला महानतम व्यक्ति बनेगा।”
पूज्य दीपांकर महाथेर अपने शिष्य की इस उपलब्धि से अत्यंत प्रसनन हुए और उन्होंने पूज्य बनभंते को एक भिक्षु वस्त्र दान करने की इच्छा व्यक्त की। उन्होंने अत्यंत श्रद्धा के साथ उन्हें एक नया वस्त्र दान किया और आशीर्वाद देते हुए कहा, “तुम अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करो!”
इस पर, पूज्य बनभंते ने तुरंत कहा, “मुझे अपने पूज्य गुरु को क्या अर्पित करना चाहिए?”
यह सुनकर, उनके श्रद्धालु उपासक श्री गंगाधन चकमा ने सुझाव दिया कि उन्हें “बोर्गी” नामक एक विशेष पारंपरिक गर्म कपड़ा दान करना चाहिए, जिसे चकमा समुदाय बड़े आदर से तैयार करता है।
सभी उपासकों ने इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया। इसके बाद, श्री गंगाधन चकमा ने पूज्य दीपांकर महाथेर के लिए एक नई बोर्गी कपड़ों की जोड़ी भेंट करने का प्रबंध किया।
पूज्य बनभंते ने अत्यंत श्रद्धा और सम्मान के साथ अपने पूज्य गुरु को यह बोर्गी वस्त्र अर्पित किया। इस हृदयस्पर्शी गुरु-शिष्य परंपरा के साक्षी बनने के लिए विहार दान समारोह में बड़ी संख्या में श्रद्धालु एकत्रित हुए।
इस ऐतिहासिक क्षण ने वहाँ उपस्थित सभी श्रद्धालुओं के हृदय को गहरी भक्ति और प्रेरणा से भर दिया।
अरहंतपद प्राप्ति के संदर्भ में कुछ शब्द
बहुत से लोगों का मानना है कि पूज्य बनभंते ने लंगडू में रहते हुए अरहंत पद प्राप्त किया था। कुछ का कहना है कि जब वे धनपता में थे, तब उन्हें निर्वाण प्राप्त करने में लगभग बारह वर्ष लगे। हालाँकि, वे धनपता में बारह नहीं, बल्कि ग्यारह वर्षों तक रहे। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि विहार दान समारोह से पहले ही वे अरहंत बन चुके थे। लेकिन क्योंकि पूज्य बनभंते ने स्वयं कभी यह स्पष्ट नहीं किया कि उन्हें कब और कहाँ अरहंतत्व प्राप्त हुआ, इसलिए यह विषय अब भी चर्चा और विवाद का विषय बना हुआ है।
ऐसे कई तर्क प्रस्तुत किए गए हैं जो उनके अरहंत बनने की भविष्यवाणी करने का आधार बनते हैं। जब पूज्य बनभंते धनपता में थे, तो वे हमेशा स्त्रियों के प्रति अत्यंत सतर्क रहते थे। यहाँ तक कि जब वे दिघिनाला और तिनतिला में थे, तब भी किसी भी स्त्री को बिना किसी पुरुष के उनकी कुटिया में प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी। स्त्रियाँ बाहर ही रुककर उनके उपदेश सुनती थीं और व्रत का पालन करती थीं। वे न तो किसी स्त्री की ओर देखते थे और न ही किसी स्त्री को उनकी ओर देखने की अनुमति थी।
पूज्य बनभंते अक्सर कहा करते थे, “स्त्रियाँ पुरुषों से ज्ञान ग्रहण करती हैं। स्त्रियों के संपर्क में रहकर निर्वाण प्राप्त करना संभव नहीं है।” लेकिन जब वे राजबन विहार आए, तो उन्होंने स्त्रियों के लिए पहले जैसा परदा नहीं रखा। इस परिवर्तन को देखकर कुछ लोगों ने उनसे पूछा, “भंते, अब आप स्त्रियों को अपने सामने आने से क्यों नहीं रोकते? जब आप दिघिनाला और तिनतिला में थे, तब आपने स्त्रियों को अपनी कुटिया में आने से मना किया था, लेकिन अब आप ऐसा नहीं करते। पहले आप स्त्रियों की ओर देखते भी नहीं थे, लेकिन अब आप उन्हें देखते हैं।”
इस पर पूज्य बनभंते ने उत्तर दिया, “देखिए, पहले मैं एक फिसलन भरी और खतरनाक जगह पर था, जहाँ हर समय गिरने का भय था। लेकिन अब मैं एक सुरक्षित स्थान पर हूँ। इसे इस तरह समझें—जब कोई व्यक्ति खाई के किनारे टेढ़े-मेढ़े और खुरदरे रास्तों पर गाड़ी चलाता है, तो हमेशा गिरने का डर रहता है। लेकिन जब वह सुरक्षित और समतल सड़क पर पहुँच जाता है, तो उसे अब कोई डर नहीं रहता। अब मैं उन खतरनाक रास्तों को पार कर चुका हूँ और पूर्ण रूप से सुरक्षित हूँ। अब मैं पुरुष और स्त्री में कोई भेद नहीं देखता। अब वे मेरे लिए केवल चार महान तत्वों—पृथ्वी (पथवी-धातु), जल (आपो-धातु), अग्नि (तेजो-धातु) और वायु (वायो-धातु)—से बने हुए मात्र रूप हैं।”
एक अन्य अवसर पर, जब पूज्य बनभंते राजबन विहार में ठहरे हुए थे, तो उन्होंने कहा, “अब मैं समझ सकता हूँ कि यदि कोई स्रोतापन्न, सकृदागामि या अनागामि भी बन जाए, तो भी उसमें संपूर्ण आस्था नहीं होती। केवल अरहंत बनकर ही यह संभव है।”
इस आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि जब पूज्य बनभंते राजबन विहार में ठहरे हुए थे, तब वे अरहंत बन चुके थे।
विशाखा द्वारा आविष्कृत कठिन चीवर दान समारोह
लगभग २,५०० वर्ष पूर्व, जब भगवान बुद्ध इस संसार में विराजमान थे, महा उपासिका विशाखा, जिन्हें मिगार माता के नाम से भी जाना जाता है, ने पहली बार बुद्ध और उनके शिष्यों को कठिना वस्त्र दान किए थे।
बुद्ध के ज्ञान प्राप्ति के चार या पाँच वर्ष बाद, वे कोसल साम्राज्य की राजधानी सावत्थी के पास स्थित जेतवन महाविहार में निवास कर रहे थे। उसी समय, तीस भिक्षुओं का एक समूह, जो बुद्ध ने स्वयं के दीक्षित थे, वर्षावास समाप्त होने के बाद साकेत शहर से सावत्थी की ओर आये। जब वे बुद्ध से मिलने पहुँचे, तो बुद्ध ने उनका स्वागत किया, उनके एकांतवास और यात्रा के बारे में पूछा, और उनके पुराने, फटे व गीले वस्त्रों को देखकर ध्यान दिया।
उसी समय, महा उपासिका विशाखा भी वहाँ उपस्थित थीं और बुद्ध के धम्म उपदेश को सुन रही थीं। जब उन्होंने भिक्षुओं की दयनीय वस्त्र अवस्था देखी, तो उन्होंने बुद्ध से अनुरोध किया कि वे भिक्षुओं को नए वस्त्र अर्पित करना चाहती हैं। बुद्ध ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली।
इसके बाद, बुद्ध ने एक नियम स्थापित किया कि भिक्षु वर्षावास समाप्त होने के बाद, ग्यारहवें चंद्र माह के मध्य से बारहवें चंद्र माह के मध्य तक एक महिने की अवधि के भीतर, विभिन्न स्थानों पर जाकर वस्त्र प्राप्त कर सकते हैं और दानदाताओं द्वारा अर्पित वस्त्रों को स्वीकार कर सकते हैं। इस अवधि को ‘कठिन काल’ कहा जाता है।
उन दिनों न तो सिलाई मशीनें थीं और न ही कपड़ा निर्माण के कारखाने। इसलिए, भिक्षुओं के लिए वस्त्र तैयार करना एक कठिन कार्य था, जिसमें बहुत अधिक श्रम और समन्वय की आवश्यकता पड़ती थी। इसे एक ही दिन में पूरा कर पाना संभव नहीं था। बुद्ध ने इस कठिनाई को समझते हुए अपने शिष्यों को आदेश दिया कि वे आवश्यकता पड़ने पर किसी भी भिक्षु के लिए वस्त्र तैयार कर सकते हैं और संघ की सहमति से उन भिक्षुओं को वितरित कर सकते हैं जिन्हें इसकी आवश्यकता हो।
नागित अपदान में उल्लेख किया गया है कि कठिना दान, पुण्य प्रदान करने वाले सभी सांसारिक दानों में सर्वोच्च स्थान रखता है। पूज्य नागित थेरा ने बताया कि कठिना वस्त्र दान के परिणामस्वरूप उन्होंने १०० से अधिक बार स्वर्गीय सुखों का आनंद लिया, कई बार शक्र (स्वर्ग के राजा) के रूप में जन्म लिया और १,००० से अधिक बार चक्रवर्ती राजा बने। उन्होंने कहा कि इस महान पुण्य के प्रभाव से, अरहंतत्व प्राप्त करने के बाद, उन्हें नर्क या किसी अन्य दुर्भाग्यपूर्ण योनि में जन्म लेने का कष्ट नहीं उठाना पड़ा।
इस प्रकार, कठिना वस्त्र दान का महत्व न केवल तत्काल लाभ पहुँचाने वाला है, बल्कि यह दानकर्ता के लिए भी अनंत पुण्य प्रदान करने वाला महान कार्य माना गया है।
पूज्य नागित थेरा ने बुद्ध द्वारा पूछे गए प्रश्न का उत्तर देते हुए कठिन वस्त्र अर्पण से प्राप्त होने वाले गुणों और उनके प्रभावों की व्याख्या की। उन्होंने बताया कि वे भिक्षुओं और सभी मनुष्यों में सबसे भाग्यशाली कैसे बने। यहाँ, मैं केवल पूज्य नागित द्वारा बुद्ध को दिए गए तीन छंदों के उत्तर का सार प्रस्तुत करना चाहूँगा।
पाली ग्रंथ नागित अपदान की कठिननिसंसा कथा (कठिन के परिणामों की कथा) में वर्णित अनुसार, पूज्य नागित ने कहा—
“मैंने तीस कल्पों की अवधि में कभी भी निचले लोकों (दुर्गति) का अनुभव नहीं किया, क्योंकि मैंने कुलीन भिक्षु समुदाय को कठिन वस्त्र अर्पित करने का महान पुण्य अर्जित किया। हर जन्म में, मुझे अत्यंत विलासपूर्ण संसाधन प्राप्त हुए, और कठिन वस्त्र अर्पण के कारण मैं अत्यंत श्रेष्ठ व्यक्ति बना।”
उन्होंने आगे कहा—
“मैंने कभी किसी निम्न लोक में जन्म नहीं लिया। केवल मानव और स्वर्गीय लोकों में जन्म लेकर ही मैंने महान भिक्षु समुदाय को कठिन वस्त्र अर्पित करने के पुण्य का अनुभव किया है।”
पूज्य बनभंते ने भी आम लोगों को कठिन दान के गुण और लाभों के बारे में बताया और उन्हें महा उपासिका विशाखा द्वारा किए गए तरीके से चीवर बनाने की प्रक्रिया शुरू करने के लिए प्रेरित किया।
पहला कठिन दान ५ और ६ नवंबर १९७३ को लंगडू के तिनतिला में आयोजित किया गया था। इस ऐतिहासिक अवसर पर दो राष्ट्रीय संसद सदस्य, श्री मानबेंद्र नारायण लार्मा और श्रीमती सुदीप्त दीवान ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके अलावा, देश के विभिन्न हिस्सों से हजारों श्रद्धालु आम लोग और संघ के सदस्य इस समारोह में सम्मिलित हुए।
यह उल्लेखनीय है कि वर्तमान समय में किसी अन्य बौद्ध देश में इस प्रकार का कठिन दान समारोह आयोजित नहीं किया जाता।
यह कहा जाता है कि पूज्य बनभंते का उत्पन्न होना केवल चकमा समाज के लोगों के लिए ही नहीं, बल्कि समस्त मानवता को इस महान पुण्य कर्म में संलग्न करने के लिए हुआ था।
ऐसा कहा जाता है कि केवल बुद्ध, अग्रसावक और महासावक ही कठिन वस्त्र दान के समस्त गुणों का पूर्ण रूप से अनुभव कर सकते हैं। अन्य साधारण मनुष्यों ने इस पुण्य का पूरा लाभ उठाने से पहले ही अरहंतत्व प्राप्त कर लिया।
मारा का बुरा प्रभाव
सन १९७३ में जब कठिन वस्त्र दान का आयोजन हुआ, तब मारा की दुष्ट शक्तियाँ बाधा उत्पन्न करने लगीं। समारोह से एक दिन पहले ही बूंदाबांदी शुरू हो गई थी और हवा भी तेज़ चल रही थी। समारोह के दिन तो और भी कठिन परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गईं—तेज़ तूफान आने लगा। लेकिन पूज्य बनभंते की अटूट प्रेरणा और श्रद्धालु लोकवासियों की गहरी भक्ति के कारण, इन सभी बाधाओं के बावजूद, चौबीस घंटे के भीतर कठिन समारोह सफलतापूर्वक संपन्न हो गया।
समारोह के बाद, तिनतिला क्षेत्र में अचानक पेचिश की बीमारी महामारी की तरह फैल गई। इस बीमारी से विशेष रूप से तीन से आठ वर्ष की आयु के कई छोटे बच्चे मृत्यु को प्राप्त हुए। इससे समूचे क्षेत्र में भय और दुःख की लहर दौड़ गई। लोगों ने पूज्य बनभंते से प्रार्थना की कि यह बीमारी अन्य स्थानों में न फैले।
पूज्य बनभंते ने अपने शिष्यों को आदेश दिया कि वे सभी प्रकार के रोग, भय, बाधाओं और उपद्रवों को दूर करने के लिए परित्राण सुत्त (सुरक्षा देने वाले प्रवचन) का पाठ करें। इसमें मंगल सुत्त, रत्न सुत्त, करणीय सुत्त, आटानतिया सुत्त आदि प्रमुख रूप से सम्मिलित थे। जैसे ही पूज्य बनभंते के शिष्यों ने प्रभावित क्षेत्रों के चारों ओर तीन बार इन सुत्तों का पाठ किया, तिनतिला से समस्त रोग और भय समाप्त हो गए। इस चमत्कार को देखकर सभी लोग आश्चर्यचकित रह गए और पूज्य बनभंते के दिव्य गुणों से अत्यंत प्रभावित हुए।
इस संदर्भ में रत्न सुत्त की एक ऐतिहासिक घटना विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यह घटना भगवान बुद्ध के समय की है, जब वैशाली नगर एक भयंकर अकाल से पीड़ित था। भोजन की कमी के कारण बड़ी संख्या में लोग मरने लगे थे, विशेषकर गरीब नागरिक। सड़ती हुई लाशों के कारण बुरी आत्माएँ शहर में उपद्रव मचाने लगीं, जिससे महामारी और अधिक भयानक रूप धारण कर गई। वैशाली के नागरिक तीन प्रकार के संकटों से घिर गए—अकाल, बुरी आत्माओं का उपद्रव और महामारी।
इन भयंकर कष्टों से त्रस्त होकर, वैशाली के नागरिकों ने बुद्ध से सहायता की प्रार्थना की। उस समय भगवान बुद्ध राजगृह में निवास कर रहे थे। उनकी करुणा से प्रेरित होकर, पूज्य आनंद सहित अनेक भिक्षुओं के साथ वे वैशाली नगर पहुँचे। जैसे ही बुद्ध ने नगर में प्रवेश किया, मूसलाधार वर्षा होने लगी। इस वर्षा ने सड़ती हुई लाशों को बहा दिया, जिससे वातावरण शुद्ध हो गया और शहर स्वच्छ हो गया।
इसके बाद, बुद्ध ने पूज्य आनंद को रत्न सुत्त प्रदान किया और निर्देश दिया कि वे वैशाली के लिच्छवि नागरिकों और अन्य नगरवासियों को यह प्रवचन सुनाते हुए पूरे नगर में भ्रमण करें। पूज्य आनंद ने बुद्ध की आज्ञा का पालन किया और अपने भिक्षापात्र से शुद्ध जल छिड़कते हुए नगर की परिक्रमा की। इस प्रवचन और शुद्ध जल के प्रभाव से बुरी आत्माएँ नगर से भाग गईं और महामारी समाप्त हो गई।
इसके पश्चात, पूज्य आनंद वैशाली के नागरिकों के साथ नगर के सार्वजनिक हॉल में लौट आए, जहाँ बुद्ध और उनके शिष्य पहले से ही उपस्थित थे। इस प्रकार, बुद्ध के करुणामय उपदेश और रत्न सुत्त के प्रभाव से वैशाली नगर पुनः समृद्ध और भयमुक्त हो गया।
इसी तरह, १९७३ में तिनतिला में भी पूज्य बनभंते की करुणा और परित्राण सुत्तों के प्रभाव से समस्त भय और रोग दूर हो गए। यह घटना दर्शाती है कि भगवान बुद्ध का धम्म न केवल आध्यात्मिक शांति प्रदान करता है, बल्कि यह इस संसार में वास्तविक दुःखों का निवारण करने की अपार शक्ति भी रखता है।
रंगमती में रहने के लिए सहमत होना
सन १९७३ में, पूज्य बनभंते के उपासक श्री लग्न कुमार चकमा उनके लिए तिनतिला में एक ध्यान कुटिया बनाने गए। वहाँ वे लंबे समय तक रहे और बनभंते के प्रति अत्यंत श्रद्धा और आकर्षण अनुभव करने लगे। वे इतने प्रभावित हुए कि हमेशा उनके निकट रहने के लिए भाग्यशाली महसूस करते थे। समय के साथ, तिनतिला के स्थानीय लोग उन्हें स्नेहपूर्वक “बनभंते के इंजीनियर” कहने लगे।
इसी बीच, श्री लग्न कुमार चकमा को यह पता चला कि बनभंते धम्म प्रचार के लिए एक बेहतर स्थान पर जाना चाहते हैं। उन्होंने इस विषय में अपने रिश्तेदार, श्री समर बिजॉय चकमा को जानकारी दी ताकि यह बात रानी श्रीमती आरती रॉय तक पहुँच सके। इसके बाद, श्री लग्न कुमार चकमा, श्री समर बिजॉय चकमा और श्री कुमुद विकास चकमा ने बनभंते को रंगमती आमंत्रित करने और वहाँ स्थापित करने की योजना बनाई। बाद में, बांडुकवंगा क्षेत्र के श्री मोनुधन चकमा और श्री सुनीति विकास चकमा भी इस प्रयास में शामिल हो गए। इन सभी ने मिलकर पूरी निष्ठा से कार्य करने का निश्चय किया।
ये सभी लोग रानी श्रीमती आरती रॉय और राजकुमार सुमित रॉय (श्री जोनी) से मिले और उनका ध्यान पूज्य बनभंते को शाही महल में आमंत्रित करने की ओर आकर्षित किया। राजपरिवार ने इस विचार को सहर्ष स्वीकार किया और बनभंते के रहने के लिए विहार बनाने हेतु भूमि दान करने का निश्चय किया। इस प्रकार, रंगमती में बनभंते को आमंत्रित करने की यह पहल स्वतः ही एक बड़ी योजना का रूप लेने लगी।
बुद्ध के इस शाही निमंत्रण का उत्तर देने के लिए रंगमती और आसपास के बौद्ध समुदाय के लोग आगे आए और पूरे मनोयोग से सहयोग देने लगे। अंततः जब पूज्य बनभंते ने रंगमती जाने की सहमति दी, तब पूज्य अग्रबंश महाथेर ने २७ और २८ नवंबर, १९७४ को एक भव्य कठिन वस्त्र-अर्पण समारोह का आयोजन किया।
इस समारोह में, चौबीस घंटे के भीतर चीवर सिलकर, रंगकर, सुखाकर भिक्षु समुदाय को प्रदान किए गए। इस अवसर पर, पूज्य बनभंते पहली बार २५ नवंबर को रंगमती आए। उस समय, वे रात में शाही विहार में नहीं रहते थे, क्योंकि वे धुतांग शिला का पालन कर रहे थे। इसलिए, उनके और उनके शिष्यों के लिए अस्थायी रूप से एक विहार, चंक्रमण (टहलने) गृह, भोजन कक्ष, ध्यान कुटिया, सिद्धांत गृह और एक रसोईघर तैयार किया गया।
इस विशेष कठिन चीवर अर्पण समारोह में हजारों श्रद्धालु एकत्र हुए और उन्होंने बनभंते के ध्यान-जनित गहन ज्ञान को सुना। इस आयोजन से यह अनुभव किया गया कि यदि बनभंते जैसे ध्यानी व्यक्ति रंगमती में स्थायी रूप से निवास करेंगे, तो यह असंख्य लोगों के लिए कल्याण और सुख का मार्ग प्रशस्त करेगा तथा बुद्ध के धर्म की प्रतिष्ठा और प्रभाव को और अधिक बढ़ाएगा।
रंगमती एक ऐसा स्थान था जो सभी क्षेत्रों और जिलों से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ था। यदि बनभंते लंगडू में रहते, तो वहाँ तक पहुँच पाना सभी के लिए संभव नहीं होता। इसलिए, कठिन समारोह के अंत में, चकमा राजमाता, राजा और अन्य राजपरिवार के सदस्यों ने पूज्य बनभंते को रंगमती में स्थायी रूप से रहने के लिए आमंत्रित किया।
इस पर बनभंते ने कहा, “चलो देखते हैं कि आपके मन में मेरे लिए कितना सम्मान है।” इसके उत्तर में, राजा देबाशीष रॉय और राजमाता आरती रॉय ने स्वेच्छा से शाही महल के समीप, एक पहाड़ी के पश्चिमी किनारे पर लगभग पंद्रह एकड़ भूमि दान कर दी।
पूज्य बनभंते ने सभी को आशीर्वाद दिया, अनुरोध स्वीकार किया और रंगमती में स्थायी रूप से निवास करने के लिए सहमत हो गए। बाद में, उन्होंने कहा, “क्या आप जानते हैं कि मैंने रंगमती को अपने निवास के लिए क्यों चुना? रंगमती चकमा और बरुआ समुदायों के बीच की सीमा पर स्थित है। हर किसी के लिए तिनतिला पहुँचना आसान नहीं था, लेकिन रंगमती सभी के लिए सुलभ है। यह स्थान राजपरिवार द्वारा स्वेच्छा से दान किया गया था, इसलिए मैंने अनुभव किया कि मेरे और मेरे शिष्यों के रहने के लिए यह सबसे उचित स्थान है।”
“एक लांच डूबने की दुर्घटना में कई उपासकों की मृत्यु”
सन १९७४ में कठिन अर्पण के अवसर पर मार की दुष्ट शक्तियों की उपस्थिति महसूस की गई। समारोह से पहले लगातार बूंदाबांदी हो रही थी और भारी तूफान भी आया। इस कारण चीवर-अर्पण समारोह की तैयारियाँ कठिन हो गईं। ऐसे प्रतिकूल मौसम को देखकर, पूज्य बनभंते ने कहा, “कभी-कभी मार राजकुमार शुद्ध कार्यों को बाधित करने के लिए विभिन्न तरह की अड़चनें पैदा करते हैं। इसलिए सभी को सावधानी से कार्य करना चाहिए।”
लेकिन दुःख की बात यह हुई कि समारोह में भाग लेने के लिए काप्ताई से रंगमती जा रही एक नाव प्राकृतिक आपदा के कारण तूफान में फंसकर डूब गई। इस दुर्घटना में कई लोगों की जान चली गई। इस घटना से कुछ लोगों को बहुत दुःख हुआ और उन्होंने कार्यक्रम की व्यवस्था करने वाले समिति के सदस्यों की आलोचना की। उन्होंने कहा, “बनभंते सबसे महान व्यक्ति हैं, वे चाहते तो इस दुर्घटना को रोक सकते थे।”
जब यह बात पूज्य बनभंते तक पहुँची, तो उन्होंने संपूर्ण सम्मान के साथ अरहंत उपगुप्त महाथेर को आमंत्रित करने का आदेश दिया। उन्होंने कहा, “मारा मुझे कोई भी नया कार्य करने की अनुमति नहीं देता। केवल पूज्य उपगुप्त भंते ही मार की बाधाओं को रोक सकते हैं। वे आठ ध्यान सिद्धियों (समापत्ति) का अभ्यास करके समुद्र के नीचे नागा लोक में निवास करते हैं। इसलिए, न केवल कठिन समारोह बल्कि किसी भी नए कार्य की सफलता के लिए उनकी पूजा आवश्यक है।”
पूज्य बनभंते ने विस्तार से बताया, “याद रखें कि उपगुप्त महाथेर को आमंत्रित करने से पहले नदी, फव्वारा, तालाब या किसी भी स्थिर जल वाले स्थान में एक मंच की तरह एक विहार तैयार किया जाना चाहिए। फिर उस अस्थायी मंच पर फूलों की मालाएँ, जल कलश, दीपक, सुगंध, भोजन की थालियाँ आदि रखनी चाहिए, जिससे उपगुप्त भंते की पूजा में कोई कमी न रह जाए।”
उन्होंने आगे कहा, “जो लोग उपगुप्त भंते को आमंत्रित करना चाहते हैं, उन्हें आमंत्रण के दिन से लेकर भंते के आगमन तक अट्ठ-शीला का पालन करना चाहिए। इसके अलावा, सुबह ११ बजे तक उन्हें भोजन, पेय और फूल अर्पित कर पूजा करनी चाहिए और संध्या को दीप और सुगंध के साथ उनका व्रत करना चाहिए।”
इसके बाद, राजबन विहार में कठिन चीवर अर्पण के समय अरहंत उपगुप्त महाथेर की पूजा करने की परंपरा आरंभ हुई। वर्तमान में, बांग्लादेश के हर क्षेत्र में कठिन समारोह के दौरान उपगुप्त महाथेर को आमंत्रित किया जाता है। जब से उनकी पूजा प्रारंभ हुई, तब से किसी भी धार्मिक समारोह में न तो कोई प्राकृतिक आपदा आई और न ही कोई दुर्घटना घटी।
बनभंते के नाम और प्रसिद्धि का प्रसार
सन १९७० में जब पूज्य बनभंते तिनतिला चले गए, तो उन्होंने अपना अधिकांश समय ध्यान साधना में लगाया। साथ ही, वे लोगों के सुख, कल्याण और समृद्धि के लिए सही धार्मिक विचारों को फैलाने के लिए भी प्रेरित हुए। तिनतिला का वातावरण न केवल सुंदर और दर्शनीय था, बल्कि बनभंते के गहन ध्यान के लिए भी उपयुक्त था। जो भी व्यक्ति पहली बार उनके दर्शन करता, वह तुरंत ही संतुष्ट और शुद्धचित्त हो जाता।
उनका तेजस्वी शरीर दिव्य आभा से युक्त था—स्वर्गीय और उज्ज्वल। उनका मन उदार, असाधारण और ध्यानमग्न था। आम लोगों के लिए उनके ज्ञान की गहराई को समझना आसान नहीं था, फिर भी, बनभंते के सान्निध्य में आकर अनेकों को लाभ मिला। कई लोगों ने उनके द्वारा बताए गए सही धम्म के अभ्यास से अपनी आजीविका का सही मार्ग पाया।
चकमा समुदाय में प्रचलित कई झूठे अनुष्ठान और परंपराएँ धीरे-धीरे समाप्त होने लगीं। जैसे—थानमना पूजा, गंग पूजा, माता लक्ष्मी पूजा, शिव पूजा, बूर-पारा पूजा आदि। लोगों ने शुद्ध बौद्ध धर्म के मार्ग पर चलना शुरू किया। पूज्य बनभंते प्रायः लोगों से कहते, “जिस देश और समाज में महान लोग जन्म लेते हैं, वह देश और समाज सुखी और समृद्ध होता है। यदि आप पाँच उपदेशों (पंचशील) का ठीक से पालन करेंगे, तो शीघ्र ही आपका भाग्य बदल जाएगा।”
बनभंते के ये वचन सत्य और अटल सिद्ध हुए। जब वे तिनतिला में रहे, तो उनकी प्रेरणा से वहाँ नशीले पदार्थों का व्यापार, विषाक्त पदार्थों का उपयोग और पशु वध जैसी क्रियाएँ बंद हो गईं। लोग पंचशील का पालन करने के लिए सचेत और प्रतिबद्ध हो गए। उनके मार्गदर्शन के कारण लोगों की आर्थिक स्थिति में भी सुधार आया।
बनभंते के शील, पुण्य, प्रज्ञा और दिव्य गुणों के प्रभाव से तिनतिला एक शुद्ध भूमि बन गया। रंगमती, खगराचरी, बंदरबन, चटगाँव और अन्य दूर-दराज़ के स्थानों से लोग बनभंते के दर्शन और उनके धार्मिक उपदेश सुनने के लिए तिनतिला आने लगे। जो भी उनके नाम और कीर्ति को सुनता, वह श्रद्धा से उनके नाम की शपथ लेने लगता, और उनकी प्रार्थनाएँ फलदायी होने लगतीं।
इस प्रकार, बनभंते के प्रति लोगों की श्रद्धा दिन-ब-दिन बढ़ती गई। उनकी ख्याति केवल बौद्ध समुदाय तक सीमित नहीं रही। हिंदू, मुसलमान, चकमा, मरमा और बरुआ सहित विभिन्न पंथों और अनुष्ठानों को मानने वाले लोग भी उनके असाधारण प्रवचनों को सुनने और दर्शन करने के लिए तिनतिला पहुँचने लगे।
नीचे दो ऐसे उदाहरणों का उल्लेख किया गया है जो इस श्रद्धा और विश्वास को और स्पष्ट करते हैं।
सन १९७३ या १९७४ में एक अद्भुत घटना घटी जब पूज्य बनभंते तिनतिला में ठहरे हुए थे। उस समय, हजारीबाग मौजा के कंडेबचरा क्षेत्र के श्री जीबेंद्र चकमा लंबे समय से पेप्टिक अल्सर से पीड़ित थे। उन्होंने रंगमती में डॉ. सुधेंदु चकमा से लगभग छह से सात महीने तक इलाज कराया, लेकिन उनकी बीमारी में कोई सुधार नहीं हुआ। पारंपरिक चिकित्सा से निराश होकर, उन्होंने सोचा कि शायद बनभंते से कोई मार्गदर्शन मिल सके।
इसी आशा के साथ, वे श्री शिखिध्वज चकमा के साथ तिनतिला गए और पूज्य भंते के समक्ष अपनी विनती प्रस्तुत की। उन्होंने बनभंते से कहा, “भंते, मैं लंबे समय से गैस्ट्रिक रोग से पीड़ित हूँ। कृपया मुझे कोई नुस्खा दें जिससे मेरी बीमारी ठीक हो सके।”
बनभंते ने शांत भाव से उत्तर दिया, “मैं कोई डॉक्टर नहीं हूँ, तो मैं तुम्हारी बीमारी का नुस्खा कैसे लिख सकता हूँ?”
लेकिन जीबेंद्र ने हार नहीं मानी। उन्हें बनभंते पर अटूट विश्वास था। वे दृढ़ थे कि केवल पूज्य बनभंते ही उनकी बीमारी का उपचार कर सकते हैं। उनके लगातार आग्रह करने पर, बनभंते ने एक औषधि का नाम लिखने का निर्देश दिया।
बनभंते ने जीबेंद्र से पूछा, “तुम किस डॉक्टर से इलाज करवा रहे थे?”
जीबेंद्र ने उत्तर दिया, “भंते, मैं डॉ. सुधेंदु चकमा से इलाज करवा रहा था।”
बनभंते ने कहा, “अच्छा, मैं तुम्हें एक औषधि का नाम बता रहा हूँ। इसे रंगमती में डॉ. भगदत्त खीसा की दुकान से खरीदना।”
श्री शिखिध्वज चकमा ने औषधि का नाम लिखने के लिए कलम उठाई, लेकिन जब उन्होंने लिखने का प्रयास किया, तो पाया कि कलम में स्याही नहीं थी। कोई भी शब्द कागज़ पर नहीं लिखा जा सका।
उन्होंने बनभंते से कहा, “भंते, कलम में स्याही नहीं है, इसलिए मैं कुछ भी नहीं लिख पा रहा हूँ।”
बनभंते ने मुस्कुराते हुए कहा, “सचमुच! तुम कुछ भी नहीं लिख पाए?”
शिखिध्वज चकमा ने उत्तर दिया, “हाँ, भंते, मैं कुछ भी नहीं लिख सका।”
तब बनभंते ने स्याही की डिब्बी पर हाथ रखा और शिखिध्वज चकमा से कहा, “अब पुनः प्रयास करो।”
लेकिन शिखिध्वज ने कहा, “भंते, मैं नहीं कर सकता।”
बनभंते ने दोबारा उसे प्रयास करने के लिए कहा। आश्चर्यजनक रूप से, इस बार वह केवल दवा का नाम लिख सका, लेकिन उसके बाद फिर से कलम से एक भी शब्द नहीं लिखा जा सका। स्याही नहीं निकल रही थी।
जब जीबेंद्र चकमा ने दवा का नाम देखा, तो उन्होंने कहा, “भंते, मैं पिछले छह-सात वर्षों से यही दवा ले रहा हूँ, लेकिन इससे कोई लाभ नहीं हुआ।”
बनभंते ने उत्तर दिया, “डॉ. भगदत्त खीसा की दुकान से यही दवा खरीदो और इसे नियमित रूप से लो। तुम जल्दी ठीक हो जाओगे।”
अंततः, जब जीबेंद्र ने बनभंते के निर्देशानुसार वही औषधि ली, तो केवल दो महीने के भीतर वे पूरी तरह स्वस्थ हो गए।
यह घटना सभी के लिए बहुत आश्चर्यजनक थी। रोग वही था, दवा भी वही थी, लेकिन जब डॉ. सुधेंदु के नुस्खे से जीबेंद्र का रोग ठीक नहीं हुआ, तो पूज्य बनभंते के निर्देश से वही दवा चमत्कारी रूप से कारगर सिद्ध हुई।
लांगडू में घटी बनभंते की अद्भुत ऋद्धि शक्ति की दूसरी घटना एक निःसंतान परिवार की संतान प्राप्ति से संबंधित थी। वहाँ जाकिर हुसैन नाम के एक व्यक्ति का निवास था, जिसकी दो पत्नियाँ होने के बावजूद उसे संतान प्राप्त नहीं हुई थी। संतान की इच्छा में उसने दूसरी शादी भी की, लेकिन फिर भी उसकी मनोकामना पूरी नहीं हुई।
एक दिन, उसने पूज्य बनभंते के बारे में सुना और उनके प्रति अत्यंत आकर्षित हुआ। उसे बनभंते का शांत, निष्पाप मुख, उनके उत्कृष्ट प्रवचन, दुखों से मुक्ति का मार्ग दिखाने वाली उनकी गहरी तर्कशक्ति और दिव्य सिद्धांतों से परिपूर्ण वचन बहुत प्रिय लगे। बनभंते के प्रति उसकी श्रद्धा गहरी होती गई, और उसने अपने हृदय में उनके प्रति गहरी भक्ति और विश्वास विकसित किया।
उसने अपने जीवन में कर्म और चार आर्य सत्यों में महान आस्था रखते हुए पूज्य बनभंते को भोजन और पेय अर्पित करना प्रारंभ किया। अपनी सेवा और श्रद्धा के फलस्वरूप, उसे पूज्य बनभंते का आशीर्वाद प्राप्त हुआ और लंबे समय के बाद वह संतान सुख प्राप्त करने में सफल हुआ।
जब यह बात मुस्लिम समाज में फैली कि जाकिर हुसैन पूज्य बनभंते को भोजन और पानी अर्पित कर रहे हैं, तो कुछ लोगों ने उनका उपहास उड़ाया और उन्हें समाज से निकालने की धमकी दी। इससे व्याकुल होकर जाकिर हुसैन ने यह बात पूज्य बनभंते को बताई।
बनभंते ने धैर्यपूर्वक उसे सांत्वना देते हुए कहा, “जो लोग अनपढ़ और अज्ञानी हैं, वही तुम्हें डांटते हैं और समाज से निकालने की बात करते हैं। तुम बस सत्य को थामे रहो, ज्ञान के प्रकाश को पकड़ो, और निश्चित रूप से तुम्हें सुख की प्राप्ति होगी।”
बनभंते के इन वचनों में गहरी सच्चाई थी। समय बीतने के साथ, जाकिर हुसैन अपने जीवन में अत्यंत प्रसनन हुए और उन्हें जीवन में वास्तविक सुख की अनुभूति हुई।
सत्य कभी छिप नहीं सकता, सत्य की सदैव विजय होती है।
बनभंते ने कहा था, “जो सत्य को स्वीकार करता है, वह अपने मिथ्या विचारों को त्याग देता है, ज्ञान प्राप्त करता है, और अज्ञानता से मुक्त होकर परम सुख—निर्वाण की ओर अग्रसर होता है।”
बनभंते के आस-पास की कुछ रहस्यमयी घटनाएं (एक घटना)
प्राचीन काल में, जब पूज्य बनभंते तिनतिला विहार में ठहरे हुए थे, तब वहाँ जाने के लिए नदी पर बांस का पुल था। समय के साथ, उस बांस के पुल के स्थान पर लकड़ी का पुल बना दिया गया, और वर्तमान में, वहाँ ईंटों से बना एक स्थायी पुल है।
पहले, छोटे बालक और बालिकाएँ पूज्य बनभंते को पेय पदार्थ दान करने के लिए विहार जाते थे। लौटते समय, वे पुल पार करके नदी में जाते और वहाँ स्नान करते थे। एक दिन, जब वे नदी में स्नान के लिए जा रहे थे, तो उन्होंने देखा कि पानी में किसी व्यक्ति के बड़े नितंब तैर रहे थे और वह तेज़ी से डूब रहा था। यह दृश्य देखकर वे सभी भयभीत हो गए और स्नान करना छोड़कर तुरंत अपने-अपने घर भाग गए। उस घटना के बाद, छोटे बालक और बालिकाओं ने कभी भी नदी के पानी में स्नान करने का साहस नहीं किया।
पूज्य बनभंते हमेशा अपने शिष्यों को उपदेश देते थे कि विहार में शुद्ध मन से आना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि विहार में प्रवेश करते समय उचित शिष्टाचार का पालन करना आवश्यक है। उन्होंने समझाया कि विहार में असभ्य वेशभूषा धारण करके नहीं आना चाहिए। जूते पहनकर, टोपी लगाकर, सिर अनावृत करके, धूम्रपान करते हुए, शोर मचाते हुए या विपरीत लिंग के किसी व्यक्ति को गले लगाते हुए विहार में प्रवेश नहीं करना चाहिए। यदि संभव हो, तो विहार की सफाई भी करनी चाहिए।
बनभंते ने यह भी कहा कि इन नियमों का पालन करने से न केवल साधकों को पुण्य लाभ और आशीर्वाद मिलता है, बल्कि विहार की रक्षा करने वाले देवता भी प्रसनन होते हैं। लेकिन यदि इन नियमों का पालन नहीं किया जाता, तो देवता दुखी और असंतुष्ट हो जाते हैं।
नदी में घटी उस रहस्यमय घटना के बारे में कहा गया कि वह विहार के शुद्ध वातावरण को शांति और मर्यादा में बनाए रखने के लिए किसी देवता द्वारा किया गया संकेत था, ताकि छोटे बालक-बालिकाएँ वहाँ अनावश्यक रूप से समय न बिताएँ और अनुशासन में रहें।
दूसरी घटना
पूज्य बनभंते ने अपने शिष्यों को न केवल विहार में शांति और मौन बनाए रखने की सीख दी, बल्कि विहार के पास स्थित झील में मछली पकड़ने से भी मना किया। उन्होंने कहा, “बौद्ध धर्म पुनर्जन्म में विश्वास करता है। सभी प्राणियों को इकतीस लोक के भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेना पड़ता है। प्रत्येक जीव में मन और पदार्थ दोनों होते हैं, और वे अपने कर्मों के अनुसार पुण्य या पाप करते हैं। जब मृत्यु होती है, तो कर्म के अनुसार मन और पदार्थ नए रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। मनुष्य अपने कर्मों के आधार पर राजा, धनी, निर्धन, देवता बन सकते हैं, या फिर वे नरक में जा सकते हैं और गाय, बकरी, बत्तख, मुर्गी, कछुआ आदि निम्न श्रेणी के जीवों के रूप में जन्म ले सकते हैं। तो फिर, इन सभी प्राणियों के बीच इतना भेदभाव, ईर्ष्या, हत्या या संघर्ष क्यों?”
उन्होंने आगे समझाया, “हर व्यक्ति को न केवल अपने जीवन से प्रेम करना चाहिए, बल्कि अन्य प्राणियों के प्रति भी दयालु और मैत्रीपूर्ण होना चाहिए। यदि आप किसी जीव की हत्या करेंगे, तो उसका परिणाम अत्यंत दुखदायी होगा। आप नरक लोक में गिर सकते हैं और अनेक जन्मों तक दुख भोगना पड़ सकता है।”
उस समय, तिनतिला वन विहार के पास स्थित झील में बड़ी संख्या में मछलियाँ और विशाल कछुए तैरते हुए देखे जाते थे। पूज्य बनभंते ने स्पष्ट रूप से आदेश दिया था कि कोई भी व्यक्ति उन्हें न पकड़े। लेकिन कुछ लालची लोगों ने चोरी-छिपे झील में अपने जाल डाल दिए।
परंतु आश्चर्यजनक रूप से, उनके जाल में एक भी मछली या कछुआ नहीं फँसा! यह कोई साधारण घटना नहीं थी। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह पूज्य बनभंते की महान प्रेम-कृपा और उनके द्वारा अभ्यास की गई गहरी मैत्री भावना का प्रभाव था, जिसने उन निर्दोष जीवों की रक्षा की।
तीसरी घटना
श्री सुबीलाल चकमा, जो लंगाडू हाई स्कूल के एक शिक्षक थे, यह जानने के लिए उत्सुक थे कि पूज्य बनभंते रात को सोते हैं या पूरी रात जागते रहते हैं। इस जिज्ञासा को शांत करने के लिए उन्होंने एक रात अपने कुछ छात्रों के साथ बनभंते की कुटिया तक जाने का निर्णय लिया।
वे बांस का पुल पार करके विहार में प्रवेश करने ही वाले थे कि अचानक मौसम बदल गया—तेज हवाएँ चलने लगीं, आकाश में गरज के साथ बिजली चमकने लगी और ऐसा लगने लगा कि भारी बारिश होने वाली है। यह सब देखकर श्री सुबीलाल और उनके साथ आए लोग डर गए और उन्होंने घर लौटने का फैसला किया।
जैसे ही वे बांस का पुल पार करके दूसरी ओर पहुँचे, उन्हें देखकर आश्चर्य हुआ कि आसमान बिल्कुल साफ था, न कोई आंधी थी, न ही कोई बारिश! वे हतप्रभ रह गए। इस अजीब अनुभव से उनकी जिज्ञासा और भी बढ़ गई, और उन्होंने फिर से विहार जाने का निश्चय किया। लेकिन जैसे ही वे पुल पार करने लगे, फिर से वही डरावना मौसम बन गया—बिजली कड़की, तेज हवाएँ चलीं, और गहरे बादल छा गए।
यह सब देखकर उनमें बनभंते की कुटिया तक जाने का साहस नहीं बचा। वे वापस लौट आए और अगले दो दिनों तक विहार जाने की हिम्मत नहीं कर सके।
तीसरे दिन, सुबह वे पूज्य बनभंते के पास गए। बनभंते पहले से ही सब कुछ जानते थे। उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा—
“रात में कई लोग यह देखने के लिए आते हैं कि बनभंते सोते हैं या नहीं। बनभंते सो सकते हैं, या उन्हें सोने की आवश्यकता नहीं हो सकती। वे भोजन कर सकते हैं, या उन्हें कुछ भी खाने की जरूरत नहीं हो सकती। यदि आप बनभंते को भोजन नहीं देते हैं, तो देवता स्वयं भोजन प्रदान करते हैं।”
फिर उन्होंने गंभीर स्वर में कहा—
“इस संसार में जो लोग अज्ञानी और मूर्ख हैं, जो सत्य को असत्य और असत्य को सत्य मानते हैं, वे अच्छे और बुरे के भेद को नहीं समझते। उन्हें जीवन और मृत्यु का कोई ज्ञान नहीं होता। वे बस खाते और सोते रहते हैं, लेकिन जो ज्ञानी हैं, वे इस संसार के सत्य को पहचानते हैं।”
बनभंते की इन गहरी और रहस्यमयी बातों को सुनकर श्री सुबीलाल के हृदय में बनभंते के प्रति और भी गहरी श्रद्धा और अटूट विश्वास जाग उठा। उन्होंने अनुभव किया कि पूज्य बनभंते केवल एक साधारण भिक्षु नहीं, बल्कि असाधारण शक्तियों से युक्त एक महापुरुष थे।
गंगाधन चकमा और अन्य साधारण लोगों से यह सुनने में आया कि यदि कोई व्यक्ति बुरे उद्देश्य से विहार में प्रवेश करता, तो उसे विहार के सामने एक विशाल बाघ दिखाई देता, जो अपनी भुजाओं पर बैठा होता। यह दृश्य इतना भयावह होता कि वह व्यक्ति डरकर पीछे हट जाता और विहार के अंदर जाने की हिम्मत नहीं करता।
इसके अलावा, कुछ लोगों ने यह भी अनुभव किया कि वे पूज्य बनभंते को देख ही नहीं पाते थे, भले ही वे अपनी कुटिया के एक ओर शांत भाव से कुर्सी पर बैठे होते। ऐसा लगता था मानो कोई अदृश्य शक्ति उन्हें भंते को देखने से रोक रही हो।
एक शाम श्री प्रतुल विकास चकमा पूज्य बनभंते को पेय दान करने के लिए उनकी कुटिया पर गए। उन्होंने श्रद्धा-पूर्वक भंते को पेय अर्पित किया और फिर प्रणाम किया।
जैसे ही उन्होंने अपना सिर ऊपर उठाया, उन्होंने एक अद्भुत दृश्य देखा—
पूज्य बनभंते के सिर के पीछे तेजस्वी प्रकाश की किरणें प्रकाशित हो रही थीं!
वह दृश्य ठीक वैसा ही था जैसा भगवान बुद्ध के चित्रों में अक्सर देखा जाता है, जहाँ उनके सिर के पीछे एक दिव्य प्रकाशमंडल दिखाई देता है।
इन अद्भुत घटनाओं ने लोगों के मन को गहराई से प्रभावित किया।
जैसे-जैसे ये घटनाएँ होती गईं, वैसे-वैसे लोगों का पूज्य बनभंते के प्रति श्रद्धा और विश्वास बढ़ता गया।
अब लोग पूरी निष्ठा से यह मानने लगे कि बनभंते कोई साधारण भिक्षु नहीं, बल्कि असाधारण शक्तियों से युक्त एक महान आत्मा हैं, जो इस संसार में धम्म का प्रकाश फैलाने के लिए आए हैं।
विहारवासी उपसम्पदा (Monastic Ordination)
धनपता और मैने में निवास करते समय, अनेक श्रद्धालु पूज्य बनभंते के पास आते थे। बनभंते उन्हें अनिच्चा (अस्थायित्व), दुःख और अनत्ता (मैं,मेरा का भाव) के बारे में समझाते और सच्चे धम्म की भावना जागृत करने का हर संभव प्रयास करते। उन्होंने तिनतिला में निवास के समय से ही लोगों को परोपकार और शांतिपूर्ण जीवन की शिक्षा देना आरंभ किया। उनकी शिक्षाओं से प्रेरित होकर, कई लोग अपने दोषों और कमजोरियों को पहचानने लगे, अपने दुःखों के प्रति जागरूक हुए और सौम्य, विनम्र, अनुशासित तथा शिष्ट बन गए। उन्होंने भ्रमों से मुक्त होकर नैतिक और मानसिक संतोष प्राप्त किया। धीरे-धीरे, बनभंते का नाम दूर-दूर तक फैलने लगा और सभी स्थानों पर उनका उल्लेख होने लगा।
बनभंते अक्सर कहा करते थे, “यह जीवन एक रंगमंच नाटक की तरह है। रातभर कोई राजा, मंत्री या अधिकारी की भूमिका निभाता है, लेकिन सुबह होते ही वह फिर एक सामान्य व्यक्ति बन जाता है। इसी तरह, संसार में हम कभी राजा, कभी गरीब, कभी देवता, तो कभी ब्रह्मा के रूप में जन्म लेते हैं। लेकिन हम चार अपायों (दुर्गतियों) में भी गिर सकते हैं। आखिर, आप कितने कष्ट सहना चाहते हैं? क्या यह समय नहीं है कि सभी प्रकार के दुःखों से मुक्त होने का प्रयास किया जाए?”
जब श्रद्धालुओं ने बनभंते से आर्य सत्यों की शिक्षा सुनी, तो कई लोगों ने पब्बज्जा (गृहस्थ जीवन त्याग कर भिक्षु बनने) की इच्छा प्रकट की। बनभंते ने इच्छुक लोगों को पब्बज्जा प्रदान करना आरंभ किया। जिन प्रमुख शिष्यों ने उनसे पब्बज्जा ग्रहण की, उनमें आर्यपाल श्रमण, बच्चापाल श्रमण, संघपाल श्रमण, देवपाल श्रमण, नंदपाल श्रमण (जो वर्तमान में दिघिनाला बन विहार के प्रमुख महाथेर हैं), उत्तरपाल श्रमण, ज्ञानज्योति श्रमण (जिन्हें अब खगराचारी में कमलचारी परबत्त्य बौद्ध मिशन के सुमनालंकार महाथेर के रूप में जाना जाता है), जिनानंद श्रमण और अन्य कई सम्मिलित थे। इनमें सबसे पहले पब्बज्जा प्राप्त करने वाले आर्यपाल श्रमण थे, जिनका परिचय पूज्य इंदाचार भिक्खु ने बनभंते से कराया था।
हालाँकि, विहार में प्रवेश करने के बाद भी कुछ भिक्षु सांसारिक इच्छाओं और लालसाओं से ग्रस्त होकर पुनः गृहस्थ जीवन में लौट गए। इस विषय में पूज्य नंदपाल महाथेर ने ‘भिक्षु का भावी जीवन’ नामक लेख में लिखा, “जब मैंने लंगडू के तिनतिला विहार में तपस्वी भिक्षु जीवन अपनाया, तब बनभंते के केवल पाँच शिष्य थे— पूज्य आर्यपाल श्रमण, पूज्य बच्चापाल श्रमण, पूज्य संघपाल श्रमण, पूज्य नंदपाल श्रमण और पूज्य जिनानंद श्रमण। बनभंते हमें हर सुबह और शाम धार्मिक सिद्धांतों का उपदेश देते थे।”
बनभंते अपने शिष्यों के साथ मिलकर धम्म को आगे फैलाने के लिए तत्पर थे। उन्होंने सिखाया कि धम्म के प्रचार-प्रसार के लिए केवल भिक्षु होना पर्याप्त नहीं, बल्कि अनुयायियों का मन भी धम्म के प्रति एकाग्र होना आवश्यक है। जैसे भिक्षुओं के बिना बुद्ध की शिक्षाओं का अनुभव नहीं किया जा सकता, वैसे ही अनुयायियों के ध्यान और समर्पण के बिना धम्म का विस्तार संभव नहीं। इसलिए, धम्म प्रसार विभाग की आवश्यकता थी, जो विभिन्न क्षेत्रों में भिक्षुओं को नियुक्त कर सके, उन्हें शिक्षण और प्रशिक्षण प्रदान करे और धम्म को व्यवस्थित रूप से जन-जन तक पहुँचाने के लिए पाठ्यक्रमों का आयोजन करे।
बुद्ध के जीवन में भी यह स्पष्ट दिखाई देता है। एक बार जब बुद्ध ५०० भिक्षुओं के साथ जंगल में निवास कर रहे थे, तो शाम होते ही वे अपने दाहिने करवट पर लेटकर विश्राम करने लगे, जबकि सभी भिक्षु चलने या बैठने की मुद्रा में ध्यान कर रहे थे। पूरे जंगल में पूर्ण शांति थी। उसी समय, कुछ भटकते हुए तपस्वी वहाँ आए और इस दृश्य को देखकर बहुत प्रभावित हुए। वे बुद्ध, धम्म और संघ के गुणों से इतने प्रेरित हुए कि उन्होंने भी शिष्य बनने का निश्चय कर लिया। बाद में, वे धम्म के प्रसार में सहायक बने।
इस प्रसंग से स्पष्ट होता है कि धम्म के प्रचार में सही आचरण और अभ्यास अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। धम्म का प्रसार केवल इस जीवन में ही नहीं, अपितु आने वाले जीवनों में भी कल्याणकारी होता है और अंतिम लक्ष्य— निर्वाण की ओर ले जाता है। धम्म के प्रचार का उद्देश्य यही है कि लोग बुद्ध की शिक्षाओं को समझें, उनका पालन करें और जीवन में सही मार्ग अपनाएँ। पूज्य बनभंते ने इसी उद्देश्य से धम्म का प्रचार किया और लोगों को उचित आचरण, विचार और सही कर्मों की शिक्षा देकर सच्चे धम्म के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया।
पूज्य बनभंते ने अपने शिष्यों से कहा, “तुम भिक्षु क्यों बने हो? पब्बज्जा प्राप्त करने का क्या अर्थ है?” फिर वे स्वयं ही इसका उत्तर देते हुए बोले, “सुनो, पब्बज्जा प्राप्त करने का उद्देश्य सभी प्रकार के सांसारिक कष्टों से मुक्त होना है। इसका लक्ष्य है— दुःख और तनाव को समझना, उनसे परे जाना और समस्त सांसारिक बंधनों से अलग रहना।”
बनभंते ने समझाया कि जो भूतकाल के दुःखों और संघर्षों को अपने भीतर सँजोए रखता है, वह उनसे मुक्त नहीं हो सकता। इसी तरह, जो वर्तमान के कष्टों में उलझा रहता है, वह भी शांति नहीं पा सकता। इसलिए, भूतकाल के दुःखों को पूरी तरह भूल जाना चाहिए, वर्तमान के दुःखों से मुक्त होना चाहिए और विपश्यना के पुण्य कर्मों का अभ्यास करके भविष्य के संभावित दुःखों को समाप्त करना चाहिए।
उन्होंने कहा, “विपश्यना वह मार्ग है, जो सभी प्रकार की आसक्ति से मुक्त होने की ओर ले जाता है।” बनभंते ने अपने शिष्यों को बताया कि कैसे उन्होंने घने जंगलों में, बिना किसी उचित मार्गदर्शन के, अकेले विपश्यना का अभ्यास किया। उन्होंने कठिनाईयों का सामना किया, लेकिन अडिग रहे। इसी कारण, वे चाहते थे कि उनके शिष्य उनकी देखरेख में, सही विधि से विपश्यना ध्यान का अभ्यास करें, ताकि वे भी आत्मकल्याण और मुक्तिमार्ग को पा सकें।
बनभंते के कुछ शिष्य कर्म के फलस्वरूप बर्मा चले गए
निर्वाण तक पहुँचने के लिए तीन महत्वपूर्ण तत्व बताए गए हैं: (१) एक सच्चे गुरु (आध्यात्मिक शिक्षक) की सलाह, (२) कठिन परिश्रम, और (३) पारमि (पूर्व जन्मों में अर्जित गुण और संचित पुण्य)। यदि इन तीनों में से कोई भी तत्व अनुपस्थित हो, तो मग्ग (निर्वाण का मार्ग) की प्राप्ति संभव नहीं होती।
हालाँकि, बनभंते जैसे एक ईमानदार और सच्चे गुरु शिष्यों का मार्गदर्शन करने के लिए वहाँ उपस्थित थे, लेकिन उनके कुछ शिष्यों में पर्याप्त ज्ञान का अभाव था। यह कमी उन्हें धम्म ज्ञान प्राप्त करने से रोक रही थी। इसी बीच, राज गुरु अग्रबंश महाथेर को बनभंते के ये प्रगतिशील कदम पसंद नहीं आए। उन्होंने अपने कुछ शिष्यों से कहा, “तुम अभी युवा हो। यह समय ति-पिटक सीखने का है। यदि तुम ति-पिटक का अध्ययन नहीं करते, तो ध्यान कैसे कर सकते हो? क्या केवल विहार में ध्यान करके मग्गा प्राप्त किया जा सकता है?”
इसके अलावा, उन्होंने यह भी कहा, “बर्मा में सबसे पहले भिक्षुओं को ति-पिटक सिखाया जाता है। वहाँ उन्हें उत्तम भोजन और ध्यान करने के लिए उचित स्थान भी उपलब्ध होता है। यदि तुम बर्मा में ति-पिटक सीखना चाहते हो, तो मैं तुम्हारे लिए वीज़ा और अन्य कागज़ी कार्यवाही की व्यवस्था कर सकता हूँ।” इस प्रकार, अग्रबंश भंते ने बनभंते के कुछ शिष्यों को उनकी शिक्षाओं से अलग करने का प्रयास किया। वे शिष्य उनकी बातों में आ गए और बर्मा चले गए।
उसी समय, एक आम गृहस्थ श्री प्रतुल बिकाश चकमा अपनी सबसे बड़ी बेटी की मृत्यु से अत्यंत दुखी थे। १४ अप्रैल, १९७६ को, जो बंगाली नव वर्ष और बैशाखी पूर्णिमा का दिन था, उनकी बेटी की मृत्यु सांप के काटने से हो गई थी। यह दुर्घटना उनके लिए असहनीय थी। वे अपने शोक को दूर करने के लिए बनभंते के पास आए और विनम्रतापूर्वक बोले,
“भंते, मेरी सबसे बड़ी बेटी सांप के काटने से मर गई। मैं उसकी अकाल मृत्यु को स्वीकार नहीं कर सकता। मेरे मन में गहरा दुख, विलाप, पीड़ा, शोक और निराशा है। इसलिए, मैं आपकी सलाह सुनने के लिए यहाँ आया हूँ।”
बनभंते ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा, “इस संसार में भिक्षु, ब्राह्मण, देवता, मार और ब्रह्मा सहित सभी प्राणी जन्म और मृत्यु के अधीन हैं। केवल निर्वाण प्राप्त करके ही समस्त दुःखों का अंत संभव है। इसलिए, तुम्हें भी अपने भीतर निर्वाण की भावना जागृत करने का प्रयास करना चाहिए।”
फिर बनभंते ने अपनी स्थिति की तुलना उनके दुःख से करते हुए कहा, “तुम्हारी बेटी मर गई, और मेरे अपने शिष्य भी मुझे छोड़कर चले गए। मैं उनके सहयोग से भविष्य में धम्म के प्रचार का स्वप्न देख रहा था, परंतु उन्होंने मेरी शिक्षाओं को त्याग दिया और बर्मा चले गए।”
बनभंते के इन वचनों को सुनकर, श्री प्रतुल धीरे-धीरे अपने दुःख को भूलने लगे और उनके मन में धम्म के प्रति नई श्रद्धा उत्पन्न हुई। वे समझ गए कि जीवन की नश्वरता को स्वीकार करना ही वास्तविक शांति का मार्ग है।
इस घटना से यह भी स्पष्ट होता है कि जो शिष्य बर्मा गए, वह भी उनके पूर्व जन्मों के कर्मों का ही परिणाम था। उनके द्वारा उठाया गया हर कदम, उनका धम्म से जुड़ना या उससे दूर होना, सब कुछ उनके संचित कर्मों के प्रभाव से ही संभव हुआ।