नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

“यदि आप अपनी भीतर की जागरूकता और बुद्धि को निखारने की अनदेखी करते हैं, और केवल अधूरे मन से प्रयास करते हैं, तो जीवन की राह में आने वाली रुकावटें धीरे-धीरे इतनी बढ़ जाएँगी कि वे आगे का रास्ता ही छिपा देंगी। अंततः यह मार्ग अंधकार में डूब जाएगा, और उसका अंत सदा के लिए ओझल हो जाएगा।”

अध्याय पंधरा

समर्पित भाव की असफलता

अजान खम्फान फु गाओ उस विहारवासी समुदाय के मार्गदर्शक और प्रेरणा स्रोत थे। मे चियों को उनके ध्यान और साधना के अभ्यास में दिशा देना उनकी जिम्मेदारी थी। इसका अर्थ था – मे चियों से नियमित रूप से मिलना, उनके अनुभव और समस्याओं को सुनना, और उन्हें व्यक्तिगत सलाह देना। उनकी वरिष्ठता और उम्र के कारण ऐसा माना जाता था कि उनके और साधिकाओं के बीच कोई सांसारिक लगाव नहीं पनपेगा। लेकिन अफसोस – शरीर की सीमाएं और मन की कमजोरियाँ अक्सर मार्ग में बाधा बन जाती हैं। जब मे ची क्यु और कुछ अन्य मे ची नोक क्रबा गुफा चली गईं, तब कुछ मे ची पीछे रह गईं। उन्हीं दिनों, अजान खम्फान, जो एक आध्यात्मिक भंते की भूमिका में थे, अपने कर्तव्य की अनदेखी करते हुए पीछे रह गई एक मे ची के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ गए।

हालाँकि, उन्होंने समाधि के माध्यम से अन्य प्राणियों की स्थिति को देखने और समझने की क्षमता पाई थी, लेकिन उन्होंने अपनी ही मन की गहराई में उतरने और स्वयं को जानने के लिए आवश्यक विवेक और अंतर्दृष्टि को विकसित नहीं किया था। उन्होंने बुद्ध की उस मूलभूत शिक्षा की उपेक्षा की, जिसमें बताया गया है कि शरीर और मन केवल क्षणिक, अस्थिर और आत्मविहीन घटक हैं – जो न तो स्थायी हैं, न संतोषजनक, और न ही किसी व्यक्तिगत “मैं” का प्रमाण हैं। ध्यान की गहराई में, शरीर और मन एकजुट होकर शांत, सरल और स्थिर चेतना में लीन हो जाते हैं। यह अनुभव अत्यंत मधुर और गहन होता है, इतना कि उसका वर्णन करना कठिन है, और यह इतना सुखदायी होता है कि व्यक्ति उसमें आसक्त हो सकता है। लेकिन चाहे वह अनुभव कितना भी विलक्षण क्यों न हो, यदि उसमें लालसा(लोभ), क्रोध या मोह की मिलावट है, तो वह अभी भी सांसारिक बंधनों से मुक्त नहीं होता।

इसलिए, इस प्रकार के ध्यान अनुभव यदि सही विवेक और शुद्ध अंतर्दृष्टि के बिना हों, तो वे केवल एक भ्रामक सुख बनकर रह जाते हैं – आध्यात्मिक नहीं, बल्कि सांसारिक ज्ञान का ही एक रूप, जो अशुद्ध प्रभावों से दूषित होता है। समाधि से मन बहुत शांत, गहरा और ताक़तवर हो जाता है। अगर इस ध्यान को सही तरीके से विचार करने की साधना से जोड़ा जाए, तो सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान पाया जा सकता है। जब कोई व्यक्ति अपने शरीर, भावनाओं और मन को गहराई से समझने की कोशिश करता है, तो वह लालच, गुस्से और भ्रम(मोह) की जड़ों को मिटा सकता है। ऐसा करने से उसे ये एहसास होता है कि दुनिया की हर चीज़ नाशवान है, खाली है, और इसमें कोई स्थायी सार नहीं है। यह समझ लालच को खत्म कर सकती है और जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा दिला सकती है।

एकाग्रता (समाधि) और समझ (ज्ञान) को साथ-साथ काम करना चाहिए – जैसे गाड़ी के दो पहिये। समाधि की शांति और स्थिरता से व्यक्ति उन गहरी कमजोरियों तक पहुँच सकता है, जो मन में छिपी होती हैं, और उन्हें मिटा सकता है। जब ये दोष दूर होते हैं, तो ज्ञान और भी गहरा हो जाता है। इस तरह, एकाग्रता और ज्ञान मिलकर साधक को बुद्ध के बताए हुए ज्ञान के रास्ते पर आगे बढ़ाते हैं।‌ लेकिन अजान खम्फान, जिन्होंने समाधि से मिली शांति का अनुभव किया, वे वहाँ से आगे नहीं बढ़ सके। उन्होंने ध्यान का उपयोग अपने अंदर की सच्चाई को समझने और शरीर-मन के प्रति अपने लगाव को देखने के लिए नहीं किया। इसके बजाय, उनका ध्यान बाहरी सूक्ष्म ऊर्जाओं की दुनिया की ओर चला गया। चूंकि उन्होंने अपनी बुरी प्रवृत्तियों के खिलाफ सच्चा ज्ञान नहीं अपनाया, इसलिए वे तृष्णा, द्वेष में फँस गए और भटके हुए जीवन के मोह और बंधनों से मुक्त नहीं हो पाए।

जब मे ची क्यु नोक क्रबा गुफा से लौटीं, तब तक अजान खम्फान का एक युवा मे ची के प्रति झुकाव सबके लिए साफ हो चुका था। लेकिन उनकी ऊँची प्रतिष्ठा और वरिष्ठता के कारण कोई भिक्षु या मे ची उन्हें खुलकर दोष नहीं दे पाया। सब यही उम्मीद कर रहे थे कि यह मामला खुद ही शांत हो जाएगा और भूल दिया जाएगा। लेकिन तभी अजान खम्फान ने अचानक घोषणा कर दी कि वे और वह मे ची वस्त्र त्याग रहे हैं और अब एक विवाहित जोड़े की तरह सामान्य जीवन जीने जा रहे हैं। यह सुनकर पूरे समुदाय में दुख और हैरानी फैल गई। मे ची क्यु को इस बात से गहरा आघात पहुँचा – न केवल उनके इस फैसले से, बल्कि इसलिए भी कि उन्होंने उस विश्वास को तोड़ा। जो मे ची क्यु और अन्य मे चियों ने उनके ऊपर किया था। वह मे ची लगभग आठ वर्षों तक उनके मार्गदर्शन में अभ्यास कर रही थी।

इस घटना से विहार में न सिर्फ दुखद माहौल बन गया, बल्कि एक तरह का नेतृत्व का खालीपन भी पैदा हो गया। मे चियों को यह समझ आ गया कि अब उन्हें अपने लिए कोई और सुरक्षित और उपयुक्त जगह तलाशनी होगी जहाँ वे एकाग्र होकर साधना कर सकें।

मे ची डांग और मे ची यिंग ने बाकी मे चियों को बुलाकर सभा किया। सभी ने मिलकर तय किया कि उन्हें अपने गाँव लौट जाना चाहिए और वहाँ महिलाओं के लिए एक अलग विहारवासी केंद्र स्थापित करना चाहिए। इस लक्ष्य को लेकर मे ची क्यु और छह अन्य मे ची १९४५ की वसंत ऋतु में बान हुआई साई नाम के गाँव चली गईं।

गाँव के कुछ बुजुर्गों को जब मे चियों की कठिनाइयों का पता चला, तो वे आगे आए और उनकी मदद की। उन्होंने मे चियों को गाँव के दक्षिण में लगभग एक मील दूर बीस एकड़ ज़मीन दान में दी, जहाँ चारों ओर बांस और घने पेड़ थे – एक शांत और एकांत वातावरण। मे चियों ने इस उदारता को विनम्रता से स्वीकार किया और तुरंत वहाँ एक वन-विहार बनाना शुरू कर दिया।

बान हुआई साई में, गाँव के पुरुषों और महिलाओं की मदद से मे चियों के लिए झाड़ियों और पेड़ों को साफ करके अस्थायी बांस की झोपड़ियाँ बनाई गईं। बांस को लंबाई में काटकर, समतल करके और एक फ्रेम में जोड़कर ननों के लिए लगभग छह फुट लंबे और तीन-चार फुट चौड़े ऊँचे शयन मंच बनाए गए। छतों को लंबी घास के गट्ठरों से छाया गया, जो वहाँ बहुतायत में मिलती थी। प्रत्येक मे ची के लिए एक-एक अलग झोपड़ी बनी, और ये झोपड़ियाँ एक-दूसरे से उतनी दूरी पर रखी गईं जितनी उस स्थान पर संभव था।

गाँव के लोगों ने मे चियों की मदद की, ताकि वे अपनी झोपड़ियों के पास ही ध्यान के लिए रास्ते बना सकें। एक छोटा लेकिन मज़बूत सभागार भी बनाया गया, जहाँ वे एकत्र हो सकती थीं। पास में ही एक रसोई भी बनाई गई, जिसमें बांस और घास का उपयोग हुआ। मिट्टी के बर्तनों और लकड़ी के चूल्हों से खाना पकाया जाता था। जीवन की ज़रूरतें बहुत सीमित थीं – मे ची बांस से ही कप और साधारण बर्तन बनाती थीं।

क्योंकि वहाँ कोई कुआँ नहीं था, मे चियों को रोज़ पास की धार से पानी लाकर विहार तक लाना पड़ता था। जूते जैसी चीज़ें उपलब्ध नहीं थीं, इसलिए वे सूखे सुपारी के पत्तों से साधारण चप्पल बनाती थीं। माचे, फावड़े, कुदाल जैसे औज़ार भी मुश्किल से मिलते थे, इसलिए ज़्यादातर औज़ार उन्हें गाँव से उधार लेने पड़ते थे। हालाँकि मे ची क्यु और बाकी मे ची बहुत साधारण और कठिन जीवन जी रही थीं, लेकिन वे धम्म के प्रति समर्पित थीं और साधना से जुड़ी इन कठिनाइयों को सहजता से स्वीकार करती थीं।

बान हुआई साई की यह विहार छोटा था और गाँव के शोर-शराबे से दूर था। वहाँ का जीवन सादा और अनुशासित था। वहाँ कोई सजावट नहीं थी, न ही आराम के साधन। मे ची दिन भर ध्यान में लगी रहती थीं। हर शाम वे मुख्य सभागार में इकट्ठा होकर कठोर लकड़ी के फर्श पर सम्मानपूर्वक बैठतीं और बुद्ध, धम्म और संघ की स्तुति करते हुए पवित्र सूत्रों का पाठ करती थीं।

मे ची क्यु अक्सर कहती थीं कि एक मे ची के रूप में जीवन की शारीरिक कठिनाइयाँ सहना आसान है, लेकिन अगर ध्यान में उठने वाले आध्यात्मिक संशयों का मार्गदर्शन करने वाला कोई सच्चा भंते न हो, तो यह बहुत कठिन हो जाता है।

जब उन्होंने देखा कि अजान खम्फान कामुक वासना के सामने झुक गए, तो उन्हें गहरा आघात पहुँचा। यह पीड़ा उनके दिल पर बोझ बनकर छा गई। वे बार-बार सोचती थीं कि ध्यान उन्हें ऐसी साधारण, बुनियादी इच्छाओं से क्यों नहीं बचा सका। यह सवाल उन्हें भीतर तक झकझोर रहा।

उन्होंने अपने आपसे पूछा – क्या मेरा ध्यान सही दिशा में जा रहा है? क्या मैंने ध्यान में कोई ज़रूरी बात नज़रअंदाज़ कर दी है? ये सवाल उन्हें भीतर से सताते रहे।, लेकिन उन्हें कोई स्पष्ट उत्तर नहीं मिला। आखिरकार उन्होंने यह तय किया कि उन्हें अब एक सच्चे और योग्य शिक्षक की तलाश करनी चाहिए।

मे ची डांग और मे ची यिंग, जो विहार की दिन-प्रतिदिन की ज़िम्मेदारी संभालती थीं, उन्होंने इस निर्णय में मे ची क्यु को पूरा समर्थन और आशीर्वाद दिया। इस प्रकार, मे ची क्यु ने उन मे ची के समूह से अलग होने का साहसिक निर्णय लिया जिनके साथ वे आठ वर्षों से रह रही थीं।

एक जूनियर मे ची के साथ बारिश के मौसम में यात्रा करते हुए, वे बान हुआई साई से उत्तर दिशा में निकल पड़ीं। वे फू फान की तलहटी तक पहुँचीं और फिर पहाड़ों और घाटियों को पार करते हुए, पैदल ही कठिन रास्तों से होती हुईं, अंततः फू फान रेंज के पूर्वी छोर पर स्थित अजान कोंगमा चिरापुनो के वन विहार तक पहुँच गईं।


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