“ध्यान के महत्व पर कभी शक न करें और न ही अपनी योग्यता को कम आँकें। आपको ध्यान में जितनी भी प्रगति हो, उससे संतुष्ट रहें, क्योंकि वह उस सच्चाई का एक अंश है जिसे आप खोज रहे हैं। इसलिए, आप उस पर भरोसा कर सकते हैं।”
अजान साओ ने तीन साल बान हुआई साई गाँव के आस-पास के जंगलों में बिताए — पहले एक जंगल में, फिर दूसरे में। जब वे खाम चा-ई ज़िले से उत्तर की ओर रवाना हुए, तब तक उस पूरे क्षेत्र का धार्मिक वातावरण हमेशा के लिए बदल चुका था। अजान साओ का प्रभाव इतना गहरा था कि अब ज़्यादातर स्थानीय लोग भूत-प्रेतों की पूजा छोड़कर बौद्ध साधना को अपनाने लगे थे। तापई के पिता अक्सर अजान साओ के साथ गाँव के आस-पास की जगहों पर जाते थे, उन्हें नए शांत और एकांत स्थान दिखाते और अपने मित्रों की मदद से भिक्षुओं के लिए बांस की झोपड़ियाँ बनाते। जैसे-जैसे बौद्ध धर्म गाँव में फैल रहा था, तापई के पिता को उसमें गहरी खुशी और संतोष मिल रहा था। अजान साओ के विदा होने पर उन्हें दुख हुआ, लेकिन इस बात से उन्हें सांत्वना मिली कि अब उनके फू ताई पड़ोसियों के दिल और मन में धर्म गहराई से बस गया है। फिर भी, उन्हें यह बिल्कुल अंदाज़ा नहीं था कि अजान साओ के जाने के बाद जल्द ही एक और अत्यंत सम्मानित भंते का आगमन होने वाला है।
‘अजान मन भूरिदत्तो’ एक महान व्यक्तित्व बनते जा रहे थे। उनका जीवन और उनकी आध्यात्मिक उपलब्धियाँ आधुनिक थाई इतिहास में एक विशेष स्थान प्राप्त कर रही थीं। उनकी ख्याति इतनी बढ़ गई थी कि वह पहले ही पूर्वोत्तर प्रांतों तक पहुँच चुकी थी और लोगों के बीच जुबानी परंपरा से फैल रही थी। कहा जाता था कि अजान मन ने धम्म के गहरे अर्थ को इतनी गहराई, शक्ति और स्पष्टता से समझाया कि उनकी उपस्थिति में भूत-प्रेत भी शांत हो जाते थे। देवता, नाग, गरुड़ और असुर तक उनकी करुणा और प्रेम की आभा से प्रभावित हो जाते थे।
उनकी कठोर और अनुशासित जीवन-शैली ने उन्हें भिक्षुओं के मार्गदर्शक और धुतांग के आदर्श आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया था। उनके शिष्य, जो उनके बताए मार्ग पर चलते थे, मानो उनकी आध्यात्मिक सेना थे। वे भी उसी दृढ़ संकल्प और अनुशासन के साथ जीवन जीते थे, जैसे कोई सच्चा आध्यात्मिक योद्धा। लोगों में यह विश्वास था कि यदि कोई व्यक्ति अजान मन से एक बार भी मिल ले, तो उसे जीवनभर का सौभाग्य प्राप्त हो जाता है।
अजान मन एक सच्चे भिक्षु थे। वे शायद ही कभी किसी एक स्थान पर दो बार वर्षावास करते थे। वर्षा ऋतु समाप्त होते ही वे अपने भिक्षुओं के साथ बिना किसी बोझ के, पूरी स्वतंत्रता के साथ उत्तर-पूर्व के विशाल जंगलों में घूमने निकल पड़ते थे। वे ऐसे चलते थे जैसे पक्षी बिना किसी बंधन के आकाश में उड़ते हैं, पक्षी किसी भी पेड़, तालाब या झील के किनारे थोड़ी देर रुककर फिर उड़ जाते हैं, बिना किसी लगाव के, वैसे ही अजान मन और उनके भिक्षु भी पूरे एकान्त में जीवन बिताते थे, और सब कुछ छोड़कर आगे बढ़ते जाते थे।
इस प्रकार, १९१७ में, जब मानसून का मौसम तेजी से पास आ रहा था, अजान मन और साठ भिक्षुओं का एक दल उत्तर दिशा से यात्रा करते हुए बान हुआई साई गांव के ऊपर स्थित एक जंगली पर्वतीय क्षेत्र में पहुँचा। उन्होंने अपने डेरों को पेड़ों के नीचे, गुफाओं के भीतर, लटकती हुई चट्टानों के नीचे और नज़दीकी श्मशान घाटों के पास लगाया। अजान साओ के मार्गदर्शन और प्रभाव को याद करते हुए, अजान मन के आगमन से गांव में फिर से धार्मिक उत्साह की लहर दौड़ गई। गांव के लोग, भिक्षुओं की सेवा कर पुण्य अर्जित करने के अवसर से अत्यंत प्रसन्न और प्रेरित हुए।
बान हुआई साई गांव के सभी लोगों ने श्रद्धा के साथ इन धम्म भिक्षुओं का स्वागत किया। अजान मन और उनके शिष्यों ने वहां के प्राकृतिक वातावरण में रहते हुए अपना साधना अभ्यास शुरू किया। उन्होंने सादगी से जीवन बिताया और धुतांग परंपरा का ध्यानपूर्वक पालन किया। उपोसथ1 पर कई गांव के लोग पहाड़ी पर स्थित उनके रहने की जगहों पर आते, जिससे उन्हें अजान मन से मार्गदर्शन और धम्म की शिक्षा प्राप्त होती थी।
तापई ने अजान मन के विषय में अजान साओ से उनका संबंध पहले ही सुन रखा था—दोनों लंबे समय से अभ्यास में एक-दूसरे के सहायक और प्रेरणास्रोत रहे थे। तापई को यह तो ज्ञात था, लेकिन इससे अधिक कुछ नहीं। जब वह कभी-कभी अपने माता-पिता के साथ अजान मन की पास जाती, तो उसने स्पष्ट रूप से अजान मन और अजान साओ के स्वभाव में अंतर महसूस किया।
जहाँ अजान साओ शांत, स्थिर और गहरे संयम वाले थे, वहीं अजान मन का व्यक्तित्व बलशाली और ऊर्जा से भरा हुआ था। शारीरिक रूप से वे अजान साओ से छोटे और अधिक पतले थे, लेकिन जब वे बोलते, तो उनमें एक अनोखी जीवंतता होती—उनकी भुजाएँ हिलतीं, हाथों से वे गहरे और प्रभावशाली इशारे करते, और उनकी आवाज़ में एक गर्जना सी शक्ति होती थी।
तापई को शुरू में अजान मन से थोड़ी झिझक और डर महसूस हुआ। उनके तेज़ और प्रभावशाली स्वभाव ने उसे थोड़ा सहमा दिया था। हर सुबह, जब वह गांव में अजान मन के भिक्षापात्र में श्रद्धा से भोजन अर्पित करती, तो अजान मन कई बार रुककर सीधे उससे बातें करते और उसे अधिक बार आने के लिए प्रोत्साहित करते। लेकिन उनके रहते हुए में तापई शर्मीली और संकोच से भरी हुई महसूस करती थी, इसलिए वह केवल विशेष धार्मिक अवसरों पर ही जाने की हिम्मत जुटा पाती थी, जब वह अपने माता-पिता और गांव के अन्य लोगों के साथ होती थी
अजान मन उसके प्रति हमेशा अत्यंत दयालु और स्नेही रहते। जब वह अनुष्ठानों के दिनों में आती, तो वे उसकी उपस्थिति को पहचानते और उससे कुछ शब्दों में संवाद करते। अजान मन ने सहज रूप से यह जान लिया था कि तापई में गहरी श्रद्धा और एक विशेष आध्यात्मिक क्षमता है। इसलिए उन्होंने उसे ध्यान का अभ्यास करने के लिए प्रोत्साहित करना शुरू किया। उन्होंने वही मूल विधि उसे समझाई जो पहले अजान साओ ने सिखाई थी—‘बुद्धो’ शब्द का मन ही मन में बार-बार दोहराना। यह अभ्यास तब तक करना था जब तक कि ‘बुद्धो’ उसकी पूरी जागरूकता का केंद्र न बन जाए।
अजान मन ने यह स्पष्ट किया कि ध्यान की सफलता जागरूकता पर निर्भर करती है—प्रत्येक बुद्-धो, बुद्-धो’ की पुनरावृत्ति को पूरी चेतना के साथ अनुभव करना, उसकी गति, उसका उतार-चढ़ाव समझना और उसी में स्थिर हो जाना। तापई ने सोचा, “यह विधि तो बहुत सरल लगती है,” लेकिन अपने सहज विनम्र स्वभाव के कारण वह तुरंत इसे अपनाने से संकोच कर रही थी।
परंतु जब अजान मन ने बार-बार इस अभ्यास को अपनाने पर ज़ोर दिया, तो तापई को अपने भीतर एक भरोसे की भावना जागी। उसने अपने मन में सोचा, “मैं तो एक साधारण गांव की लड़की हूँ, लेकिन शायद मेरे भीतर कुछ विशेष गुण हैं। नहीं तो अजान मन मेरे बारे में इतनी रुचि क्यों दिखाते?” और तभी उसने निश्चय किया, “अब मुझे उनकी सलाह का पालन करना चाहिए और जिस तरह उन्होंने सिखाया है, उसी तरह ध्यान का अभ्यास करना चाहिए।”
एक शाम भोजन के बाद, तापई ने मन ही मन निर्णय लिया और जल्दी ही अपने शयनकक्ष में चली गई। पूरे दिन उसके भीतर यह भावना उमड़ रही थी कि आज का दिन ध्यान के अभ्यास के लिए समर्पित होना चाहिए—जैसा कि अजान मन ने उसे सिखाया था। श्रद्धा और गम्भीरता से भरे मन के साथ, उसने ‘बुद्धो’ शब्द का मन में दोहराना शुरू किया।
लगभग पंद्रह मिनट तक एकाग्रता से यह अभ्यास करते हुए, अचानक उसका मन गहरे भीतर उतर गया—जैसे वह किसी शांत कुएँ की गहराई में गिर पड़ी हो। शरीर और मन, दोनों एक अजीब सी शांति में डूब गए। यह अनुभव उसके लिए नया, अनोखा और अवर्णनीय था। उसे समझ नहीं आया कि यह क्या था, लेकिन यह बहुत ही गहन और शांत करने वाला था।
थोड़ी देर बाद, उसका मन उस गहरी अवस्था से थोड़ी दूरी पर आया, और उसने खुद को एक अजीब स्थिति में पाया। वह अपने ही मृत शरीर की छवि देख रही थी—एकदम साफ़, सजीव और सच्ची प्रतीत होती हुई। हर विवरण इतना वास्तविक था कि उसे यकीन हो गया कि वह अब जीवित नहीं है।
तभी, एक विचार उसके मन में आया जिसने उसकी शांति को तोड़ दिया: “अगर मैं मर गई हूँ, तो कल सुबह भिक्षुओं के लिए भात कौन बनायेगा? अजान मन को कौन बताएगा कि मैं ध्यान करते हुए चल बसी?”
परंतु इस चिंता को जल्दी ही शांत करते हुए, तापई ने अपने मन को संयमित किया और स्थिति को स्वीकार करने का साहस किया। उसने सोचा, “अगर मैं मर गई हूँ, तो ठीक है—मैं मर गई हूँ। हर किसी को एक न एक दिन मरना ही है। दुनिया का कोई भी व्यक्ति—चाहे वह कितना भी महान क्यों न हो—मृत्यु से नहीं बच सकता। यहाँ तक कि एक महान राजा को भी एक दिन मरना होता है।”
फिर तापई का मन और भी स्थिर और एकाग्र हो गया। उसने अपने सामने पड़े मृत शरीर पर पूरी तरह ध्यान केंद्रित किया। वह छवि न तो धुंधली हुई, न ही उसमें कोई बदलाव आया। इससे उसे और अधिक यकीन हो गया कि वह सचमुच मर चुकी है। वह सोचने लगी कि इस मृत्यु का आगे क्या परिणाम होगा, लेकिन किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकी। उसी समय, उसने देखा कि स्थानीय गाँव के कुछ लोग उसके सामने प्रकट हो गए। वे अचानक ही उस दृश्य में शामिल हो गए, जैसे कोई तस्वीर में धीरे-धीरे उभरता है। उन्होंने चुपचाप उसके निर्जीव शरीर को उठाया और पास के श्मशान भूमि की ओर ले चले। जब वे उसके शरीर को सुनसान जगह के बीच में रख चुके थे, तब उसने देखा कि अजान मन और उनके साथ कुछ भिक्षु गंभीरता से उस ओर बढ़ते चले आ रहे हैं। अजान मन उसके सामने आकर एक क्षण के लिए रुके, फिर भिक्षुओं की ओर मुड़ते हुए बोले, “यह लड़की मर चुकी है। अब मैं इसका अंतिम संस्कार करूँगा।”
भिक्षुओं ने सिर झुकाया और भावहीन चेहरों से शव की ओर देखा। अजान मन ने शांत स्वर में अंतिम संस्कार के सूत्रों का पठन शुरू किया: “अनिच्चा वत संखारा…”
“शरीर को बनाने वाले सारे तत्व जब खत्म हो जाते हैं, तब यह शरीर कोई काम का नहीं रह जाता। लेकिन, हृदय नहीं मरता; वह लगातार काम करता रहता है। अगर यह धर्म के मार्ग पर विकसित होता है, तो इसके फल असीम होते हैं। लेकिन अगर इसे बुरे मार्ग पर लगाया जाए, तो यही हृदय खुद के लिए बड़ा संकट बन जाता है।”
शांत और गहरी भावना के साथ, अजान मन ने धीरे-धीरे और गंभीर स्वर में यह वाक्य तीन बार दोहराएं। वे पूरी तरह शांत और स्थिर खड़े थे, केवल अपनी बाँह को हिलाते हुए। उन्होंने अपनी छड़ी से तापई के मृत शरीर को तीन बार धीरे-धीरे थपथपाया, और हर बार कहा:
“यह शरीर सदा टिकता नहीं; जन्म लेने के बाद इसे एक दिन मरना ही पड़ता है। लेकिन हृदय — यह सदा बना रहता है। यह न कभी जन्म लेता है, न ही शरीर के साथ मरता है। यह हमेशा गतिशील रहता है, निरंतर घूमता और बदलता रहता है, उन कारणों और परिस्थितियों के अनुसार जो इसे दिशा देती हैं।”
हर कोमल थपथपाने के साथ, अजान मन अपनी बात दोहराते रहे और तापई की लाश में धीरे-धीरे परिवर्तन होता गया। सबसे पहले, उसकी त्वचा पर फफोले पड़ गए और वह उतरने लगी, जिससे नीचे का मांस दिखने लगा। जैसे-जैसे अजान मन अपनी छड़ी से थपथपाते गए, मांस और नसें सड़ने लगीं, और उसके बाद केवल हड्डियाँ और अंग ही शेष रह गए। तापई, मंत्रमुग्ध सी, यह सब चुपचाप देखती रही — उसका पूरा शरीर सड़कर नष्ट हो गया, और अंत में केवल सूखी, कठोर हड्डियाँ बचीं। फिर, अजान मन ने कंकाल के बीच अपना हाथ डाला और हृदय के “बीज” को अपनी हथेली में उठाया। उन्होंने घोषणा की:
“हृदय कभी नष्ट नहीं होता। अगर यह नष्ट हो जाता, तो तुम्हें कभी चेतना नहीं आती।”
तपाई ने उस पूरे दृश्य को विस्मय और डर के मिले-जुले भाव से देखा। वह समझ नहीं पा रही थीं कि इसे कैसे समझें। जब अजान मन ने बोलना समाप्त किया, तो वह मन ही मन सोचने लगीं: “जब शरीर पूरी तरह मरने के बाद सड़-गल जाता है और केवल हड्डियाँ बचती हैं, तो वह क्या चीज़ है जो फिर से चेतना प्राप्त करती है?”
अजान मन ने अपने हाथ में पकड़े बीज की ओर देखते हुए, बिना सिर उठाए ही उसके विचार का उत्तर दिया: “उसे तो लौटना ही होगा! जब वह बीज अब भी मौजूद है जो चेतना को वापस लाता है, तो तुम चेतना क्यों नहीं पाओगी? कल सुबह सूरज उगने पर तुम फिर से चेतना में आ जाओगी।”
तपाई पूरी रात ध्यान में बैठी रहीं, अपने मरे हुए शरीर की कल्पना में पूरी तरह डूबी हुईं। केवल भोर की पहली रोशनी में ही उनका मन गहरे समाधि से वापस लौटा। जैसे ही उसने अपने होने का आभास हुआ, उसने अपने शरीर की ओर देखा, जो बिस्तर पर बैठा था। उसे बड़ी राहत मिली कि वह मरी नहीं थीं। उसकी सामान्य जाग्रत अवस्था लौट आई थी, और वे जीवित होने पर प्रसन्न हुईं। लेकिन फिर, जब उसने रात की घटनाओं पर विचार किया, तो उसने यह सोचकर खुद को डांटना शुरू किया कि वह ध्यान करने के बजाय पूरी रात सोती रहीं और सपना देखती रहीं। उसे पूरा विश्वास था कि अजान मन अब उससे निराश होंगे।
सुबह थोड़ा देर से, अजान मन अपने रोज़ के भिक्षा-पात्र के साथ तपाई के घर के सामने से गुज़रे। जब तपाई ने उनके पात्र में भोजन रखा, तो उन्होंने उसे जिज्ञासा भरी निगाहों से देखा, फिर मुस्कराए और कहा कि खाना खाने के बाद वह उनसे मिलने आए। तपाई के पिता उसे लेकर अजान मन के विहार की ओर चल पड़े। उसे समझ नहीं आ रहा था कि अजान मन ने क्यों बुलाया है — क्या कोई परेशानी है? तपाई चुपचाप चल रही थीं, अपने ध्यान के अनुभव को सोचते हुए शर्म महसूस कर रही थीं। उसे लग रहा था कि ध्यान करते-करते वह सो गई थीं और अब अजान मन ज़रूर नाराज़ होंगे। वह कहीं छिप जाना चाहती थीं, पर समझ नहीं पा रही थीं कि कहां और कैसे।
जैसे ही वे विहार में पहुँचे, तपाई ने अपने पिता से कुछ बहाना बनाया और जल्दी से जाकर औरतों की मदद करने लगीं, जो पास की नदी से पानी ला रही थीं। जब अजान मन ने तपाई के पिता टैंसन को अकेले देखा, तो हैरानी से पूछा कि तपाई कहाँ हैं। तब टैंसन तुरंत जाकर तपाई को बुला लाए।
डरी-सहमी तपाई धीरे-धीरे चलकर वहाँ पहुँचीं जहाँ अजान मन बैठे थे और उसने उनके सामने तीन बार सिर झुकाकर प्रणाम किया। इससे पहले कि वह कुछ कह पातीं, अजान मन ने तुरंत पूछ लिया, “कल रात ध्यान कैसा रहा?”
संकोच करते हुए और शर्मिंदा होकर तपाई ने कहा, “कुछ नहीं हुआ, भन्ते। मैंने ‘बुद्धो बुद्धो’ दोहराना शुरू किया, लगभग पंद्रह मिनट तक, फिर लगा जैसे मेरा मन किसी गहरे कुएँ में गिर गया हो। उसके बाद मैं सो गई और पूरी रात सपना देखती रही। सुबह जब जागी, तो बहुत निराश हो गई। मुझे डर है कि आप मुझे डाँटेंगे, क्योंकि मैंने पर्याप्त प्रयास नहीं किया।”
यह सुनकर अजान मन ज़ोर से हँस पड़े और खुश होकर बोले, “कैसे सोई थीं? और क्या सपना देखा? ज़रा बताओ तो सही।”
जब तपाई ने पूरी बात बताई, तो अजान मन फिर ज़ोर से हँस पड़े। उसकी कहानी सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुए और बोले, “यह नींद नहीं थी! तुम सपना नहीं देख रही थीं! जो तुमने अनुभव किया, वह ‘समाधि’ की गहराई में जाने की अवस्था थी — एक शांत, एकाग्र स्थिति। इसे अच्छे से याद रखना। जिसे तुम सपना समझ रही थीं, वह दरअसल गहरी समाधि से उपजा एक दृश्य था। अगर आगे भी इस तरह के अनुभव हों, तो बस शांत रहो और उन्हें होने दो। डरने या घबराने की ज़रूरत नहीं है। मैं नहीं चाहता कि तुम डरो, लेकिन ध्यान के दौरान जो भी घटित हो, उसे सजगता से देखो और पूरी जागरूकता के साथ अनुभव करो। जब तक मैं यहाँ हूँ, तुम्हें कोई हानि नहीं होगी। और आगे से, ध्यान में जो भी दृश्य तुम्हें दिखें, आकर मुझे ज़रूर बताना।”