नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

भाग दो: संन्यास

“बुनियादी प्रशिक्षण उस डंडे की तरह है जो केले के पेड़ को सहारा देता है, जो केले के भारी गुच्छे को समय से पहले जमीन पर गिरे बिना सही समय पर परिपक्व होने और पकने में मदद करती है।”

अध्याय सात

सब कुछ पीछे छोड़ना

जुलाई की पूर्णिमा को, छत्तीस वर्ष की उम्र में, मे क्यु ने वाट नोंग नोंग में भिक्षुओं और मे चियों के सामने वन्दन किया। उसने बिना किसी पछतावे के, अपने पहले के जीवन को—उस हर चीज़ को जो कभी उसकी पहचान थी—शांत मन से पीछे छोड़ दिया। सदियों पुराने एक अनुष्ठान में, जो शांति और सरलता से भरा हुआ था, उसने खुद को एक मे ची—एक विधिपूर्वक समर्पित बौद्ध संयासिनी—घोषित किया।

उस दिन सुबह-सुबह वह विहार पहुँची, दीक्षा लेने के लिए। उसने थोड़ी घबराई मुस्कान के साथ वहाँ की मे चियों को प्रणाम किया और विनम्रता से एक ओर बैठ गई। सबके साथ सादा भोजन ग्रहण किया, आख़िरकार, मे ची बनने का लंबे समय का इंतजार ख़त्म हुआ। और अब शांति और वैराग्य का महान जीवन जीने का सपना साकार होने वाला था। उसके एक-एक करके पुरानी पहचान के भेद-भाव अलग हो रहे थे।

कुछ ही देर बाद, वह कुएँ के पास बैठी थी—भीतर कुछ असहज–सी हलचल, जैसे पेट में तितलियाँ उड़ रही हों। उसकी गर्दन थोड़ी आगे झुकी हुई थी, और मे ची डांग, मुख्य मे ची थीं, उसकी चोटी पर कैंची चला रही थीं। बालों के लंबे, काले गुच्छे ज़मीन पर गिरते जा रहे थे, जब तक कि सिर पर बस एक खुरदरी, अधकटे बालों की परत न बची। मे क्यु ने अपने पैरों के पास जमा हुए उन बालों को देखा—एक शांत उदासीनता के साथ। उसके मन में विचार आया: “ये बाल मैं नहीं हूँ। ये मेरे नहीं हैं। ये भी इस शरीर की तरह, केवल प्रकृति का हिस्सा हैं। यह जो कुछ भी है—यह सब संसार का है, मेरा नहीं। इससे कोई लगाव आवश्यक नहीं।” उस क्षण, त्याग केवल एक परंपरा नहीं था, बल्कि अनुभव की गहराई में डूबा एक साक्षात्कार बन गया।

लगातार अभ्यास से दक्ष हो चुकी मे ची डांग ने अपने धारदार और पतले उस्तरे से विधिपूर्वक मे क्यु के सिर पर बचे काले बालों को सावधानी से हटा दिया। जैसे-जैसे बाल गिरते गए, उसकी खोपड़ी की गोलाई और चमकती त्वचा सामने आने लगी। मे क्यु ने अपने हाथ की हथेली से अपने सिर की नई, कोरी सतह को छुआ—एक शांत मुस्कान के साथ—और फिर उसे जाने दिया, जैसे वर्षों का भार उतार फेंका हो।

उसे घेरे हुए अन्य मे चियाँ अब पूरी श्रद्धा से उसे दीक्षा के वस्त्र पहनाने लगीं—एक सफेद, पारंपरिक स्कर्ट जो पिंडलियों तक लहराती थी, एक ढीला, लंबी बाँहों वाला कुर्ता और एक बाह्य वस्त्र टुकड़ा जो दाहिनी बगल से गुज़रकर बाएँ कंधे पर सम्मानपूर्वक पहनाया गया। ये वस्त्र न केवल साधना और सादगी के प्रतीक थे, बल्कि अब वह एक नये जीवन की शुरुआत में प्रवेश कर चुकी थी।

फिर, मे क्यु ने दोनों हाथों से एक मोमबत्ती, अगरबत्ती और एक कमल का फूल थामा। शांत और गंभीर वातावरण में, उसने तीन बार बुद्ध, धर्म और संघ की शरण ली—

बुद्धं शरणं गच्छामि… धम्मं शरणं गच्छामि… संघं शरणं गच्छामि…।।

इन शब्दों के साथ, वह अपने जीवन के एक नये चरण की ओर बढ़ गई, जहाँ अब उसका भरोसा केवल चित्त की शुद्धि और आत्म-अनुशासन पर था। उसने पूरे मन और संकल्प के साथ मे ची के प्रशिक्षण शीलों को स्वीकार किया—

  • कि वह किसी जीवित प्राणी की हत्या नहीं करेगी,
  • कि वह जो नहीं दिया गया है, उसे नहीं लेगी,
  • वह यौन आचरण से दूर रहेगी,
  • झूठ वचन नहीं बोलेगी,
  • नशीले पदार्थों से दूर रहेगी,
  • दोपहर के बाद भोजन नहीं करेगी,
  • मनोरंजन या श्रृंगार नहीं करेगी,
  • और न ऊँचे बिस्तरों का उपयोग करेगी।

जब मे ची क्यु ने इन शीलों को ग्रहण किया, तो अजान खम्फान ने उसकी ओर शांत लेकिन दृढ़ दृष्टि से देखा। उन्होंने कहा, “अब से हर शील तुम्हारा दर्पण होगा—हर दिन, हर क्षण। उन्हें केवल याद मत करो, उन्हें जियो। ध्यान से सुनो, समझो और उनके अर्थ को अपने भीतर उतारो।

“सभी बौद्धों के लिए बुद्ध, धम्म और संघ की शरण लेना—मुक्ति के मार्ग पर पहला और सबसे मूलभूत कदम है।

बुद्ध, वह आदर्श हैं जिन्होंने आत्मज्ञान को प्राप्त किया, और जो करुणा और प्रज्ञा के पथ के सच्चे मार्गदर्शक थे। जब हम बुद्ध की शरण में जाते हैं, तो हम इस जीवन में किसी झूठे आदर्श को न अपनाने का संकल्प लेते हैं।

धम्म, वह सच्चा पथ है जो जीवन के परम सत्य की ओर ले जाता है—एक ऐसा पथ जो हमें पीड़ा से मुक्ति और शांति की ओर ले जाता है। धम्म की शरण लेने का अर्थ है उस सत्य को अपना लक्ष्य बनाना, और हर भटके हुए मार्ग से दूर रहना।

संघ, वे लोग हैं जिन्होंने इस पथ को अपनाया है और उस पर चलने के लिए स्वयं को समर्पित किया है। जब हम संघ की शरण लेते हैं, तो हम उस समुदाय को अपनी मार्गदर्शक संगति के रूप में स्वीकार करते हैं, और उन लोगों की संगति से बचते हैं जो अज्ञान या मोहवश गलत राह पर चलते हैं।

इस प्रकार, त्रिरत्न की शरण लेना केवल एक औपचारिक घोषणा नहीं है; यह एक गहरी आंतरिक प्रतिज्ञा है—एक आदर्श, एक दिशा और एक संरक्षक को स्वीकार करने की। यह सच्ची स्वतंत्रता की नींव है, जो भ्रम(मोह) और लालसा की जंजीरों को तोड़ती है।

प्रशिक्षण शील, जैसे आठ शील, उस मार्ग की सीमाएँ और संकेत हैं जो हमें भटकने से बचाते हैं। वे हमारे जीवन में अनुशासन, स्पष्टता और नैतिक सुरक्षा की दीवारें खड़ी करते हैं। जब हम इन शीलों का पालन करते हैं, तो हमारे भीतर अपराधबोध या पछतावे के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता।

उदाहरण के लिए, सबसे पहला शील कहता है कि हम किसी भी जीव को हानि नहीं पहुँचाएँगे—चाहे वह प्राणी कितना भी छोटा क्यों न हो। न ही हम किसी को ऐसा करने के लिए उकसाएँगे। हर प्राणी अपने जीवन से प्रेम करता है, इसलिए हमें उसका सम्मान करना चाहिए। इसके स्थान पर, हमें अपने हृदय को करुणा से भरना चाहिए—एक ऐसी करुणा जो संपूर्ण जगत के लिए हो, जो हिंसा और द्वेष के स्थान पर दया और समझ को जन्म दे।

आपको कभी भी किसी और की वस्तु नहीं लेनी चाहिए—चाहे वह कितनी भी साधारण क्यों न हो—और न ही किसी और को ऐसा करने के लिए उकसाना चाहिए। हर प्राणी अपनी चीज़ों से जुड़ा होता है, वह उन्हें सहेज कर रखता है। जो वस्तु किसी के लिए तुच्छ लग सकती है, वह किसी और के लिए बहुत कीमती हो सकती है। इसलिए, चोरी करना केवल संपत्ति छीनना नहीं होता—यह किसी के विश्वास और आत्म-सम्मान को भी ठेस पहुँचाता है। इसके विपरीत, दान, उदारता और पारदर्शिता को अपनाइए। जो दिया जाता है, वही सच्चा होता है; जो छीन लिया जाए, वह अंततः बोझ बन जाता है।

अब से, आपको सभी यौन संबंधों से दूर रहना चाहिए और पूर्ण ब्रह्मचर्य का अभ्यास करना चाहिए। यौन इच्छाएं और उनसे उपजा मोह अक्सर मन को व्याकुल/बेचैन करते हैं, और ध्यान और अंतर्मुखता के मार्ग में रुकावट बनते हैं। इसके स्थान पर, भीतर शुद्ध प्रेम, करुणा और श्रद्धा की ऊर्जा को जागृत कीजिए—ऐसी ऊर्जा जो किसी बंधन से नहीं बंधती, बल्कि सबके लिए समान रूप से बहती है।

आपको हमेशा सत्य बोलना चाहिए, और किसी भी परिस्थिति में झूठ का सहारा नहीं लेना चाहिए। झूठ, विश्वास को तोड़ता है; और जहाँ विश्वास नहीं होता, वहाँ कोई संबंध टिक नहीं पाता—न भीतर का, न बाहर का।

सत्य, यद्यपि कभी-कभी कठिन हो सकता है, फिर भी वह मन को हल्का और स्वच्छ बनाता है। सत्य ही मुक्ति का द्वार है।

अंतिम चार उपदेश, शरीर और मन को एक शांत, संतुलित स्थिति में रखने के लिए हैं। नशीले पदार्थों से दूर रहिए, क्योंकि वे चेतना को मलिन करते हैं और विवेक को मंद कर देते हैं। दोपहर के बाद भोजन न करके, आप इंद्रियों को अनुशासन सिखाते हैं और ध्यान में गहराई ला सकते हैं। गीत, नृत्य, श्रृंगार और सजावट से दूर रहना, आत्म-अनुशासन और भीतर की सुंदरता को पोषित करता है। ऊँचे, आलीशान बिस्तरों से बचना, विनय और सादगी को बढ़ाता है—जो ध्यान के लिए उपयुक्त भूमि तैयार करता है।

इन आठ शीलों का ईमानदारी से पालन करके, मे ची क्यु ने घर-परिवार के जीवन से थोड़ी देर के लिए दूरी बना ली, और अंदरूनी शांति की ओर एक नई राह खोल दी। इन शीलों का असली उद्देश्य यह है कि हम अपने सोचने, बोलने और व्यवहार में इनकी भावना को शामिल करें। इससे मन को उन बंधनों से मुक्त करना आसान हो जाता है जो हमें बार-बार जन्म और मृत्यु के चक्र में बांधे रखते हैं।

इन शीलों को मानने से हम सिर्फ गलतियों से नहीं बचते, बल्कि अच्छे गुणों को भी अपने भीतर बढ़ा सकते हैं। जब हम अपने मन को संयमित करते हैं और उन बुरे कामों से बचते हैं जो दुख और परेशानी लाते हैं, तब हम उस पवित्र रास्ते पर आगे बढ़ते हैं जो आध्यात्मिक मुक्ति की ओर ले जाता है। इसलिए, ये शील बौद्ध साधना की नींव माने जाते हैं। हमें इन्हें पूरी श्रद्धा और सम्मान के साथ अपनाना चाहिए, क्योंकि यही रास्ता हमें अंदर की सच्ची आज़ादी तक ले जाता है।”

जब अजान खम्फान ने मे ची क्यु को यह सब समझाया, तो उन्होंने उसे आशीर्वाद भी दिया और मे ची के रूप में उसकी नई ज़िंदगी की शुरुआत को पवित्रता दी। इस तरह, मे ची क्यु ने अपने जीवन का सबसे बड़ा सपना पूरा कर लिया।


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