“मैंने अपने संकल्प की परीक्षा के लिए कई कठिनाइयाँ झेली हैं। कई दिन बिना खाए बिताए। कई रातें बिना सोए गुजारीं। धीरज ही मेरे मन का भोजन बन गया और परिश्रम ही मेरे सिर का तकिया।”
मे ची क्यु दुनिया से अलग होकर एकांत और आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश कर गईं। उनका सपना तो पूरा हो गया था, पर असली साधना की शुरुआत अब हुई थी। मे चियाँ विहार के उस भाग में रहती थीं, जो भिक्षुओं के निवास से ऊँचे और घने बाँसों के झुरमुटों से अलग किया गया था। मे ची क्यु को वहाँ एक छोटी सी झोपड़ी मिली थी, जो इतनी नई थी कि बाँस की उसकी दीवारें और फर्श अभी भी हरी और चमकदार थीं, और झोपडी का छप्पर घास से बना था।
मे ची डांग समुदाय की सबसे वरिष्ठ मे ची थीं। मे ची क्यु छह साल पहले भी वहाँ थीं, जब मे ची डांग ने उसी विहार में अपनी गंभीर प्रतिज्ञाएँ ली थीं। वे न सिर्फ पारिवारिक मित्र थीं, बल्कि उन्हें एक समर्पित और त्यागी साधिका के रूप में गहराई से सम्मानित किया जाता था। युवा मे चियाँ उन्हें अपना आदर्श मानती थीं।
मे ची यिंग के साथ — जिन्होंने मे ची डांग के कुछ समय बाद ही दीक्षा ली थी — मे ची डांग ने यह सुनिश्चित किया कि वाट नॉन्ग नॉन्ग की महिला साधिकाओं का छोटा सा समुदाय एकाग्रता और सामंजस्य में जीवन बिताए।
मे ची क्यु ने अपने नए जीवन की शुरुआत पहले ही दिन से ही शांत लय से किया। वे हर सुबह तीन बजे उठतीं, अपने चेहरे पर ठंडे पानी के छींटे डालकर नींद को दूर करतीं। फिर एक मोमबत्ती की लालटेन जलाकर वे अपनी झोपड़ी के पास बने ध्यान पथ पर चलना शुरू करतीं। हर कदम के साथ चुपचाप “बुद्…धो, बुद्…धो” दोहराते हुए वे अपनी इंद्रियों को भीतर की ओर मोड़तीं, और जब तक मन पूरी तरह जागृत न हो जाए, तब तक चलती रहतीं — फिर स्थिर होकर सीधा बैठकर ध्यान में लीन हो जातीं। सुबह होने पर जल्दी से मुख्य शाला में जाती और भिक्षुओं व मे चियों के साथ सुबह के सूत्रपठन में भाग लेती
जब सूत्रपठन समाप्त होता, तो भिक्षु और मे चियाँ कुछ समय तक शांत और चिंतनशील मौन में बैठे रहते। इसके बाद मे चियाँ खुले आँगन में बनी रसोई में इकट्ठा होती, जहाँ वे चावल पकाने और साधारण भोजन तैयार करने लगती, ताकि भिक्षुओं को उनके भिक्षा में प्राप्त होने वाले भोजन में सहयोग दिया जा सके। मे ची क्यु ने प्रसन्नता से रसोई के कार्यों में भाग लेती फिर मे चियों के साथ भोजन में सम्मिलित होती।
मे चियाँ भी भिक्षुओं की तरह दिन में केवल एक बार भोजन करती थीं। यह अभ्यास उनके ध्यानमय जीवन के अनुरूप था। कम और सीमित भोजन से ध्यान अधिक सहज होता है। अधिक खाने से मन भारी हो सकता है और भोजन के प्रति आकर्षण मन को विचलित कर सकता है। खाना पकाने और सफाई के काम निपट जाने के बाद, मे चियाँ पूरी तल्लीनता से ध्यान करती थीं। इससे शरीर और मन में स्फूर्ति आती थी, और फिर उन्हें दिन के शेष समय में भोजन की कोई चिंता नहीं रहती थी। इन साधारण कार्यों का ध्यानपूर्वक निर्वाह कर वे पूरे विहार के लोगों की भलाई में सहभागी बनती थीं।
हर दोपहर, शांत और सजग भाव से वे अपने निवासों से बाहर निकलतीं, हाथ में लचीली बाँस की लंबी झाड़ू लेतीं और झोपड़ियों के चारों ओर के रास्तों को साफ करतीं। फिर वे रसोई के क्षेत्र की सफाई करतीं, बर्तनों को सुव्यवस्थित रखतीं और अगली सुबह के लिए कुछ कच्चा चावल पानी में भिगो देतीं। वे चुपचाप कुएँ पर जाकर स्नान करतीं और अपने वस्त्र धोतीं। शाम होते ही, वे मुख्य शाला में भिक्षुओं के साथ शाम के सूत्रपठन में भाग लेने चली जातीं। जब तक बैठक समाप्त होती, अंधेरा हो चुका होता, तब वे मोमबत्तियाँ लेकर अपने कक्षों की ओर लौटतीं और वहाँ देर रात तक ध्यान में लीन रहतीं।
अपनी छोटी सी झोपड़ी में अकेली, मे ची क्यु गहरी एकाग्रता में प्रयासरत रही, ताकि वह अपनी पुरानी साधना की निपुणता को फिर से पा सके। वह चलने और बैठने के अभ्यास के बीच बारी-बारी से संघर्ष करती रही। अजान मन के मार्गदर्शन में अपने गाँव से निकलने के बीस साल बाद, उसने फिर से औपचारिक ध्यान शुरू किया था। इतने वर्षों में उसके गृहस्थ जीवन की कठोरताओं और जिम्मेदारियों ने उसके मन को असंख्य छोटी-छोटी चिंताओं से भर दिया था। लेकिन इन्हीं अनुभवों ने उसे यह भी सिखाया था कि प्रयास का क्या मूल्य है। इसलिए उसने अपने मन को थाम लिया और साधना में जुट गई। जैसे कोई किसान अपने खेत में निरंतर बिना रुके हल चलाता है। मे ची क्यु को हमेशा से पता था कि धैर्य और लगन से कैसे काम किया जाता है। ये गुण उसके भरोसेमंद साथी थे।
जब उसने अपने सांसारिक जीवन को पीछे छोड़ दिया और अपने ध्यान को ही अपने कार्य का केंद्र बना लिया, तो वह तेज़ी से उस मार्ग पर आगे बढ़ने लगी। एक रात, जब वह ध्यान में बैठी थी, चारों ओर गहरी शांति थी, उसी क्षण अचानक उसे लगा मानो उसका शरीर और मन कहीं नीचे गिर रहे हों, जैसे किसी खड़ी चट्टान से या गहरे कुएँ में। फिर सब कुछ एकदम शांत हो गया।
उसकी चेतना में कुछ दर्ज नहीं हुआ — बस एक जागरूकता थी, जो इतनी गहरी और जीवंत थी कि वह शरीर और मन दोनों से परे थी। यह अनुभव कुछ ही पल चला — पूर्ण शांति का क्षण। जब वह उससे बाहर आई, तो उसका मन तेज और अत्यंत स्पष्ट था। उसे महसूस हुआ कि उसने कोई खोया हुआ अमूल्य खजाना फिर से पा लिया है। धीरे-धीरे उस गहरी समाधि की अवस्था से बाहर आते हुए, मे ची क्यु ने अपने हृदय में एक अजीब, अपरिचित दृश्य को खुलता हुआ पाया — जैसे वह किसी स्वप्न के भीतर अचानक जाग गई हो। कहीं से एक भूत जैसी आकृति प्रकट हुई, जिसका सिर शरीर से कटा हुआ था। वह धीरे-धीरे तैरती हुई उसके सामने आई। भयभीत होकर, मे ची क्यु ने देखा कि उस सिरहीन आकृति की छाती के बीचोंबीच एक जलता हुआ गोल नेत्र था — एक लाल-गर्म गोला, जो सीधी, तीव्र क्रूरता से उसकी ओर घूर रहा था।
वह खतरा महसूस कर रही थी और बिल्कुल भी तैयार नहीं थी। उसने वहाँ से भागने की इच्छा की। उसकी एकाग्रता डगमगाने लगी, और साथ ही डर और भ्रम भी बढ़ने लगे। जैसे-जैसे उसका डर गहराता गया, वह भूत और भी डरावना और शक्तिशाली होता गया — मानो उसके भय से ही वह अपनी ताकत पा रहा हो। मे ची क्यु का मन घबराहट से भर गया। तभी, अचानक, उसे अजान मन की एक बात याद आई — “डर से कभी भागो मत, बल्कि उसे सजगता और स्पष्ट समझ से देखो।” उस स्मरण ने उसे भीतर से झकझोर दिया।
एक गहरी, शांत जागरूकता फिर से उसके भीतर जाग उठी, और उसने अपने मन को वर्तमान क्षण में स्थिर कर लिया। उस क्षण में केवल शुद्ध अनुभव था — न जोड़, न घटाव। उसने अपना ध्यान उस तेजी से धड़कते भयभीत दिल पर केंद्रित किया, और उस डरावनी छवि से ध्यान हटा लिया। जैसे-जैसे उसका ध्यान भीतर स्थिर हुआ, उसका भय धीरे-धीरे कम होता गया और फिर पूरी तरह शांत हो गया। और उसी के साथ, वह भयानक प्रेत भी धीरे-धीरे फीका पड़ गया और अंततः विलीन हो गया।
समाधि से बाहर आकर और सामान्य चेतना में लौटकर, मे ची क्यु ने ध्यान में उठे भय और उसके वास्तविक स्वरूप पर गहराई से विचार किया। उसने सहज रूप से अनुभव किया कि वास्तविक खतरा कोई बाहरी दृश्य नहीं, बल्कि स्वयं भय ही है। ध्यान में दिखाई देने वाली छवियाँ केवल मन की घटनाएँ हैं — उनमें स्वयं की कोई शक्ति नहीं होती कि वे शरीर या मन को नुकसान पहुँचा सकें। वे न तो अच्छी होती हैं, न बुरी; बस तटस्थ होती हैं। असल मायने तो मन की व्याख्या में छिपे होते हैं — वही व्याख्या उन्हें अर्थ देती है और वही उन्हें भयावह या शांतिपूर्ण बनाती है।
अगर मन डर या घृणा से प्रतिक्रिया करता है, तो वह खुद को ज़हरीली और असंतुलित भावनाओं से भर लेता है — जिससे उसकी स्थिरता डगमगा जाती है। जब कोई व्यक्ति केवल डरावनी छवि पर ध्यान देता है, तो वह डर बढ़ता है। लेकिन जब ध्यान डर पर केन्द्रित होता है, न कि उस छवि पर, तब व्यक्ति वर्तमान क्षण में लौट आता है — जहाँ डर और छवि साथ-साथ टिक नहीं सकते।
मे ची क्यु ने उस क्षण यह गहरी अंतर्दृष्टि(प्रज्ञा) प्राप्त किया कि ध्यान में उसे नुकसान पहुँचाने वाली एकमात्र चीज़ है — अनियंत्रित भय।
अजान मन द्वारा सिखाया गया ध्यान अभ्यास बाहर से जितना सरल दिखता था — बुद्धो का लयबद्ध अभ्यास — भीतर से उतना ही चुनौतीपूर्ण था। वर्षों की उपेक्षा के बाद, एक ही वस्तु पर निरंतर ध्यान केंद्रित करना बहुत कठिन लगने लगा। उसे लगा जैसे शरीर और मन एक-दूसरे के विरुद्ध खिंच रहे हों। मन कुछ चाहता था, शरीर कुछ और। वह इस असंगति से जूझ रही थी। उसने महसूस किया कि बहुत अधिक भोजन सुस्ती लाता है, जबकि बहुत कम भोजन भ्रमित सोच को बढ़ाता है। उसने गहराई से सोचा कि भोजन और विश्राम, चलने और बैठने, संघ में रहकर और अकेले साधना करने — इन सभी के बीच संतुलन कैसे साधा जाए। और सबसे बढ़कर, उसने सोचा कि हर पल — चाहे वह किसी भी परिस्थिति में क्यों न हो — उस क्षण में सजगता को किस प्रकार बनाए रखा जाए। यही उसका नया अभ्यास बन गया: पल-पल में जागरूक रहना।
मे ची क्यु ने अपनी साधना को गहराई देने के लिए कई दिनों तक उपवास करने का प्रयोग किया। लेकिन शीघ्र ही उसने अनुभव किया कि भोजन की कमी से उसका मन बोझिल और सुस्त हो गया है। उसका मूड अस्थिर रहने लगा, और मनमौजी विचारों की धाराएँ उभरने लगीं — मानो उसकी भीतर की आध्यात्मिक ऊर्जा रुक गई हो। इस सूक्ष्म अवरोध ने उसके ध्यान की तीव्रता को भी धीमा कर दिया।
उसे यह ज्ञात था कि अजान मन के संरक्षण में कई भिक्षुओं ने उपवास को आध्यात्मिक प्रगति का एक प्रभावशाली साधन पाया था। वे भूख और शारीरिक बेचैनी को सहन करते हुए ध्यान की गहराई तक पहुँचते थे — उपवास से उनकी सजगता बढ़ती थी, मन दृढ़ होता था, और एकाग्रता तेज होती थी। लेकिन मे ची क्यु का अनुभव अलग रहा। उसका मन इस प्रयोग से सकारात्मक रूप में प्रभावित नहीं हुआ। अंततः उसने यह समझ लिया कि उपवास उसके स्वभाव और शरीर के अनुकूल नहीं है, और उसने उसे छोड़ दिया।
हालाँकि, नींद का त्याग उसके लिए एक अलग अनुभव लेकर आया। अपने एकांतवास के दूसरे महीने में उसने ज़्यादातर समय तीन ही मुद्राओं में बिताया — बैठना, खड़ा रहना और चलना। उसने बिल्कुल भी लेटना नहीं चुना। उसने “बैठकर साधना करना” के रूप में एक नया प्रयोग शुरू किया। एक ऐसा तरीका जो उसकी सहज प्रवृत्तियों और शक्तियों के साथ मेल खाता था। तथा ध्यान को प्रखर बनाने में मदद करता था। उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि नींद से दूर रहने पर उसका मन और अधिक उज्ज्वल और धारदार हो गया — इतना शांत, स्थिर, सजग और सतर्क कि उसने बिना लेटे लगातार इक्कीस दिन तक अभ्यास किया।
नींद न आने के हर दिन के साथ, मे ची क्यु का ध्यान और गहराता गया और भीतर एक अटूट आत्मविश्वास जन्म लेने लगा। उसकी तीव्र आध्यात्मिक क्षमताएँ और भी तेज होती गईं, जिससे वह पहले से अधिक साहसी और निर्भीक बन गई। यह उसके स्वभाव के साहसिक और खोजी पक्ष के बिल्कुल अनुकूल था। अब उसके असामान्य अनुभव और भी अधिक स्पष्ट, लगातार और असाधारण होने लगे: कभी वह आने वाली घटनाओं की झलक पाती, तो कभी सूक्ष्म जगत की अनुभूति होती; और कई बार उसे बुद्ध की शिक्षाओं के गहरे और सूक्ष्म सत्य स्वतः प्रकट होते।
एक रात, गहरी समाधि से बाहर निकलते समय, मे ची क्यु ने स्वयं अपने शरीर को एक विचित्र दृश्य में देखा। उसका शरीर अब चेतना रहित था, जैसे किसी बुनकर के करघे पर लटका पड़ा हो। सड़न की अवस्था में वह शरीर फूला हुआ, रंगहीन और फटी हुई त्वचा से रिसते मवाद से सना हुआ था। मोटे, चिकने कीड़े उस सड़े मांस को खा रहे थे। इस भयावह और स्पष्ट चित्र ने उसे चौंका दिया और एक क्षण के लिए भय की लहर दौड़ गई।
उसी क्षण, उसे एक परिचित उपस्थिति का आभास हुआ। मानो अजान मन उसके पीछे खड़े हो तथा उसके कंधे के ऊपर से उस दृश्य को देख रहे हों। उनका शांत स्वर उसके भीतर गूंजा, उन्होंने उसे सादगी से स्मरण कराया कि मृत्यु जन्म का स्वाभाविक और अनिवार्य परिणाम है। जो भी इस संसार में जन्म लेता है, वह अंततः मरेगा, उसका शरीर टूटेगा, सड़ेगा और प्रकृति के मूल तत्वों में विलीन हो जाएगा। उन्होंने उसे यह भी याद दिलाया कि यह परिवर्तनशीलता, यह विनाश और नश्वरता ही ब्रह्मांड की मूल प्रकृति है — हर चीज़ अस्थायी है, बदलती है और अंततः नष्ट हो जाती है।
“हम मृत्यु के इतने निकट रहते हैं,” अजान मन का स्वर उसके भीतर स्पष्ट हुआ, “फिर भी हम शायद ही कभी इसके बारे में सोचते हैं।”
फिर उन्होंने मे ची क्यु को यह निर्देश दिया कि अब समय आ गया है — वह अपने जन्म, बुढ़ापे, बीमारी और मृत्यु के विषय में गहराई से चिंतन करना शुरू करे, और इन चार महान सत्यों को अपनी साधना का केंद्र बनाए।