नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

“अपने मन की खेती उसी तरह करें जैसे एक किसान अपने खेत की करता है। धीरे-धीरे मन की ज़मीन को साफ़ करें, फिर उसकी मिट्टी को तैयार करें। विचारों की पंक्तियाँ जोतें, अच्छे विचारों के बीज बोएँ। फिर उन पर अच्छे कर्मों की खाद डालें, उन्हें प्रेम और धैर्य का पानी दें, और गलत सोच की खरपतवार को उखाड़ते रहें। अंत में, आप अपने मन में शांति और सुख की सुनहरी फसल पाएँगे।”

अध्याय चार

शहतूत का बाग

तापई ने अपनी किशोरावस्था के शुरुआती सालों में बड़ी मेहनत किया। वह स्वभाव से परिश्रमी और उत्साही थी, और जो भी काम करती, वह अपनी इच्छा और लगन से करती, कभी किसी के दबाव में आकर नहीं। एक साल जब खेत की फसल कट गई और अनाज को सुरक्षित ढंग से भंडार में रख दिया गया, तो उसने उत्साह से शहतूत का बाग लगाने की तैयारी शुरू की।

फू ताई रेशम के कीड़ों को पालने में निपुण थी। वे कोकून से कच्चे रेशम को निकालकर उसे धागे और कपड़े में बदलना जानते थी। इन कीड़ों का मुख्य भोजन शहतूत के पत्ते होते हैं। जब शहतूत के पेड़ों पर फल आ जाते और पत्तियाँ तैयार हो जाती, तो उन्हें काटकर चौड़ी, उथली टोकरियों में फैलाया जाता था, जिनमें कीड़े पले होते थे। तापई जानती थी कि शहतूत का बाग़ परिवार के लिए एक उपयोगी संपत्ति बन सकता है, जिससे आजीविका का एक और रास्ता खुलेगा।

तापई ने अपनी सौतेली माँ से रेशम के कीड़ों की परवरिश के बारे में सीखा था और अब वह शहतूत के पत्तों के लिए एक स्वतंत्र स्रोत बनाना चाहती थी। उसे अपने खेत से दूर एक ऊँचे टीले को साफ़ करना बहुत अच्छा लगता था। यह जगह पहले आंशिक रूप से जंगल से ढकी थी, लेकिन शहतूत के बाग के लिए एकदम उपयुक्त थी। उसने पूरे मन से मेहनत करके उस ज़मीन को साफ़ किया और समतल किया। वहाँ आसपास के छायादार और मजबूत पेड़ों की आड़ में, जो तेज धूप से रक्षा करते थे, तापई ने शहतूत के पौधे लगाए। उसने उन्हें बड़ी सावधानी और स्नेह से सींचा, जब तक कि उनकी जड़ें मज़बूती से जम न गईं और वे नम, गर्म जलवायु से बढ़ने न लगे। जैसे-जैसे उसके पेड़ बड़े होते गए, तापई ने रेशम के कीड़ों को पालने की योजना भी बनानी शुरू कर दी।

कुछ समय बाद, तापई ने अजान मन को गाँव के लोगों से यह कहते हुए सुना कि वे वर्षावास में एकांतवास के लिए कोई उपयुक्त स्थान खोज रहे हैं। उन्हें ऐसी जगह चाहिए थी जो खुली हो, ज़मीन थोड़ी ऊँचाई पर हो, पेड़ बहुत घने न हों, और जहाँ सूर्य की कुछ रोशनी ज़मीन तक पहुँच सके, ताकि लम्बे, भीगे हुए मानसून में ज़रूरत से ज़्यादा नमी न हो। तापई को तुरंत अपने शहतूत के बाग की याद आई। वह बाग चावल के खेतों से ऊपर एक पहाड़ी पर था, जिससे बरसात का पानी आसानी से नीचे चला जाता था। चावल के खेतों से आने वाली ठंडी हवा वहाँ की नमी को भी कम करती थी और जगह को ठंडा बनाए रखती थी।

वह जगह समतल थी, जहाँ बांस की झोपड़ियाँ भी आसानी से बनाई जा सकती थीं। पास के जंगल के पेड़ वहां एकांत भी प्रदान करते थे। तापई ने अपने पिता और भाइयों से सलाह की और फिर अजान मन को आमंत्रित किया कि वे आकर स्वयं उस स्थान को देख लें। जब अजान मन वहाँ पहुँचे और उस स्थान के वातावरण को देखकर प्रसन्न हुए, तो तापई के मन में खुशी की लहर दौड़ गई। वह उनके सामने झुककर यह प्रार्थना करने वाली थी कि वे यह भूमि दान स्वरूप स्वीकार करें और करुणा करके वर्षावास वहाँ बिताएँ।

लेकिन, इससे पहले कि वह कुछ बोल पाती, अजान मन ने ऊँची आवाज़ में सबके सामने यह घोषणा कर दी कि यह उपवन ठीक वैसा ही स्थान है जैसा वे एक छोटे विहार के लिए वर्षा ऋतु में चाहते थे। तापई यह सुनकर एक क्षण के लिए चकित रह गई, जैसे अब कुछ कहने की ज़रूरत ही न रही हो। अजान मन ने मुस्कुराते हुए उसकी ओर देखा। उनके इस भाव से स्पष्ट था कि वे जान चुके हैं कि यह उपवन तापई का है और अब केवल उसके प्रस्ताव की औपचारिकता बाकी है।

तापई ने बिना देर किए अपने घुटनों पर झुककर, तीन बार भन्ते नमन किया और परिवार की ओर से वह भूमि दान में देने की प्रार्थना की। अजान मन ने सहमति में सिर हिलाया और उसकी उदारता को आशीर्वाद देते हुए कहा कि इस पुण्य कर्म के कारण, तापई अपने जीवन में कभी दरिद्र नहीं होगी।

अजान मन के नए विहार का नाम वाट नोंग नोंग रखा गया, जो पास के एक निचले दलदली इलाके के नाम पर था। तापई के पिता के नेतृत्व में गाँव के लोगों ने तुरंत काम शुरू कर दिया। उन्होंने छोटे पेड़ों को काटा, बांस को काटकर चीरना शुरू किया, ताकि अजान मन और उनके साथ रहने वाले भिक्षुओं के लिए सरल झोपड़ियाँ बन सकें।

अजान मन ने वर्षावास के दौरान वाट नोंग नोंग में केवल बारह भिक्षुओं को ही साथ रखने की अनुमति दी। बाकी भिक्षुओं को खाम चा-ई जिले के अलग-अलग स्थानों में भेज दिया गया, जहाँ वे छोटे-छोटे समूहों में रहकर आस-पास के गाँवों की सहायता पर निर्भर रहते थे। अजान मन ने जानबूझकर अपने शिष्यों को अलग-अलग स्थानों में भेजा, ताकि वे ध्यान की साधना में एक-दूसरे की उपस्थिति से कोई बाधा न हों। फिर भी वे सभी इतने पास थे कि ध्यान में किसी कठिनाई पर आसानी से विहार लौटकर अजान मन से मार्गदर्शन ले सकते थे। यह व्यवस्था सबके लिए उपयोगी थी, क्योंकि बहुत से भिक्षुओं का एक स्थान पर होना साधना में विघ्न डाल सकता था।

वाट नोंग नोंग की झोपड़ियाँ घास की छत वाली और साधारण थीं, लेकिन वहाँ की मुख्य शाला इतनी बड़ी बनाई जा रही थी कि उसमें पचास से साठ भिक्षु एक साथ बैठ सकें। यह आवश्यक था, क्योंकि उपोसथ वाले दिन वहाँ पात्तिमोख शीलों का पाठ हो और दूर-दूर से भिक्षु उसमें भाग ले सकें। इसलिए गाँव के बुज़ुर्गों ने शाला के निर्माण में विशेष ध्यान रखा। उन्होंने मजबूत और टिकाऊ लकड़ियों से खंभे और बीम तैयार किए और भारी बारिश की संभावना को देखते हुए फर्श को ज़मीन से चार फीट ऊँचा बनाया, ताकि बाढ़ का पानी भीतर न आ सके।

वर्षावास के प्रारंभ का दिन था, और उस विशेष अवसर पर तापई भी मण्डली में सम्मिलित थी। वह वाट नोंग नोंग में अन्य लोगों के साथ बैठी हुई थी। ऊंचे आसन पर बैठे अजान मन ने स्थानीय उपासक-उपासिकाओं की एक बड़ी भीड़ को संबोधित किया, जो ज़मीन पर पुआल की चटाइयों बैठें थें।

उन्होंने अपनी गूंजती और प्रभावशाली आवाज़ में समझाया कि सच्चे दान का मूल्य तब समझ में आता है जब वह आत्म-त्याग से किया जाता है। सबसे बड़ा पुण्य उन्हीं दानों से मिलता है जो पूरी तरह निस्वार्थ भाव से दिए जाएँ—जहाँ बदले में कुछ पाने की अपेक्षा न हो, केवल उस उदारता से मिलने वाले अच्छे फल की भावना हो।

जो दान सिर्फ दूसरों की मदद के लिए किया जाता है, वह दिल को अच्छा लगता है और पुण्य बन जाता है। उन्होंने कहा कि जब हम सच्चे मन से कुछ देते हैं, तो वही भावना हमारे लिए आगे चलकर अच्छा फल लाती है। उन्होंने यह भी कहा कि दान का हर कार्य भविष्य के लिए एक निवेश है, क्योंकि यही कार्य अच्छे पुनर्जन्म की नींव रखते हैं। इसके बाद, अजान मन ने नैतिक जीवन की विशेषताओं की ओर ध्यान दिलाया। उन्होंने समझाया कि पाँच शीलों को सच्चे मन से पालन करना चाहिए। यह एक सभ्य और सच्चे इंसान होने की आधारशिला है। हर शील अपने आप में एक विशेष लाभ देता है।

पहला शील, किसी जीवित प्राणी को हानि न पहुँचाने से हम दीर्घायु और अच्छे स्वास्थ्य की आशा रख सकते हैं। दूसरा, चोरी से दूर रहने से हमारी अपनी संपत्ति और धन सुरक्षित रहेंगे। तीसरा, व्यभिचार से दूर रहकर पति-पत्नी के बीच विश्वास और संतोष बना रहता है, और किसी अपराधबोध या लज्जा की भावना से मुक्ति मिलती है। चौथा, झूठ से बचने पर हम पर लोग विश्वास करेंगे और हमारी सत्यनिष्ठा का सम्मान करेंगे। पाँचवाँ, नशे से दूर रहकर हम अपनी समझदारी को बचा सकते हैं और एक ऐसे समझदार इंसान बन सकते हैं जिसे कोई आसानी से बहका नहीं सकता हैं। और जो किसी तरह के धोखे या भ्रम में नहीं पड़ता।

जो लोग उच्च शील आचरण बनाए रखते हैं, वे अपने व्यवहार से संतोष और भरोसे की भावना व्यक्त करते हैं और दूसरों में भी यह भावना बढ़ाते हैं। इस प्रकार वे हर जगह जीवित प्राणियों को एक प्रकार की सुरक्षा और निश्चिंतता का अनुभव कराते हैं। शील में ऐसी एक विशेष शक्ति होती है जो सहायक भी है और रक्षक भी। यह शक्ति व्यक्ति को ऊँचे लोकों में जन्म लेने का कारण बनती है। इसलिए जो लोग उच्च शील का पालन करते हैं, वे निश्चित रूप से अगले जन्म में एक ऊचें स्वर्ग स्थान को प्राप्त करेंगे।

हालाँकि भला जीवन जीने से पुण्य प्राप्त होता है, अजान मन ने बताया कि ध्यान सबसे श्रेष्ठ फल देने वाला मार्ग है। उन्होंने समझाया कि पूरे ब्रह्मांड में हृदय ही सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। किसी व्यक्ति का शारीरिक और आध्यात्मिक कल्याण पूरी तरह से उसके हृदय की दशा पर निर्भर करता है। उन्होंने कहा कि व्यक्ति हृदय के माध्यम से जीता है। जीवन में जो भी संतोष या असंतोष अनुभव होता है, वह सब हृदय में ही महसूस होता है। मृत्यु के समय भी प्राणी हृदय के माध्यम से ही विदा होता है।

व्यक्ति का अगला जन्म उसके कर्मों के अनुसार होता है, और इन कर्मों का मूल कारण भी उसका हृदय ही होता है। चूँकि हृदय ही सभी अनुभवों और निर्णयों का स्रोत है, इसलिए उसका सही प्रशिक्षण आवश्यक है—ताकि यह जीवन और आगे के जीवन में भी व्यक्ति को सही दिशा में ले जा सके।

हृदय का यह प्रशिक्षण ध्यान के माध्यम से किया जा सकता है। ध्यान से व्यक्ति अपने भटकते हुए विचारों को नियंत्रित करना सीखता है। जब विचारों को संयमित किया जाता है, तो मन में स्थिरता आती है। इस तरह ध्यान व्यक्ति को एक मजबूत आधार प्रदान करता है। आध्यात्मिक शांति और संतोष प्राप्त करने के लिए।

तापई ने स्वयं को अगले तीन महीनों तक पूरी तरह ध्यान अभ्यास में समर्पित कर दिया। अजान मन में उसकी गहरी श्रद्धा और उनकी ज्ञानपूर्ण सलाह से प्रेरित होकर, उसका अभ्यास तीव्र गति से आगे बढ़ा। उसमें स्वाभाविक रूप से दर्शन और मानसिक घटनाओं को अनुभव करने की क्षमता थी, इसलिए वह हर रात अपने समाधि अभ्यास के दौरान अनेक चकित करने वाले और रहस्यमय अनुभवों का सामना करती थी।

अजान मन ने उसकी अंतर्निहित क्षमताओं को पहचान लिया था, इसलिए उन्होंने तापई पर विशेष ध्यान देना शुरू किया। जब वह हर रात ध्यान में बैठती, तो अजान मन अपनी चेतना को उसकी ओर केंद्रित कर उसकी वर्तमान मानसिक स्थिति का अवलोकन करते। इस प्रकार वे उसके ध्यान के अनुभवों से निरंतर अवगत रहते थे। जब उन्हें ज्ञात होता कि किसी विशेष रात उसका ध्यान अभ्यास विशेष रूप से गहरा और विलक्षण था, तो वे उसे अगले दिन विहार में मिलने के लिए कहते।

प्रातःकाल जब अजान मन अपने भिक्षा पात्र के साथ गाँव में भिक्षा के लिए निकलते, तो तापई, अन्य लोगों के साथ पंक्ति में खड़ी होकर, उनके पात्र में भोजन अर्पण करती। अजान मन अक्सर भिक्षा के समय मौन रहते थे, पर जिन दिनों उन्हें तापई के ध्यान में कोई विशेष प्रगति दिखाई देती, वे भोजन ग्रहण करते समय थोड़ी देर रुकते और उससे मिलने के लिए कहते।

उन दिनों तापई अपने परिवार के साथ विहार जाया करती। जब वह अजान मन को अपने असाधारण अनुभव सुनाने लगती, तो विहार के अन्य भिक्षु भी उत्सुकतावश उनके पास एकत्र हो जाते। वे उसकी उन कहानियों को ध्यान से सुनते जो उसने ध्यान के दौरान अस्तित्व के सूक्ष्म और अलौकिक क्षेत्रों को देखती थीं, और वे अजान मन के उन निर्देशों को भी बड़े ध्यान से सुनते जो वे इन अनुभवों को समझने और उनसे ठीक प्रकार से निपटने के लिए देते थे।

अजान मन हमेशा तापई का बड़े स्नेह और आदर के साथ स्वागत करते थे और उसकी हर बात को गहराई और सहानुभूति के साथ सुनते थे। उन्होंने यह समझा कि उसके मन में ऐसी स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ हैं जो जोखिम उठाने वाली और तेज़ गति से चलने वाली हैं, और यही प्रवृत्तियाँ उसे उन अनुभवों से सीधे संपर्क में लाती हैं जिन्हें सामान्य व्यक्ति सहजता से नहीं समझ सकता। अपने गहन अनुभव और ज्ञान के आधार पर, अजान मन उसे समय पर उचित और ठोस सलाह देने में समर्थ थे।

धीरे-धीरे अजान मन और तापई के बीच एक गहरा आध्यात्मिक संबंध स्थापित हो गया। तापई उनके प्रति अत्यंत श्रद्धावान और समर्पित हो गई। उसे यह एक महान सौभाग्य लगता था कि उसे अजान मन का इतना समय, मार्गदर्शन और स्नेह प्राप्त हो रहा था।

तीन महीनों का वर्षावास खत्म होने के बाद, एक दिन अजान मन ने तापई को बुलाया। उन्होंने बताया कि अब वह और उनके भिक्षु जिले से विदा हो रहे है और परंपरागत धुतांग भिक्षुओं की तरह एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करते रहेंगे। फिर उन्होंने हल्के से मुस्कुराते हुए, अपनी भौंहें उठाकर तापई से पूछा कि क्या उसका कोई प्रेमी है। तापई ने सिर हिलाकर विनम्रता से उत्तर दिया—नहीं।

अजान मन ने सिर हिलाया और सुझाव दिया कि यदि वह चाहे, तो वह एक सफेद वस्त्र पहनने वाली संन्यासिनी के रूप में दीक्षा ले सकती है और उनके साथ यात्रा कर सकती है, किंतु इसके लिए पहले उसे अपने पिता की अनुमति लेनी होगी। तापई थोड़ी देर उनके चेहरे की ओर अवाक् देखती रही, और बिना कुछ कहे ही उनकी बात को मान लेने को तैयार हो गई।

फिर, गहरी साँस लेते हुए और अपने शब्दों को सावधानी से चुनते हुए, तापई ने कहा कि वह वास्तव में दीक्षा लेना चाहती है और उनके साथ चलना चाहती है, लेकिन उसे यह भय है कि उसके पिता कभी भी इसकी अनुमति नहीं देंगे। अजान मन ने शांत और आश्वस्त मुस्कान के साथ सिर हिलाया और उसे घर लौट जाने को कहा।

तापई के पिता ने उस प्रस्ताव को रुखे मन से सुना। उन्होंने बेटी को दीक्षा देने से मना कर दिया, क्योंकि उन्हें चिंता थी कि अगर तापई कभी जीवन के उस मार्ग से लौट आए तो समाज में उसे एक योग्य वर मिलना कठिन हो जाएगा। उन्होंने उसे सलाह दी कि वह सामान्य जीवन का आनंद ले और अपने गृहस्थों के धार्मिक अनुष्ठानों से संतुष्ट रहे।

खबर सुनकर अजान मन मुस्कराए। ऐसे जैसे उन्हें ये खबर पहले मालूम हो। वह तापई से बोले— “धैर्य रखो, तुम्हारा समय जरूर आएगा।” लेकिन अभी के लिए उन्होंने कहा कि तपाई को उनके बताए हुए निर्देशों को ठीक से मानना होगा। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि उनके जाने के बाद तपाई को ध्यान करना बंद कर देना चाहिए। अभी उसे साधारण जीवन में रहकर संतोष करना होगा। जब सही समय आएगा, तो उसे दोबारा ध्यान सीखने का मौका मिलेगा। उन्होंने वादा किया कि आगे चलकर एक और अच्छा गुरु आएगा, जो उसे सही रास्ता दिखाएगा। अब उसे बस धैर्य रखना है।

अजान मन ने स्पष्ट रूप से देखा था कि तापई का मन साहसी, तीव्र और अत्यंत संवेदनशील है—एक ऐसा मन जो ध्यान के गहरे और रहस्यमय अनुभवों को आकर्षित करता है, लेकिन जिसे अभी तक पूर्ण नियंत्रण प्राप्त नहीं हुआ है। उन्हें चिंता थी कि बिना उचित मार्गदर्शन के यदि तापई ध्यान में किसी मानसिक संकट का सामना करे, तो उस स्थिति में उसकी सहायता करने वाला कोई नहीं होगा। ऐसे में उसके लिए यह अभ्यास खतरनाक हो सकता था। इसलिए, उसकी सुरक्षा और मानसिक संतुलन के लिए अजान मन ने यह सख्त निर्देश दिया कि वह ध्यान से विरत रहे।

हालाँकि तापई को इस निषेध के पीछे के सभी कारण उस समय समझ में नहीं आए, फिर भी उसने अजान मन पर पूर्ण विश्वास करते हुए उनका निर्देश मान लिया। उसने अपने भीतर के गहरे खिंचाव और अभ्यास को जारी रखने की तीव्र इच्छा के बावजूद, ध्यान पूरी तरह छोड़ दिया—इतनी गहराई से, मानो उसका हृदय टूट गया हो। और फिर… बीस साल बीत गए—बीस वर्ष तक वह उस आंतरिक पुकार को दबाए रही, जब तक कि फिर से जीवन ने उसे वह अवसर नहीं दिया जहाँ उसका ध्यान अभ्यास पुनः जीवित हो सका।


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