नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

“सच्चे अर्थों में एक मे ची बनें। आप सांसारिक जीवन की बदबूदार गंदगी में घुल-मिलकर अपने पवित्र संकल्प को दूषित नहीं करना चाहेंगी। इसलिए, त्याग चुकी अपने घर और परिवार की लालसा में पीछे मुड़कर न देखें।”

अध्याय नौ

एक भँवर में फँसना

छोटी क्यु ने बरसात के महीनों में घर के कामों और अपने चचेरे भाइयों के साथ खेलने में समय बिताया। वह एक खुशमिजाज और चंचल बच्ची थी, लेकिन उसे अपनी माँ की शांति देने वाली उपस्थिति की बहुत कमी महसूस होती थी। वह अपने पिता, बनमा, को प्रसन्न करने के लिए जी-जान से कोशिश करती, लेकिन वे अक्सर किसी अंदरूनी बेचैनी से व्याकुल दिखते। वे सुबह जल्दी घर से निकल जाते और देर रात को लौटते।

उपोसथ के दिनों में, छोटी क्यु महिलाओं के साथ वाट नॉन्ग नॉन्ग जाती और अपनी माँ के पास बैठकर घर के बारे में बातें करती। उसकी कही बातों से मे ची क्यु को चिंता होने लगी। क्यु ने बताया कि उसके पिता अक्सर घर से गायब रहते हैं और लौटने पर नशे में लगते हैं। यह जानकर मे ची क्यु ने निश्चय किया कि अपनी बेटी के लिए उसे कभी-कभी घर जाकर सहायता और निगरानी करनी चाहिए।

जब वह घर पहुँची, तो सबसे पहले पति की अनुपस्थिति ने उसे झकझोर दिया। पूरे दिन वह घर की सफाई, कपड़े धोने और क्यु के लिए भोजन तैयार करने में लगी रही। लेकिन बनमा दिखाई नहीं दिए। अपने एकांतवास के अंतिम महीने में मे ची क्यु ने सप्ताह में एक बार घर आना शुरू किया, लेकिन एक बार भी उन्हें नहीं देख पाई। फिर अफवाहें उसके कानों तक पहुँचीं—कहा गया कि बनमा का एक युवा विधवा से संबंध है, जिसके दो बच्चे हैं। यह भी बताया गया कि वह उसकी अनुपस्थिति में शराब पीने और इधर उधर भटकने लगा हैं।

मे ची क्यु के मन में अब अपने पति के प्रति घृणा भर गई थी। वह विवाह से थक चुकी थी और एक साधना-भरा जीवन जीने का निश्चय कर चुकी थी। अब घर लौटने का विचार ही उसे असहनीय लगने लगा था। यद्यपि वह नैतिक रूप से अपने वैवाहिक व्रत के प्रति प्रतिबद्ध थी, लेकिन उसके पति ने जिस तरह नैतिकता की बुनियादी सीमाओं का उल्लंघन किया, उससे यह संबंध टिके रहने की नींव खो बैठा।

जैसे-जैसे शिविर अपने अंतिम चरण में पहुँच रहा था, मे ची क्यु के भीतर एक द्वंद्व गहराता जा रहा था। एक ओर, वह विवाह की पुरानी ज़िंदगी में लौटने की कल्पना मात्र से असहज थी; वहाँ अब उसके लिए प्रेम, सम्मान या शांति का कोई स्थान नहीं बचा था। लेकिन दूसरी ओर, उसकी दस वर्षीया बेटी क्यु, उसका दिल और उसका धर्म, उसे खींचता था। मे ची क्यु जानती थी कि वह क्यु को अकेले नहीं छोड़ सकती। उसका मार्गदर्शन करना, उसे स्नेह और सुरक्षा देना उसकी ज़िम्मेदारी थी। लेकिन वह यह भी जानती थी कि क्यु अभी इतनी बड़ी नहीं हुई थी कि वह माँ के साथ विहार में रह सके, और मे ची जीवन की कठिन साधना को समझ या निभा सके। इसके अलावा, त्याग के अपने व्रत के कारण मे ची क्यु के पास अब कोई धन, कोई संपत्ति, कोई साधन नहीं था। उसकी मे ची अवस्था उसे केवल एक व्यक्ति के लिए दैनिक आहार तक सीमित रखती थी। किसी और का भरण-पोषण करना उसके लिए संभव नहीं था।

इन गहन उलझनों और असमंजस से जूझते हुए, कई हफ्तों की मौन सोच और गहन आत्ममंथन के बाद, मे ची क्यु के भीतर एक नया विचार धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगा—क्या वह दोनों दुनियाओं के बीच एक पुल नहीं बना सकती? क्या वह दिन के उजाले में एक गृहिणी बनकर माँ की भूमिका निभा सकती है, और रात की शांति में विहारवासी साधना में लौट सकती है?

यह विचार असाधारण था। ऐसा जीवन किसी ने पहले नहीं जिया था। यह न तो पूर्णतः गृहस्थ था और न ही पूर्णतः विहारवासी। यह एक पुल था, एक प्रयोग। लेकिन मे ची क्यु के लिए यह केवल एक विचार नहीं था—यह उसकी बेटी के प्रति करुणा और अपने स्वयं के निर्वाण-पथ की गूंज थी। और वह इसे आज़माने के लिए तैयार थी—हाँ, शायद बेताब भी।

जैसा कि तय हुआ था, मे ची क्यू वर्षावास की अंतिम तिथि पर अपने घर लौट गईं। लेकिन उन्होंने अपने सफेद वस्त्र नहीं उतारे थे, न ही उन्होंने अपने संन्यास के संकल्प छोड़े थे। वे अब भी एक विधिवत उपासिका थीं, लेकिन उन्होंने अपने सफेद वस्त्रों के ऊपर एक काले रंग की स्कर्ट और ब्लाउज़ पहन लिया था, ताकि अपने वास्तविक इरादों को छिपा सकें।

सुबह और दोपहर का समय उन्होंने क्यू के साथ घर के कामकाज में बिताया और रात के भोजन की तैयारी की। उनका इरादा था कि वे परिवार को खाना परोसकर सूर्यास्त से पहले विहार लौट जाएँ। जब क्यू और बुनमा खाने बैठे, तो उन्होंने खाना परोसा, लेकिन स्वयं नहीं खाईं, क्योंकि वे दोपहर के बाद भोजन न करने की मे ची परंपरा का पालन कर रही थीं। मे ची क्यू का यह शील उनके पति की नाराज़गी का कारण बन गया। उन्होंने इसका कारण पूछा और ज़ोर देकर कहा कि वे बैठकर खाना खाएँ। जब मे ची क्यू ने मना कर दिया, तो बुनमा क्रोध में उठे और उनका हाथ पकड़ने की कोशिश की। मे ची क्यू झटके से पीछे हटीं और सीढ़ियों से उतरकर घर से दूर भाग गईं। बुनमा उनके पीछे भागे, लेकिन मे ची क्यू के बड़े भाई ‘पीइन’ ने उन्हें रोक लिया और समझाया कि उन्हें जाने दिया जाए। गुस्से से भरे बुनमा चिल्लाए कि अब उनका विवाह समाप्त हो चुका है। उन्होंने पीछे से चिल्लाकर कहा कि अगर मे ची क्यू को किसी चीज़ पर अधिकार चाहिए, तो वे ज़िले की अदालत में मुकदमा कर सकती हैं। मे ची क्यू संध्या के समय गांव से दौड़ती हुई गयी। उनको लगा कि उनके सांसारिक जीवन का दुख और क्लेश भीतर से थका चुका था। उसी क्षण उन्होंने निश्चय कर लिया कि वे अब कभी गृहस्थ जीवन में नहीं लौटेंगी।

जब वे विहार पहुँचीं, तो सब लोग उनके लिए चिंतित थे। जब उन्होंने सारी घटना बताई, तो वहाँ की वरिष्ठ मे ची डैंग ने डाँटते हुए कहा: “पति के पास वापस जाकर तुमने क्या पाया? तूने तो जैसे साँप के बिल में हाथ डाल दिया। आग में हाथ डालोगी, तो चाहे जलो या नहीं, नाम ज़रूर खराब होगा।”

मे ची क्यू सोचने लगीं कि क्या उन्हें अपने पति से पूरी तरह संबंध तोड़ देना चाहिए। लेकिन उनके भाइयों ने सलाह दी कि वे पहले पति के साथ अपने सभी संबंधों का औपचारिक रूप से निपटारा कर लें। इस सलाह को मानते हुए, कुछ दिन बाद वे फिर घर गईं। लेकिन बुनमा अब भी किसी समझौते को तैयार नहीं थे। उन्होंने दावा किया कि विवाह के बाद जो कुछ भी मे ची क्यू ने पाया, वह सब उनका है। केवल माता-पिता से मिली वस्तुओं का ही निपटारा बाकी था। पर मे ची क्यू पहले ही संसार और उसकी चीज़ों को त्याग चुकी थीं। उन्हें अपने सारे सामान को बुनमा को दे देना सहज और संतोषजनक लगा। उन्होंने बदले में कुछ नहीं माँगा, सिवाय एक छोटी सी सुपारी काटने वाली छुरी के, जो वह हमेशा से इस्तेमाल करती थीं। लेकिन बुनमा ने तुरंत कहा कि यह छुरी भी विवाह के बाद की है, इसलिए वह भी उनकी ही मानी जाएगी। इस अंतिम अपमान के साथ मे ची क्यू ने पूरी तरह से घरेलू जीवन से मुँह मोड़ लिया और एक भी सांसारिक वस्तु अपने पास नहीं रखी।

समझौता तय हो जाने के बाद, मे चे क्यू ने अपनी बेटी से एकांत में बात की। बहुत ध्यान और प्यार से, उन्होंने छोटी क्यू को वे सब बातें बताईं जो उनके जीवन को बदल रही थीं, और उससे धैर्य और समझदारी की प्रार्थना की। जब छोटी क्यू को यह पता चला कि उनकी माँ अब हमेशा के लिए घर छोड़कर में ची का जीवन अपनाने जा रही हैं, तो वह अपने बचपन की मासूमियत से माँ से यह विनती करने लगी कि वह भी माँ के साथ विहार में जाकर रहे। मे ची क्यू का हृदय इस विनती से भर आया, लेकिन उन्होंने बेटी को समझाया कि एक मे ची का जीवन बहुत ही सादा और कठोर होता है। उन्होंने कहा कि अब उन्होंने अपनी सारी संपत्ति उसके पिता को दे दी है, इसलिए अब उनके पास अपनी बेटी की ठीक से देखभाल करने के साधन नहीं हैं। और वैसे भी, विहार बच्चों को पालने की जगह नहीं है।

मे ची क्यू ने कोमलता लेकिन दृढ़ता से अपनी बेटी से कहा कि अभी वह अपने पिता के साथ ही रहे। उन्होंने समझाया कि उसके पिता के पास उसे अच्छी तरह से पालने के सभी संसाधन हैं, और उनकी संपत्ति भी भविष्य में उसकी ही होगी। मे ची क्यू ने उसे यह आश्वासन भी दिया कि जब वह बड़ी हो जाएगी और फिर भी माँ के साथ रहना चाहेगी, तो वह उसे खुले दिल से अपनाएंगी और जीवनभर उसकी आध्यात्मिक मार्गदर्शिका बनेंगी। छोटी क्यू ने माँ की बातों को अंततः मान लिया—मन में दुख जरूर था, लेकिन उसने आज्ञा मानी।

मे ची क्यू चुपचाप और सोच में डूबी विहार की ओर लौटने लगीं। रास्ते भर वह इस फैसले के बारे में सोचती रहीं कि क्या परिवार और मित्रों से हमेशा के लिए दूर जाना सही था। अंत में उनका मन एक ही बात पर आकर ठहर गया—राजकुमार सिद्धार्थ की याद, जिन्होंने अपने पत्नी, पुत्र और राजसिंहासन को छोड़कर निर्वाण की खोज में निकल पड़े थे। उन्होंने अपने माता-पिता के कर्तव्यों को भी त्यागा, लेकिन वह त्याग एक बहुत ही महान लक्ष्य के लिए था—धम्म के सत्य को पूरी तरह से जानकर जन्म और मृत्यु के चक्र को सदा के लिए समाप्त करना। भगवान बुद्ध ने जब पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया, तब उनका त्याग सभी सांसारिक बातों से ऊपर उठ गया। उन्होंने स्वयं को तो दुखों से मुक्त किया ही, अनगिनत जीवों को भी वही राह दिखाई।

अब मे ची क्यू के मन में भी यही अंतिम लक्ष्य एकदम स्पष्ट और अटल हो गया था—बुद्ध के पदचिह्नों पर चलकर उसी मुक्ति की ओर बढ़ना।


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