“एक झलक में जब हम मोह (भ्रम) को साफ़-साफ़ देख लेते हैं, हम अपनी आसक्तियों से ऊब जाते है तो इस दुखों से भरे जीवन से हमारी पकड़ ढीली पड़ने लगती है। उस क्षण जब भीतर शांति का अहसास होता है, तो हमारे हृदय में जल रही पीड़ा की आग शांत हो जाती है — और उसी के साथ, दुखों से मुक्ति अपने आप उत्पन्न होने लगती है।”
अक्टूबर १९५२ के मध्य तक फयोम वृक्ष पूरी तरह खिल चुका था और बहुत सुंदर लग रहा था। एक दोपहर, जब मे ची क्यु उस पेड़ के नीचे बैठीं, तो उनका मन आनंद और शांति से भर गया। उसी समय में ची क्यु ने महसूस हुआ कि अब अजान महाबुवा को अपनी सबसे ऊँची साधना के बारे में बताने का सही समय आ गया है। आखिर वही तो थे जिन्होंने उसे इस गहरी और शांत अवस्था तक पहुँचने की प्रेरणा दी थी। अब मे ची क्यु चाहती थीं कि अपने इस अनुभव को उनके साथ बाँटकर उनके प्रति अपना आभार व्यक्त करें।
उपोसथ पालन करने के दिन, मे चियाँ उनसे मिलने जाया करती थीं। मे ची क्यु भंते से मिलना चाहती थी इसीलिए दोपहर के समय, कुछ अन्य मे चियों के साथ विहार से निकलीं और गाँव के खेतों से होते हुए चलते-चलते उस पहाड़ी की ओर पहुँचीं, जहाँ अजान महाबुवा की गुफा थी। गुफा के पास पहुँचकर मे ची क्यु ने उन्हें बैठे हुए देखा। उसने झुककर प्रणाम किया और आदरपूर्वक अभिवादन किया। फिर हाथ जोड़कर सिर झुकाया और बोलने की अनुमति माँगी।
इसके बाद उसने पिछले एक साल में हुई अपनी ध्यान की प्रगति के बारे में विस्तार से बताया—कैसे उसने ध्यान में एक-एक कदम आगे बढ़ाया, और अंत में उस गहरी अवस्था का वर्णन किया जहाँ उसका मन पूरी तरह शांत और उज्ज्वल हो गया था, ऐसा लगा मानो पूरा ब्रह्मांड उस शून्यता में समा गया हो। जब उसने अपनी बात पूरी की, तो अजान महाबुवा ने शांति से उसकी ओर देखा और पूछा, “क्या बस इतना ही है?”
मे ची क्यु ने सिर हिलाकर हामी भरी। फिर अजान महाबुवा थोड़ी देर चुप रहे, और कुछ कहने लगे—
“जब हम अपने मन की गतिविधियों का गहराई से निरीक्षण करते हैं और उनके पार चले जाते हैं, तो मन में छिपे सभी अशुद्ध विचार और भावनाएं एक तेज और जागरूक केंद्र में आ जाते हैं। यह केंद्र, जो मन की प्राकृतिक शुद्धता और चमक से जुड़ा होता है, भीतर मौजूद एक उज्ज्वल प्रकाश की तरह प्रकट होता है। इस अवस्था में स्वाभाविक सजगता और सहज प्रज्ञा अपने आप उभरती हैं। मन की यह स्पष्टता और प्रकाश ऐसा अनुभव कराता है जिसे किसी और चीज़ से तुलना नहीं की जा सकती। यह अंदर का सार, जो पूर्ण अच्छाई और सच्चाई का प्रतीक है, वास्तव में हमारा असली और मूल स्वभाव है – हमारे अस्तित्व की गहराई। लेकिन यहीं एक गहरा विरोधाभास भी है – यही ‘सच्चा आत्म(मैं)’ ही सबसे गहरा लगाव बन जाता है, जो हमें जीवन और मृत्यु के चक्र में बाँधे रखता है। इसी की वजह से हम लगातार कुछ बनने की चाह और रुकने की इच्छा में फंसे रहते हैं। इस गहरे लगाव की जड़ है – भ्रम। यह भ्रम ही मन की अशुद्धताओं को जन्म देता है, और इससे छुटकारा पाने का तरीका है – लगातार स्मरणशीलता की प्रैक्टिस। जब स्मरणशीलता और प्रज्ञा इतना मजबूत हो जाए कि यह भ्रम पैदा करने वाले मन के खेल को ही रोक दे, तब हम उस केंद्र को देख पाते हैं जो एक प्रकाशमान शून्यता जैसा होता है – एक ऐसी स्थिति जो अद्भुत और चमत्कारी लगती है।
लेकिन उस प्रकाशमान शून्यता को निर्वाण की सच्ची शून्यता समझने की गलती नहीं करनी चाहिए। ये दोनों एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हैं, जैसे रात और दिन। प्रकाशमान मन, मन के उस स्तर को दर्शाता है जो अब भी लगातार बनता और चलता रहता है — यह जन्म और मृत्यु के चक्र से जुड़ा हुआ है। यह मन का वह गहराई वाला पक्ष है जो बहुत शुद्ध और शांत हो गया है, लेकिन यह अब भी मन का ही हिस्सा है, न कि पूर्ण मुक्ति की अवस्था।
इस प्रकाशमान अवस्था में एक खास तरह की समानता और स्पष्टता होती है, जिससे यह शून्यता जैसी लग सकती है। यह नाम और रूप (व्यक्तित्व) से परे लगता है, लेकिन यह अभी तक निर्वाण नहीं है। यह उस मन का रूप है जो इतना परिशुद्ध हो चुका है कि उसमें जानने की एक तेज, आकर्षक और अद्वितीय क्षमता पैदा हो गई है। जब मन सब कुछ त्याग देता है — लेकिन स्वयं को नहीं — तो यह प्रकाशमान अवस्था बनती है। लेकिन अब भी इसमें यह भ्रम छिपा होता है कि ‘यह ही सच्चा स्वरूप है।’ इस भ्रम के कारण, यह जानने वाला प्रकाशमान मन, खुद को ही आत्म समझने लगता है। फिर धीरे-धीरे यह विश्वास पक्का हो जाता है कि यही चमक, यही सूक्ष्म सुख, यही आत्म(मैं) का सच्चा रूप है — कि यही निर्वाण है। लेकिन असल में, यह अब भी भ्रम ही है।
शून्यता, चमक, स्पष्टता और आनंद — ये सभी मन की सूक्ष्म अवस्थाएँ हैं, जो अब भी मूल भ्रम से जुड़ी हैं। अगर कोई ध्यान से इस प्रकाशमान शून्यता को देखता है, तो वह देख सकेगा कि यह वास्तव में स्थिर नहीं है, यह बदलती रहती है। कभी-कभी बहुत थोड़ा ही सही, परंतु उसमें परिवर्तन दिखाई देता है। और यही सूक्ष्म परिवर्तन यह साबित करता है कि यह अवस्था भी अनित्य (क्षणिक) है। चाहे कोई अवस्था कितनी भी सुंदर, साफ या प्रभावशाली क्यों न लगे — अगर वह किसी भी प्रकार के बदलाव को दर्शाती है, तो वह भी अभी भ्रम से मुक्त नहीं है।
अगर यह वाकई निर्वाण होता, तो यह अत्यंत परिशुद्ध मन क्यों बार-बार सूक्ष्म रूपों में बदलता रहता? उसमें भी परिवर्तन होता है, वह पूरी तरह स्थिर या सच्चा नहीं है। अब उसी प्रकाशमान केंद्र पर ध्यान दो — और गौर से देखो कि उसकी चमक में भी वही विशेषताएँ हैं जो पहले तुमने अन्य सभी घटनाओं में देखी थीं: क्षणिकता, अधूरापन, और उसमें कुछ भी ऐसा नहीं है जो वास्तव में जरूरी हो। फर्क बस इतना है कि यह बहुत ही सूक्ष्म और सुंदर रूप में प्रकट होती है।
कल्पना करो कि तुम एक खाली कमरे के बीच में खड़े हो। चारों तरफ देखो — हर ओर खालीपन है, कुछ भी नहीं। लेकिन फिर सोचो: क्या वह कमरा सचमुच खाली है, सिवाय आपके, कमरे के बीच खड़े होकर उस खाली जगह की प्रशंसा कर रहे है, आप अपने को भूल ही गए। कि आप ही कमरे के बीच की खाली जगह को घेरे है, तो कमरा खाली कैसे रह सकता है। यही तो बात है! जब तक ‘मैं’ मौजूद है, जब तक वह केंद्रीय आत्म का अनुभव बना रहता है, तब तक मन भी पूरी तरह खाली नहीं हो सकता। लेकिन जैसे ही यह अहसास होता है कि ‘मैं’ को भी मिटना होगा — तब ही असली शून्यता, असली शून्यता प्रकट होती है। यही वह क्षण है जब आत्म के भ्रम की दीवार टूट जाती है और शुद्ध, भ्रम से मुक्त मन जन्म लेता है।
जब मन सभी अनुभवों को पूरी तरह त्याग देता है, तब वह बिल्कुल शून्य सा लगता है। लेकिन उस शून्यता को जो देख रहा है, जो उसकी सराहना कर रहा है, वह ‘मैं’ अब भी मौजूद है। यही ‘मैं’ — आत्म की यह धारण — सबसे गहरी भ्रांति है। यह झूठा दृष्टिकोण ही मन को बाँधे रखता है। यही कारण है कि सूक्ष्म शून्यता का प्रकाशमान मन और अनुभवातीत शून्यता के शुद्ध मन में अंतर है। तो वह प्रत्येक प्रकार के भ्रम से मुक्त होता हैं। जब तक यह ‘मैं’ मौजूद है, तब तक वह अंतर बना रहेगा। लेकिन जैसे ही यह ‘मैं’ मिटता है, कोई भी बाधा शेष नहीं रहती — तब शुद्ध निर्वाण, पूर्ण शून्यता प्रकट होती है।
बिलकुल उसी तरह जैसे एक कमरे को वास्तव में खाली मानने के लिए उसमें मौजूद व्यक्ति को जाना होगा, वैसे ही मन तभी वास्तव में खाली होता है जब ‘मैं’ — आत्म— हमेशा के लिए समाप्त हो जाता है। यह जो पारलौकिक (अनुभवातीत) शून्यता है, वह इतनी पूर्ण और शाश्वत होती है कि उसे बनाए रखने के लिए किसी और प्रयास की ज़रूरत नहीं होती। वह अपने आप में पूर्ण होती है।
भ्रम(भ्रम) एक ऐसी जागरूकता है जो भीतर से अंधेरी होती है — लेकिन ऊपर से वह चमक, स्पष्टता और आनंद का नकाब ओढ़े रहती है। इसी कारण से यह भ्रम व्यक्ति के लिए सबसे अंतिम और सबसे सुरक्षित आश्रय बन जाता है। लेकिन यह सब — वह चमक, वह स्पष्टता, वह सुख — सब कुछ सूक्ष्म कारणों और स्थितियों से ही उत्पन्न होता है। यह कोई स्थायी सच्चाई नहीं है। असच्ची शून्यता केवल तभी उत्पन्न होती है जब किसी की संपूर्ण संचित (शर्तबद्ध) वास्तविकता का हर एक चिन्ह पूरी तरह से गायब हो जाता है।
और जैसे ही आप उस ओर पलटकर पूरी स्पष्टता से देख लेते हैं कि यह क्या है — यह भ्रम, यह झूठी जागरूकता — तो वह अपने-आप बिखर जाती है। यह जो नकली चमक है, वह हमारी दृष्टि को इस तरह ढक देती है कि हम मन के स्वाभाविक, सच्चे आश्चर्य को कभी देख ही नहीं पाते। यही वह धोखा है जो सच्चाई को हमेशा से छिपाता आया है।”
उस शाम जब मे ची क्यु अपने विहार लौटीं, तो उन्होंने देखा कि अब उनके मन में बस एक ही आसक्ति बची है — वह चमकता हुआ चित्त। वह उसे सबसे अधिक प्रिय और सुरक्षित समझने लगी थीं। पूरे शरीर और मन में वह प्रकाशमान चित्त ही सबसे अलग और प्रमुख दिखाई देता था। उसके भीतर एक अद्भुत आश्चर्य की भावना उठती थी, और उसी के कारण उसमें एक गहरी आसक्ति भी बनी हुई थी — वह नहीं चाहती थीं कि कोई भी चीज़ उसे बिगाड़े।
लेकिन मे ची क्यु इस चित्त की उस जानने वाली स्वभाव को ठीक से समझ नहीं पाई थीं। उन्होंने उसके असली स्वभाव की जांच करना और उस पर निर्णय लेना छोड़ दिया था। जब उनका मन भीतर की ओर केंद्रित हुआ, तो वह एक तेज़, प्रसन्न और निर्भीक प्रकाश-बिंदु में सिमट गया। वहीं से हर मानसिक क्रिया उठती थी, वहीं से चेतना बहती थी, वहीं से विचार पैदा होते थे। उन्हें लगता था कि सारा सुख वहीं इकट्ठा हो गया है। इसलिए उन्होंने मान लिया था कि वही निब्बाण है — वह केन्द्र जो हमेशा चमकता रहता है। लेकिन अब उन्हें समझ आ गया था कि असल में वही दुख की जड़ है।
अब मे ची क्यु निर्भीक और अडिग होकर उस अद्भुत प्रकाशमान चित्त की गहराई से जांच करने लगीं, कि कहीं उसमें कोई दोष तो नहीं। शुरू में वह चित्त एकदम शुद्ध, शांत और निर्मल लग रहा था। लेकिन जब उन्होंने उसे और बारीकी से देखा, तो उन्हें कभी-कभी एक सूक्ष्म-सी मंदता दिखाई देने लगी, जो उस प्रकाश में हल्की धुंध जैसा असर डालती थी। इस हल्की-सी असमानता से थोड़ी-सी असंतुष्टि और अनिश्चितता भी पैदा होती थी।
ये हल्के-हल्के बदलाव उन्हें संदेह में डालने लगे और उन्होंने जांच जारी रखी। धीरे-धीरे वह इन बारीक असमानताओं को इतनी गंभीरता से देखने लगीं कि समय का होश ही खो बैठीं। उन्हें दिन-रात, नींद या थकान का कोई ध्यान नहीं रहा। कई दिनों तक वे लगातार इसी जांच में लगी रहीं। जब तक कि वह प्रकाशमान चेतना भी पूरी तरह से संदिग्ध और अस्थिर होकर अंत में समाप्त नहीं हो गई।
१ नवंबर १९५२ को, मे ची क्यु ने महसूस किया कि उनका शरीर बेहद थक गया है। पूरी तरह सजग रहते हुए वे ध्यान के मार्ग पर घंटों नंगे पैर चलती रहीं। भिक्षुओं के लिए भोजन तैयार करने से पहले उन्होंने थोड़ी देर विश्राम करने का निश्चय किया। उस समय भोर की पहली सुनहरी किरणें फयोम वृक्ष की ऊँचाई पर फैली हरी पत्तियों को छू रही थीं। वे पत्तियाँ उस कोमल रोशनी में नहाकर हल्के पीले फूलों से दमक उठीं। मे ची क्यु धीरे-धीरे उस पेड़ के नीचे बने बाँस के चबूतरे पर पहुँचीं और वहाँ शांत बैठ गईं — भीतर और बाहर दोनों ओर एक गहरी निश्चल शांति व्याप्त थी। एक ऐसा क्षण जिसमें न कुछ बीतता था, न कुछ आता था और न ही कुछ टिकता था।
फिर अचानक, जागरूक तो थीं, पर कोई विशेष अनुभव नहीं था — जैसे सब कुछ एक अदृश्य शून्य में ठहर गया हो। इतने वर्षों से जिसे वे ‘मन की दिव्य चमक’ समझती थीं, वह पल भर में ही बदल गई और विलीन हो गई — उसके स्थान पर प्रकट हुई एक शुद्ध, असीम उपस्थिति। यह उपस्थिति इतनी व्यापक थी कि उसने उनके हृदय को भर दिया और पूरे ब्रह्मांड में समा गई। जानने वाला अब हर जगह था, लेकिन कुछ भी ज्ञात नहीं था। वह चेतना बिना किसी स्वरूप, रंग या स्थान के प्रकट हो रही थी — यह जानना अब कोई प्रक्रिया नहीं रह गई थी, बल्कि ब्रह्मांड की एक सहज धारा बन गई थी। अब वह दिव्य जागरूकता, वह चमक, जो उन्हें कभी बहुत प्रिय थी, पूरी तरह समाप्त हो चुकी थी। पीछे रह गया केवल शुद्ध चित्त — पूरी तरह स्वतंत्र, बिना शर्त वाला एक ऐसा ज्ञान, जो किसी भी मानवीय विचार या कल्पना से परे था।
“शरीर, मन और सार — ये तीनों अलग-अलग और स्वतंत्र सत्य हैं। हर चीज़ — धरती, जल, अग्नि, वायु; शरीर, संवेदना , स्मृति, विचार और चेतना; दृश्य, ध्वनि, गंध, स्वाद, स्पर्श, भावनायें; क्रोध, मोह और लोभ — ये सब मैं जानती हूँ, जैसी ये वास्तव में हैं।
मैं इनके संपर्क में आती हूँ, लेकिन कभी नहीं लगता कि वे मेरे हृदय को छूती हैं। वे आते हैं, जाते हैं — बस चलते रहते हैं। लेकिन जो उपस्थिति उन्हें जानती है, वह एक क्षण के लिए भी नहीं बदलती। वह न कभी जन्मी है, न कभी मरेगी। यही है सारे दुखों की समाप्ति।”