नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 पाथिक सुत्त

सूत्र विवेचना

यह सूत्र सुनक्खत नामक लिच्छवि भिक्षु के आध्यात्मिक पतन को उजागर करता है। सुनक्खत की कथा की शुरुआत, दरअसल, मज्झिमनिकाय १०५: सुनक्खत सुत्त में होती है, जहाँ उसने पहली बार भगवान से मुलाक़ात की थी। फिर दीघनिकाय ६: महालि सूत्र में सुनक्खत भिक्षु के समाधि से उत्पन्न सीमित ज्ञान-ऋद्धि का उत्तर भगवान ओट्ठद्ध लिच्छवी को प्रदान करते हैं।

सुनक्खत ने तीन वर्षों तक भगवान के ब्रह्मचर्य का पालन किया, लेकिन बाद में निराश होकर चीवर उतारकर बुद्ध, धर्म और संघ को नकारने लगा। यह सूत्र और मज्झिमनिकाय १२ उसकी आलोचनाओं का कड़ा प्रतिवाद करते हैं। किन्तु, यह सूत्र प्राचीन बौद्ध सादगी से विपरीत, सार्वजनिक तमाशा खड़ा करता है, और अनेक हिस्सों में अपनी वैधता साबित करने के लिए संघर्ष करता है।

नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स

Hindi

१. सुनक्खत कथा

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान मल्लों के साथ अनुपिय नामक मल्ल-नगर में विहार कर रहे थे। तब सुबह होने पर भगवान ने चीवर ओढ़, पात्र लेकर, अनुपिय में भिक्षाटन करने गए। तब भगवान को लगा, “अभी अनुपिय में भिक्षाटन करना बहुत जल्दी होगा। क्यों न जहाँ भग्गव [=भार्गव] गोत्र घुमक्कड़ का आश्रम है, मैं वहाँ भग्गव-गोत्र घुमक्कड़ के पास जाऊँ?”

तब जहाँ भग्गव-गोत्र घुमक्कड़ का आश्रम था, भगवान वहाँ भग्गव-गोत्र घुमक्कड़ के पास गए। तब भग्गव-गोत्र घुमक्कड़ ने भगवान से कहा, “भंते, भगवान पधारे! भंते, भगवान का स्वागत है! बहुत दिनों के बाद, भंते, भगवान को यहाँ आने का अवसर मिला। बैठिए, भंते, भगवान के लिए यह आसन बिछा है।”

भगवान बिछे आसन पर बैठ गए। भग्गव-गोत्र के घुमक्कड़ ने अपने आसन नीचे लगाया, और एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर भग्गव-गोत्र घुमक्कड़ ने भगवान से कहा, “कुछ दिनों पहले, भंते, सुनक्खत लिच्छविपुत्र मेरे पास आया था, और आकर मुझे कहा, ‘भग्गव, मैंने भगवान को छोड़ दिया है। अब मैं भगवान के उद्देश्य से विहार नहीं करता हूँ।’ भंते, जो सुनक्खत लिच्छविपुत्र ने कहा, क्या वह सच है?”

“सच है, भग्गव, जो सुनक्खत लिच्छविपुत्र ने कहा। कुछ दिनों पहले, भग्गव, सुनक्खत लिच्छविपुत्र मेरे पास आया, और आकर अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर सुनक्खत लिच्छविपुत्र ने मुझे कहा, ‘भंते, मैंने भगवान को छोड़ दिया है। अब मैं भगवान के उद्देश्य से विहार नहीं करूँगा।’

ऐसा कहे जाने पर, भग्गव, मैंने सुनक्खत लिच्छविपुत्र से कहा, “किन्तु, सुनक्खत, क्या मैंने कभी तुमसे कहा कि ‘आओ, सुनक्खत, मेरे उद्देश्य से विहार करो’?” 1

“नहीं, भंते!”

“अथवा, क्या तुमने कभी मुझसे कहा कि ‘मैं, भंते, भगवान के उद्देश्य से विहार करूँगा’?”

“नहीं, भंते!”

“जब, सुनक्खत, न मैंने तुमसे कभी कहा कि ‘आओ, सुनक्खत, मेरे उद्देश्य से विहार करो’, न ही तुमने कभी मुझसे कहा कि ‘भंते, मैं भगवान के उद्देश्य से विहार करूँगा’, तब, नालायक, तुम कौन हो, और क्या छोड़ रहे हो? देखो, नालायक, तुम ही कितना भटक गए हो।”

“किन्तु, भंते, भगवान कभी मेरे लिए अलौकिक ऋद्धि चमत्कार नहीं दिखाते है।”

“किन्तु, सुनक्खत, क्या मैंने कभी तुमसे कहा कि ‘आओ, सुनक्खत, मेरे उद्देश्य से विहार करो, तब मैं तुम्हारे लिए अलौकिक ऋद्धि चमत्कार दिखाऊँगा’?”

“नहीं, भंते।”

“अथवा, क्या तुमने कभी मुझसे कहा कि ‘भंते, मैं भगवान के उद्देश्य से विहार करूँगा, तब भगवान मेरे लिए अलौकिक ऋद्धि चमत्कार दिखाएंगे’?”

“नहीं, भंते।”

“जब, सुनक्खत, न मैंने तुमसे कभी कहा कि ‘आओ, सुनक्खत, मेरे उद्देश्य से विहार करो, तब मैं तुम्हारे लिए अलौकिक ऋद्धि चमत्कार दिखाऊँगा’, न ही तुमने कभी मुझसे कहा कि ‘भंते, मैं भगवान के उद्देश्य से विहार करूँगा, तब भगवान मेरे लिए अलौकिक ऋद्धि चमत्कार दिखाएंगे’, तब, नालायक, तुम कौन हो, और क्या छोड़ रहे हो? देखो, नालायक, तुम ही कितना भटक गए हो।

तुम्हें क्या लगता है, सुनक्खत? चाहे कोई अलौकिक ऋद्धि चमत्कार दिखाए या न दिखाए, क्या मेरे उपदेशित धर्म की साधना किसी को दुःखों के सम्यक क्षय की ओर ले जाती है?”

“हाँ, भंते, चाहे कोई अलौकिक ऋद्धि चमत्कार दिखाए या न दिखाए, किन्तु भगवान के उपदेशित धर्म की साधना किसी को दुःखों के सम्यक क्षय की ओर ले जाती है।”

“जब, सुनक्खत, चाहे कोई अलौकिक ऋद्धि चमत्कार दिखाए या न दिखाए, मेरे उपदेशित धर्म की साधना किसी को दुःखों के सम्यक क्षय की ओर ले जाती है, तब, नालायक, अलौकिक ऋद्धि चमत्कार दिखाने का क्या अर्थ है? देखो, नालायक, तुम ही कितना भटक गए हो।”

“किन्तु, भंते, भगवान मुझे दुनिया की शुरुवात [“अग्गञ्ञ”] 2 नहीं समझाते है।”

“किन्तु, सुनक्खत, क्या मैंने कभी तुमसे कहा कि ‘आओ, सुनक्खत, मेरे उद्देश्य से विहार करो, तब मैं तुम्हें दुनिया की शुरुवात समझाऊंगा’?”

“नहीं, भंते।”

“अथवा, क्या तुमने कभी मुझसे कहा कि ‘भंते, मैं भगवान के उद्देश्य से विहार करूँगा, तब भगवान मुझे दुनिया की शुरुवात समझाएंगे’?”

“नहीं, भंते।”

“जब, सुनक्खत, न मैंने तुमसे कभी कहा कि ‘आओ, सुनक्खत, मेरे उद्देश्य से विहार करो, तब मैं तुम्हें दुनिया की शुरुवात समझाऊंगा’, न ही तुमने कभी मुझसे कहा कि ‘भंते, मैं भगवान के उद्देश्य से विहार करूँगा, तब भगवान मुझे दुनिया की शुरुवात समझाएंगे’, तब, नालायक, तुम कौन हो, और क्या छोड़ रहे हो? देखो, नालायक, तुम ही कितना भटक गए हो।

तुम्हें क्या लगता है, सुनक्खत? चाहे दुनिया की शुरुवात का वर्णन हो न हो, क्या मेरे उपदेशित धर्म की साधना किसी को दुःखों के सम्यक क्षय की ओर ले जाती है?”

“हाँ, भंते, चाहे दुनिया की शुरुवात का वर्णन हो न हो, भगवान के उपदेशित धर्म की साधना किसी को दुःखों के सम्यक क्षय की ओर ले जाती है।”

“जब, सुनक्खत, चाहे दुनिया की शुरुवात का वर्णन हो न हो, मेरे उपदेशित धर्म की साधना किसी को दुःखों के सम्यक क्षय की ओर ले जाती है, तब, नालायक, दुनिया की शुरुवात समझाने का क्या अर्थ है? देखो, नालायक, तुम ही कितना भटक गए हो।

सुनक्खत, तुमने तरह-तरह से वज्जी गाँव में मेरी प्रशंसा की — “वाकई भगवान ही अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध है — विद्या और आचरण में संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता और मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त!”

और, सुनक्खत, तुमने तरह-तरह से वज्जी गाँव में धर्म की प्रशंसा की — “वाकई भगवान का धर्म स्पष्ट बताया है, तुरंत दिखता है, कालातीत है, आजमाने योग्य, परे ले जाने वाला, समझदार द्वारा अनुभव योग्य!”

और, सुनक्खत, तुमने तरह-तरह से वज्जी गाँव में संघ की प्रशंसा की — “वाकई भगवान का श्रावकसंघ सुमार्ग पर चलता है, सीधे मार्ग पर चलता है, यथार्थ मार्ग पर चलता है, उचित मार्ग पर चलता है। चार जोड़ी में, आठ प्रकार के आर्यजन — यही भगवान का श्रावकसंघ है — उपहार योग्य, सत्कार योग्य, दक्षिणा योग्य, वंदना योग्य, दुनिया के लिए अनुत्तर पुण्यक्षेत्र!” इस तरह, सुनक्खत, तुमने तरह-तरह से वज्जी गाँव में मेरी, धर्म की, और संघ की प्रशंसा की है।

मैं तुम्हें सूचित करता हूँ, सुनक्खत, मैं घोषित करता हूँ। लोग ऐसे ही कहेंगे कि सुनक्खत लिच्छविपुत्र श्रमण गौतम का ब्रह्मचर्य पालन न कर सका, इसलिए शिक्षा छोड़कर हीन-जीवन में लौट गया। लोग ऐसे ही कहेंगे, सुनक्खत।

इस तरह, भग्गव, मैंने सुनक्खत लिच्छविपुत्र से कहा, तब भी उसने इस धर्म-विनय को छोड़ दिया, मानो कोई नर्क के मार्ग पर हो।”

२. कोरक्षत्रिय कथा

“एक समय, भग्गव, मैं थूलू [=कुरु 3] देश में ‘उत्तरका’ नामक थूलू-नगर में विहार कर रहा था। तब सुबह होने पर मैंने चीवर ओढ़, पात्र लेकर, सुनक्खत लिच्छविपुत्र को साथ लेकर उत्तरका में भिक्षाटन करने गया। उस समय निर्वस्त्र [=नंगा साधू] कोरक्षत्रिय ‘कुत्ता-व्रतिक’ [=कुत्ते जैसा जीवन व्यतीत करने का व्रत], जो अपने चारों हाथ-पैरों पर बैठकर, जमीन पर फेंका हुआ भोजन मुँह लगाकर खा रहा था, मुँह लगाकर भोजन कर रहा था।

सुनक्खत लिच्छविपुत्र ने उस निर्वस्त्र कोरक्षत्रिय कुत्ता-व्रतिक को अपने चारों हाथ-पैरों पर बैठकर, जमीन पर फेंका हुआ भोजन मुँह लगाकर खाते हुए, मुँह लगाकर भोजन करते हुए देखा। देखकर उसे लगा, “यह श्रमण असली साधू है, जो अपने चारों हाथ-पैरों पर बैठकर, जमीन पर फेंका हुआ भोजन मुँह लगाकर खाता है, मुँह लगाकर भोजन करता है।”

तब, भग्गव, मैंने अपने चित्त से सुनक्खत लिच्छविपुत्र के चित्त में चल रही बात जान ली, और उससे कहा, “नालायक, तुम खुद को ‘शाक्यपुत्र श्रमण’ समझते हो ना?”

“किन्तु, भंते, क्यों भगवान ने मुझे ऐसा कहा कि ‘नालायक, तुम खुद को ‘शाक्यपुत्र श्रमण’ समझते हो ना’?”

“जब तुमने उस निर्वस्त्र कोरक्षत्रिय कुत्ता-व्रतिक को अपने चारों हाथ-पैरों पर बैठकर, जमीन पर फेंका हुआ भोजन मुँह लगाकर खाते हुए, मुँह लगाकर भोजन करते हुए देखा, तो तुम्हें ऐसा लगा ना कि ‘यह श्रमण असली साधू है, जो अपने चारों हाथ-पैरों पर बैठकर, जमीन पर फेंका हुआ भोजन मुँह लगाकर खाता है, मुँह लगाकर भोजन करता है।’

“हाँ, भंते। किन्तु, भगवान क्यों अरहंत से ईर्ष्या करते है?”

“नालायक, मैं अरहंत से ईर्ष्या नहीं करता। बल्कि तुम्हें जो पापी मिथ्या-धारणा उत्पन्न हुई है, उसे छोड़ो। अपने दीर्घकाल के लिए अहित और दुःख मत खड़ा करो। और, सुनक्खत, जिस निर्वस्त्र कोरक्षत्रिय को तुम ‘असली साधू श्रमण’ मान रहे हो, वह सात दिन में अलसक रोग [=वात से पेट फूलना] से मरने वाला है। और, जब वह मरेगा तो ‘कालकञ्चिक’ नामक जो सबसे हीन असुर-काया होती है, वहाँ उत्पन्न होगा। और, जब वह मरेगा तो लोग उसे बीरण [पेड़] की झूरमुट वाले श्मशान में फेंक देंगे।

यदि चाहते हो, सुनक्खत, तो उस निर्वस्त्र कोरक्षत्रिय के पास जाओ, और पुछो ‘मित्र कोरक्षत्रिय, क्या तुम अपनी गति जानते हो?’ हो सकता है, सुनक्खत, कि वह कहे, ‘मित्र सुनक्खत, मैं अपनी गति जानता हूँ। कालकञ्चिक नामक जो सबसे हीन असुर-काया होती है, मैं वहाँ उत्पन्न होने वाला हूँ।’”

तब, भग्गव, सुनक्खत लिच्छविपुत्र उस निर्वस्त्र कोरक्षत्रिय के पास गया, और उससे कहा, ‘मित्र कोरक्षत्रिय, श्रमण गौतम ने घोषित किया है कि निर्वस्त्र कोरक्षत्रिय सात दिन में अलसक रोग से मरने वाला है। और, जब वह मरेगा तो ‘कालकञ्चिक’ नामक जो सबसे हीन असुर-काया होती है, वहाँ उत्पन्न होगा। और, जब वह मरेगा तो लोग उसे बीरण की झूरमुट वाले श्मशान में फेंक देंगे। तो मित्र कोरक्षत्रिय, बिलकुल मात्रा में भोजन खाओ और बिलकुल मात्रा में पानी पीओ। ताकि श्रमण गौतम के वचन मिथ्या साबित हो।’

तब, भग्गव, सुनक्खत लिच्छविपुत्र एक-एक कर के सात दिन गिनने लगा, जैसे कोई तथागत पर अश्रद्धावान करे। तब, निर्वस्त्र कोरक्षत्रिय सातवे दिन अलसक रोग से मर गया। और, वह मरने पर ‘कालकञ्चिक’ नामक जो सबसे हीन असुर-काया होती है, वहाँ उत्पन्न हुआ। और, वह जब मरा तो लोगों ने उसे बीरण की झूरमुट वाले श्मशान में फेंक दिया।

तब ऐसा हुआ, भग्गव, कि सुनक्खत लिच्छविपुत्र ने सुना, ‘निर्वस्त्र कोरक्षत्रिय के अलसक रोग से मरने पर लोगों ने उसे बीरण की झूरमुट वाले श्मशान में फेंक दिया।’ तब सुनक्खत लिच्छविपुत्र उस बीरण की झूरमुट वाले श्मशान में निर्वस्त्र कोरक्षत्रिय के पास गया, और निर्वस्त्र कोरक्षत्रिय [के पार्थिव शरीर] को तीन बार अपने हाथ से थपथपाया, [कहते हुए,] “मित्र कोरक्षत्रिय, क्या अपनी गति जानते हो?”

तब, भग्गव, निर्वस्त्र कोरक्षत्रिय अपनी पीठ झाड़ते हुए खड़ा हुआ। “मित्र सुनक्खत, मैं अपनी गति जानता हूँ। ‘कालकञ्चिक’ नामक जो सबसे हीन असुर-काया होती है, मैं वहाँ उत्पन्न हुआ हूँ”, ऐसा कहकर वह उतान गिर पड़ा। 4

तब, भग्गव, सुनक्खत लिच्छविपुत्र मेरे पास आया और अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे सुनक्खत लिच्छविपुत्र से मैंने कहा, “तो क्या मानते हो, सुनक्खत? जैसा मैंने निर्वस्त्र कोरक्षत्रिय के बारे में घोषित किया, क्या वैसा ही फल हुआ, अथवा उसके अलावा कुछ भिन्न हुआ?”

“हाँ, भंते। जैसा भगवान ने निर्वस्त्र कोरक्षत्रिय के बारे में घोषित किया था, ठीक वैसा ही फल हुआ, उसके अलावा भिन्न नहीं हुआ।”

“तब क्या मानते हो, सुनक्खत? यदि ऐसा हुआ हो, तो क्या उसे अलौकिक ऋद्धि चमत्कार करना कहेंगे, अथवा नहीं?”

“स्पष्ट है, भंते। यदि ऐसा हुआ हो तो उसे अलौकिक ऋद्धि चमत्कार करना ही कहेंगे।”

“तो, नालायक, जब मैंने अलौकिक ऋद्धि चमत्कार कर दिया, तब क्यों कहते हो कि ‘भगवान कभी मेरे लिए अलौकिक ऋद्धि चमत्कार नहीं दिखाते है’? देखो, नालायक, तुम ही कितना भटक गए हो।”

इस तरह, भग्गव, मैंने सुनक्खत लिच्छविपुत्र से कहा, तब भी उसने इस धर्म-विनय को छोड़ दिया, मानो कोई नर्क के मार्ग पर हो।”

३. निर्वस्त्र कळारमट्टक

“और, एक समय, भग्गव, मैं वैशाली के महावन में कुटागार-शाला में विहार कर रहा था। उस समय निर्वस्त्र कळारमट्टक वैशाली में रह रहा था, जो वज्जी-गाँव में सबसे अधिक लाभ प्राप्त [=आम लोगों का दान-दक्षिणा देना], और सबसे अधिक यशकिर्ति प्राप्त था। उसने सात व्रत ग्रहण किए थे — (१) जीवन भर निर्वस्त्र रहूँगा, वस्त्र नहीं पहनुंगा, (२) जीवन भर ब्रह्मचारी रहूँगा, मैथुन-धर्म का सेवन नहीं करूँगा, (३) जीवन भर माँस खाकर और शराब-मद्य पीकर ही रहूँगा, दाल-भात नहीं खाऊँगा, (४) वैशाली में पूर्व-दिशा की ओर उदेन नामक चैत्य के आगे नहीं जाऊँगा, (५) वैशाली में दक्षिण-दिशा की ओर गोतमक नामक चैत्य के आगे नहीं जाऊँगा, (६) वैशाली में पश्चिम-दिशा की ओर सत्तम्ब नामक चैत्य के आगे नहीं जाऊँगा, (७) वैशाली में दक्षिण-दिशा की ओर बहुपुत्तक नामक चैत्य के आगे नहीं जाऊँगा। इन्हीं सात व्रतों को ग्रहण करने से वह वज्जी-गाँव में सबसे अधिक लाभ प्राप्त, और सबसे अधिक यशकिर्ति प्राप्त था।

तब, भग्गव, सुनक्खत लिच्छविपुत्र उस निर्वस्त्र कळारमट्टक के पास गया, और जाकर निर्वस्त्र कळारमट्टक से प्रश्न पूछने लगा। किन्तु, निर्वस्त्र कळारमट्टक उन प्रश्नों से स्तब्ध हुआ। और स्तब्ध होने पर, उसने क्रोध, द्वेष और कड़वाहट प्रकट किया। तब, भग्गव, सुनक्खत लिच्छविपुत्र को लगा, “ऐसे असली साधु अरहंत श्रमण को मैंने परेशान कर दिया! कहीं मेरा दीर्घकाल के लिए अहित और दुःख न खड़ा हो जाए।”

तब, भग्गव, सुनक्खत लिच्छविपुत्र मेरे पास आया, और अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे सुनक्खत लिच्छविपुत्र से मैंने कहा, “नालायक, तुम खुद को ‘शाक्यपुत्र श्रमण’ समझते हो ना?”

“किन्तु, भंते, क्यों भगवान ने मुझे ऐसा कहा कि ‘नालायक, तुम खुद को ‘शाक्यपुत्र श्रमण’ समझते हो ना’?”

“क्या, सुनक्खत, तुम निर्वस्त्र कळारमट्टक के पास नहीं गए थे, और जाकर निर्वस्त्र कळारमट्टक से प्रश्न नहीं पूछा? किन्तु, निर्वस्त्र कळारमट्टक उन प्रश्नों से स्तब्ध हुआ। और स्तब्ध होने पर, उसने क्रोध, द्वेष और कड़वाहट प्रकट किया। तब तुम्हें लगा, “ऐसे असली साधु अरहंत श्रमण को मैंने परेशान कर दिया! कहीं मेरा दीर्घकाल के लिए अहित और दुःख न खड़ा हो जाए।”

“हाँ, भंते। किन्तु, भगवान क्यों अरहंत से ईर्ष्या करते है?”

“नालायक, मैं अरहंत से ईर्ष्या नहीं करता। बल्कि तुम्हें जो पापी मिथ्या-धारणा उत्पन्न हुई है, उसे छोड़ो। अपने दीर्घकाल के लिए अहित और दुःख मत खड़ा करो। और, सुनक्खत, जिस निर्वस्त्र कळारमट्टक को तुम ‘असली साधू श्रमण’ मान रहे हो, वह जल्द ही वस्त्र पहन, जीवनसाथी के साथ विहार कर, वैशाली के सभी चैत्यों के आगे जाकर, अपनी सारी यशकिर्ति खोकर मरेगा।”

और तब, भग्गव, ऐसा हुआ कि निर्वस्त्र कळारमट्टक जल्द ही वस्त्र पहन, जीवनसाथी के साथ विहार कर, वैशाली के सभी चैत्यों के आगे जाकर, अपनी सारी यशकिर्ति खोकर मर गया। तब सुनक्खत लिच्छविपुत्र ने सुना कि ‘निर्वस्त्र कळारमट्टक वस्त्र पहन, जीवनसाथी के साथ विहार कर, वैशाली के सभी चैत्यों के आगे जाकर, अपनी सारी यशकिर्ति खोकर मर गया।’

तब सुनक्खत लिच्छविपुत्र मेरे पास आया, और अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे सुनक्खत लिच्छविपुत्र से मैंने कहा, “तो क्या मानते हो, सुनक्खत? जैसा मैंने निर्वस्त्र कळारमट्टक के बारे में घोषित किया, क्या वैसा ही फल हुआ, अथवा उसके अलावा कुछ भिन्न हुआ?”

“हाँ, भंते। जैसा भगवान ने निर्वस्त्र कळारमट्टक के बारे में घोषित किया था, ठीक वैसा ही फल हुआ, उसके अलावा भिन्न नहीं हुआ।”

“तब क्या मानते हो, सुनक्खत? यदि ऐसा हुआ हो, तो क्या उसे अलौकिक ऋद्धि चमत्कार करना कहेंगे, अथवा नहीं?”

“स्पष्ट है, भंते। यदि ऐसा हुआ हो तो उसे अलौकिक ऋद्धि चमत्कार करना ही कहेंगे।”

“तो, नालायक, जब मैंने अलौकिक ऋद्धि चमत्कार कर दिया, तब क्यों कहते हो कि ‘भगवान कभी मेरे लिए अलौकिक ऋद्धि चमत्कार नहीं दिखाते है’? देखो, नालायक, तुम ही कितना भटक गए हो।”

इस तरह, भग्गव, मैंने सुनक्खत लिच्छविपुत्र से कहा, तब भी उसने इस धर्म-विनय को छोड़ दिया, मानो कोई नर्क के मार्ग पर हो।”

४. निर्वस्त्र पाथिकपुत्र

“और, एक समय, भग्गव, मैं वैशाली के महावन में कुटागार-शाला में ही विहार कर रहा था। उस समय निर्वस्त्र पाथिकपुत्र वैशाली में रह रहा था, जो वज्जी-गाँव में सबसे अधिक लाभ प्राप्त, और सबसे अधिक यशकिर्ति प्राप्त था। वह वैशाली के लोगों को कहता था, “श्रमण गौतम ज्ञानवादी [=जो स्व-ज्ञान से बोलता हो] है, मैं भी ज्ञानवादी हूँ। ज्ञानवादी ने ज्ञानवादी को अलौकिक ऋद्धि चमत्कार दिखाना चाहिए। [एक ओर से] श्रमण गौतम आधा मार्ग आए, मैं आधा मार्ग जाऊँगा। और वहाँ, हम दोनों ने अलौकिक ऋद्धियों का चमत्कार दिखाएंगे। श्रमण गौतम एक अलौकिक ऋद्धि का चमत्कार करेंगे, तो मैं दो करूँगा। श्रमण गौतम दो अलौकिक ऋद्धियों का चमत्कार करेंगे, तो मैं चार करूँगा। श्रमण गौतम चार अलौकिक ऋद्धियों का चमत्कार करेंगे, तो मैं आठ करूँगा। जितने-जितने अलौकिक ऋद्धियों का श्रमण गौतम चमत्कार दिखाएंगे, उतने-उतने दुगने मैं दिखाऊँगा।”

तब सुनक्खत लिच्छविपुत्र मेरे पास आया, और अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे सुनक्खत लिच्छविपुत्र ने मुझसे कहा, “भंते, निर्वस्त्र पाथिकपुत्र वैशाली में रहता है, जो वज्जी-गाँव में सबसे अधिक लाभ प्राप्त, और सबसे अधिक यशकिर्ति प्राप्त है। वह वैशाली के लोगों को कहता है, “श्रमण गौतम ज्ञानवादी है, मैं भी ज्ञानवादी हूँ। ज्ञानवादी ने ज्ञानवादी को अलौकिक ऋद्धि चमत्कार दिखाना चाहिए… जितने-जितने अलौकिक ऋद्धियों का श्रमण गौतम चमत्कार दिखाएंगे, उतने-उतने दुगने मैं दिखाऊँगा।”

जब ऐसा कहा गया, भग्गव, तब मैंने सुनक्खत लिच्छविपुत्र से कहा, “सुनक्खत, वह निर्वस्त्र पाथिकपुत्र मेरे सामने नहीं आएगा, जब तक उस तरह कहना न छोड़ दे, उस तरह का चित्त न छोड़ दे, उस तरह की धारणा का त्याग न कर दे। यदि वाकई उसे लगता हो कि ‘उस तरह कहना न छोड़, उस तरह का चित्त न छोड़, उस तरह की धारणा का त्याग न कर के भी, वह श्रमण गौतम के सामने आएगा, तो उसका सिर फट जाएगा।”

“भंते, भगवान अपनी बात बचाएँ, सुगत अपनी बात बचाएँ।”

“किन्तु, सुनक्खत, क्यों तुमने मुझे ऐसा कहा कि ‘भंते, भगवान अपनी बात बचाएँ, सुगत अपनी बात बचाएँ’?”

“भंते, भगवान की इस बात में पक्का दावा प्रकट हो रहा है कि — “वह निर्वस्त्र पाथिकपुत्र मेरे सामने नहीं आएगा… यदि वाकई उसे लगता हो… तो उसका सिर फट जाएगा।” किन्तु, भंते, निर्वस्त्र पाथिकपुत्र अपना रूप बदलकर भी भगवान के सामने आ सकता है, जिससे भगवान झूठ साबित होंगे।”

“सुनक्खत, क्या कभी तथागत ऐसी बात करते हैं, जो दोगली बात हो?”

“किन्तु, भंते, क्या भगवान ने अपना चित्त फैलाकर निर्वस्त्र पाथिकपुत्र के चित्त को जान लिया है, अथवा देवताओं ने भगवान से ऐसा कहा हैं कि — “वह निर्वस्त्र पाथिकपुत्र मेरे सामने नहीं आएगा… यदि वाकई उसे लगता हो… तो उसका सिर फट जाएगा”?

“मैंने अपना चित्त फैलाकर निर्वस्त्र पाथिकपुत्र के चित्त को जान लिया है, सुनक्खत, और साथ-ही-साथ देवताओं ने भी मुझसे कहा हैं कि — “वह निर्वस्त्र पाथिकपुत्र मेरे सामने नहीं आएगा… यदि वाकई उसे लगता हो… तो उसका सिर फट जाएगा। अजित नामक लिच्छवियों का सेनापति अभी मर के तैतीस देवताओं में उत्पन्न हुआ है। उसने मेरे पास आकर मुझे कहा, “भंते, निर्वस्त्र पाथिकपुत्र बेशर्म है। निर्वस्त्र पाथिकपुत्र झूठा है। उस निर्वस्त्र पाथिकपुत्र ने, भंते, मेरे बारे में वज्जी-गाँव में घोषित किया कि ‘अजित लिच्छवियों का सेनापति महानर्क में उत्पन्न हुआ है।’ किन्तु, भंते, मैं महानर्क में नहीं, बल्कि तैतीस देवताओं में उत्पन्न हुआ हूँ। भंते, निर्वस्त्र पाथिकपुत्र बेशर्म है। निर्वस्त्र पाथिकपुत्र झूठा है। वह निर्वस्त्र पाथिकपुत्र भगवान के सामने नहीं आएगा… यदि वाकई उसे लगता हो कि ‘उस तरह कहना न छोड़, उस तरह का चित्त न छोड़, उस तरह की धारणा का त्याग न कर के भी, वह श्रमण गौतम के सामने आएगा, तो उसका सिर फट जाएगा।’

इस तरह, सुनक्खत, मैंने अपना चित्त फैलाकर निर्वस्त्र पाथिकपुत्र के चित्त को जान लिया है, और साथ-ही-साथ देवताओं ने भी मुझसे कहा हैं कि — “वह निर्वस्त्र पाथिकपुत्र मेरे सामने नहीं आएगा… यदि वाकई उसे लगता हो… तो उसका सिर फट जाएगा।” ठीक है, सुनक्खत, मैं वैशाली में भिक्षाटन कर भोजन करने के पश्चात, दिन में ध्यान-साधना के लिए उस निर्वस्त्र पाथिकपुत्र के आश्रम के पास जाऊँगा। अब, सुनक्खत, तुम्हारी जो इच्छा हो, सो करो।”

५. ऋद्धि चमत्कार

तब सुबह होने पर, भग्गव, मैंने चीवर ओढ़, पात्र लेकर, वैशाली में भिक्षाटन करने गया। और, वैशाली में भिक्षाटन कर भोजन करने के पश्चात दिन में ध्यान-साधना के लिए, मैं उस निर्वस्त्र पाथिकपुत्र के आश्रम के पास गया। तब, भग्गव, सुनक्खत लिच्छविपुत्र जल्दबाजी में वैशाली में प्रवेश कर प्रसिद्ध-प्रसिद्ध लिच्छवियों के पास गया, और जाकर उन प्रसिद्ध-प्रसिद्ध लिच्छवियों से कहा, “मित्रों, भगवान वैशाली में भिक्षाटन कर भोजन करने के पश्चात दिन में ध्यान-साधना के लिए उस निर्वस्त्र पाथिकपुत्र के आश्रम के पास गए है। चलो, चलो, आयुष्मानों! असली साधू श्रमणों का अलौकिक ऋद्धि चमत्कार होगा!”

तब, भग्गव, प्रसिद्ध-प्रसिद्ध लिच्छवियों को लगा, “असली साधू श्रमणों का अलौकिक ऋद्धि चमत्कार होगा! चलो, चलते हैं।”

तब वह प्रसिद्ध-प्रसिद्ध महासंपत्तिशाली ब्राह्मणों, धनी गृहस्थों, तरह-तरह के परधार्मिक श्रमण और ब्राह्मणों के पास गया, और जाकर उन्हें कहा, “मित्रों, भगवान वैशाली में भिक्षाटन कर भोजन करने के पश्चात दिन में ध्यान-साधना के लिए उस निर्वस्त्र पाथिकपुत्र के आश्रम के पास गए है। चलो, चलो, आयुष्मानों! असली साधू श्रमणों का अलौकिक ऋद्धि चमत्कार होगा!”

तब, भग्गव, उन सभी प्रसिद्ध-प्रसिद्ध महासंपत्तिशाली ब्राह्मणों, धनी गृहस्थों, तरह-तरह के परधार्मिक श्रमण और ब्राह्मणों को लगा, “असली साधू श्रमणों का अलौकिक ऋद्धि चमत्कार होगा! चलो, चलते हैं।”

तब सभी प्रसिद्ध-प्रसिद्ध महासंपत्तिशाली ब्राह्मण, धनी गृहस्थ, तरह-तरह के परधार्मिक श्रमण और ब्राह्मण उस निर्वस्त्र पाथिकपुत्र के आश्रम के पास गए। और, भग्गव, वह कई सैकड़ों, कई हजारों की विराट परिषद थी।

तब, भग्गव, निर्वस्त्र पाथिकपुत्र ने सुना, “सभी प्रसिद्ध-प्रसिद्ध महासंपत्तिशाली ब्राह्मण, धनी गृहस्थ, तरह-तरह के परधार्मिक श्रमण और ब्राह्मण आ गए हैं। और श्रमण गौतम दिन में ध्यान-साधना के लिए मेरे ही आश्रम में बैठे है।” ऐसा सुनकर उसे भय और कपकपी हुई, उसके रोंगटे खड़े हुए। तब, निर्वस्त्र पाथिकपुत्र भयभीत, उत्तेजित और रोंगटे खड़े कर, तिन्दुकखाणु [=तिन्दुक वृक्ष के ठूँठ] घुमक्कड़ों के आश्रम चला गया।

तब, भग्गव, परिषद ने सुना, “निर्वस्त्र पाथिकपुत्र भयभीत, उत्तेजित और रोंगटे खड़े कर, तिन्दुकखाणु घुमक्कड़ों के आश्रम चला गया है।” तब, उस परिषद ने किसी पुरुष को संबोधित किया, “तुम जाओ, पुरुष! तिन्दुकखाणु घुमक्कड़ों के आश्रम जाकर निर्वस्त्र पाथिकपुत्र के पास जाओ, और उसे कहो, ‘चलिए, मित्र पाथिकपुत्र! सभी प्रसिद्ध-प्रसिद्ध महासंपत्तिशाली ब्राह्मण, धनी गृहस्थ, तरह-तरह के परधार्मिक श्रमण और ब्राह्मण आ गए हैं। और श्रमण गौतम दिन में ध्यान-साधना के लिए आप ही के आश्रम में बैठे है।’ क्योंकि, आप ही ने वैशाली के परिषद में ऐसा कहा था कि ‘श्रमण गौतम ज्ञानवादी है, मैं भी ज्ञानवादी हूँ। ज्ञानवादी ने ज्ञानवादी को अलौकिक ऋद्धि चमत्कार दिखाना चाहिए। श्रमण गौतम आधा मार्ग आए, मैं आधा मार्ग जाऊँगा। और वहाँ, हम दोनों ने अलौकिक ऋद्धियों का चमत्कार दिखाएंगे। श्रमण गौतम एक अलौकिक ऋद्धि का चमत्कार करेंगे, तो मैं दो करूँगा। श्रमण गौतम दो अलौकिक ऋद्धियों का चमत्कार करेंगे, तो मैं चार करूँगा। श्रमण गौतम चार अलौकिक ऋद्धियों का चमत्कार करेंगे, तो मैं आठ करूँगा। जितने-जितने अलौकिक ऋद्धियों का श्रमण गौतम चमत्कार दिखाएंगे, उतने-उतने दुगने मैं दिखाऊँगा।’ तो आईए, मित्र पाथिकपुत्र, आधा मार्ग चलिये। श्रमण गौतम ही सर्वप्रथम आधा मार्ग चलकर आप आयुष्मान के आश्रम में ही दिन का विहार करने बैठे है।”

“ठीक है, श्रीमानों!” उस पुरुष ने परिषद को उत्तर देकर तिन्दुकखाणु घुमक्कड़ों के आश्रम जाकर निर्वस्त्र पाथिकपुत्र के पास गया, और उसे कहा, ‘चलिए, मित्र पाथिकपुत्र! सभी प्रसिद्ध-प्रसिद्ध… आप ही के आश्रम में बैठे है… क्योंकि, आप ही ने वैशाली के परिषद में ऐसा कहा था… जितने-जितने अलौकिक ऋद्धियों का श्रमण गौतम चमत्कार दिखाएंगे, उतने-उतने दुगने मैं दिखाऊँगा।’ तो आईए, मित्र पाथिकपुत्र, आधा मार्ग चलिये। श्रमण गौतम ही सर्वप्रथम आधा मार्ग चलकर आप आयुष्मान के आश्रम में ही दिन का विहार करने बैठे है।”

जब ऐसा कहा गया, तब “आ रहा हूँ, मित्र, आ रहा हूँ”, कह कर, निर्वस्त्र पाथिकपुत्र ने रेंगना भी चाहा, तब भी आसन से उठ न सका।

तब, उस पुरुष ने निर्वस्त्र पाथिकपुत्र से कहा, “क्या हुआ, मित्र पाथिकपुत्र? क्या आपका पिछवाड़ा मंच से चिपक गया है, या वह मंच पिछवाड़े से? ‘आ रहा हूँ, आ रहा हूँ’, कहकर रेंगना भी चाह रहे हो, तब भी आसन से उठ नहीं पा रहे हो!”

ऐसा कहने पर निर्वस्त्र पाथिकपुत्र ने फिर कहा, “आ रहा हूँ, मित्र, आ रहा हूँ!” और उसने रेंगना भी चाहा, तब भी आसन से उठ न सका।

तब, उस पुरुष ने समझ लिया, “पराभूत हुआ निर्वस्त्र पाथिकपुत्र! ‘आ रहा हूँ, आ रहा हूँ’, कहता है, किन्तु रेंगना भी चाहे, तब भी आसन से उठ नहीं पा रहा!”

तब, उस पुरुष ने परिषद में लौटकर कहा, “पराभूत हुआ निर्वस्त्र पाथिकपुत्र! ‘आ रहा हूँ, आ रहा हूँ’, कहता है, किन्तु रेंगना भी चाहे, तब भी आसन से उठ नहीं पा रहा!”

जब ऐसा कहा गया, तब, भग्गव, मैंने उस परिषद से कहा, “वह निर्वस्त्र पाथिकपुत्र मेरे सामने नहीं आएगा, जब तक उस तरह कहना न छोड़ दे, उस तरह का चित्त न छोड़ दे, उस तरह की धारणा का त्याग न कर दे। यदि वाकई उसे लगता हो कि ‘उस तरह कहना न छोड़, उस तरह का चित्त न छोड़, उस तरह की धारणा का त्याग न कर के भी, वह श्रमण गौतम के सामने आएगा, तो उसका सिर फट जाएगा।”

तब, भग्गव, कोई दूसरा लिच्छवि महामंत्री, अपने आसन से उठकर, परिषद से कहा, “ठीक है, श्रीमानों, आप थोड़ी देर प्रतीक्षा करें! अब की बार मैं जाता हूँ! शायद मैं निर्वस्त्र पाथिकपुत्र को इस परिषद में फुसलाकर ला पाऊँ!”

तब, भग्गव, वह लिच्छवि महामंत्री तिन्दुकखाणु घुमक्कड़ों के आश्रम जाकर निर्वस्त्र पाथिकपुत्र के पास गया, और उसे कहा, ‘चलिए, मित्र पाथिकपुत्र! सभी प्रसिद्ध-प्रसिद्ध… आप ही के आश्रम में बैठे है… क्योंकि, आप ही ने वैशाली के परिषद में ऐसा कहा था… जितने-जितने अलौकिक ऋद्धियों का श्रमण गौतम चमत्कार दिखाएंगे, उतने-उतने दुगने मैं दिखाऊँगा।’ तो आईए, मित्र पाथिकपुत्र, आधा मार्ग चलिये। श्रमण गौतम ही सर्वप्रथम आधा मार्ग चलकर आप आयुष्मान के आश्रम में ही दिन का विहार करने बैठे है। और, श्रमण गौतम ने परिषद में घोषित कर दिया है कि ‘वह निर्वस्त्र पाथिकपुत्र मेरे सामने नहीं आएगा… यदि वाकई उसे लगता हो… तो उसका सिर फट जाएगा।’ चलिए, मित्र पाथिकपुत्र! आप के आने से ही हम आप को जिता देंगे, और श्रमण गौतम को हरा देंगे।”

जब ऐसा कहा गया, तब पुनः “आ रहा हूँ, मित्र, आ रहा हूँ”, कह कर, निर्वस्त्र पाथिकपुत्र ने रेंगना भी चाहा, तब भी आसन से उठ न सका।

तब, उस लिच्छवि महामंत्री ने निर्वस्त्र पाथिकपुत्र से कहा, “क्या हुआ, मित्र पाथिकपुत्र? क्या आपका पिछवाड़ा मंच से चिपक गया है, या वह मंच पिछवाड़े से? ‘आ रहा हूँ, आ रहा हूँ’, कहकर रेंगना भी चाह रहे हो, तब भी आसन से उठ नहीं पा रहे हो!”

ऐसा कहने पर निर्वस्त्र पाथिकपुत्र ने फिर कहा, “आ रहा हूँ, मित्र, आ रहा हूँ!” और उसने रेंगना भी चाहा, तब भी आसन से उठ न सका।

तब, उस लिच्छवि महामंत्री ने भी समझ लिया, “पराभूत हुआ निर्वस्त्र पाथिकपुत्र! ‘आ रहा हूँ, आ रहा हूँ’, कहता है, किन्तु रेंगना भी चाहे, तब भी आसन से उठ नहीं पा रहा!”

तब, उस लिच्छवि महामंत्री ने भी परिषद में लौटकर कहा, “पराभूत हुआ निर्वस्त्र पाथिकपुत्र! ‘आ रहा हूँ, आ रहा हूँ’, कहता है, किन्तु रेंगना भी चाहे, तब भी आसन से उठ नहीं पा रहा!”

जब ऐसा कहा गया, तब, भग्गव, मैंने उस परिषद से फिर से कहा, “वह निर्वस्त्र पाथिकपुत्र मेरे सामने नहीं आएगा… आएगा, तो उसका सिर फट जाएगा। भले ही आप आयुष्मान लिच्छवियों को लगता हो कि — ‘हम उस निर्वस्त्र पाथिकपुत्र को रस्सी से बाँधकर बैलों की जोड़ी से घसीटते हुए यहाँ लाएँगे!’ तब भी रस्सी टूट जाएगी या पाथिकपुत्र। किन्तु, जब तक वह उस तरह कहना न छोड़ दे, उस तरह का चित्त न छोड़ दे, उस तरह की धारणा का त्याग न कर दे… आएगा, तो उसका सिर फट जाएगा।”

तब, भग्गव, जालिय दारुपत्तिकन्तेवासी [=लकड़ी के पात्र से भिक्षाटन करने वाले संन्यासी का शिष्य] ने अपने आसन से उठकर, परिषद से कहा, “ठीक है, श्रीमानों, आप थोड़ी देर प्रतीक्षा करें! अब की बार मैं जाता हूँ! शायद मैं निर्वस्त्र पाथिकपुत्र को इस परिषद में फुसलाकर ला पाऊँ!”

तब, भग्गव, वह जालिय दारुपत्तिकन्तेवासी तिन्दुकखाणु घुमक्कड़ों के आश्रम जाकर निर्वस्त्र पाथिकपुत्र के पास गया, और उसे कहा, ‘चलिए, मित्र पाथिकपुत्र! सभी प्रसिद्ध-प्रसिद्ध… आप ही के आश्रम में बैठे है… क्योंकि, आप ही ने वैशाली के परिषद में ऐसा कहा था…’ तो आईए, मित्र पाथिकपुत्र, आधा मार्ग चलिये। श्रमण गौतम ही सर्वप्रथम आधा मार्ग चलकर आप आयुष्मान के आश्रम में ही दिन का विहार करने बैठे है। और, श्रमण गौतम ने परिषद में घोषित कर दिया है कि ‘वह निर्वस्त्र पाथिकपुत्र मेरे सामने नहीं आएगा… भले ही आप आयुष्मान लिच्छवियों को लगता हो कि — ‘हम उस निर्वस्त्र पाथिकपुत्र को रस्सी से बाँधकर बैलों की जोड़ी से घसीटते हुए यहाँ लाएँगे!’ तब भी रस्सी टूट जाएगी या पाथिकपुत्र। किन्तु, जब तक वह उस तरह कहना न छोड़ दे, उस तरह का चित्त न छोड़ दे, उस तरह की धारणा का त्याग न कर दे… आएगा, तो उसका सिर फट जाएगा।’ तो चलिए, मित्र पाथिकपुत्र! आप के आने से ही हम आप को जिता देंगे, और श्रमण गौतम को हरा देंगे।”

जब ऐसा कहा गया, तब पुनः “आ रहा हूँ, मित्र, आ रहा हूँ”, कह कर, निर्वस्त्र पाथिकपुत्र ने रेंगना भी चाहा, तब भी आसन से उठ न सका।

तब, उस जालिय दारुपत्तिकन्तेवासी ने निर्वस्त्र पाथिकपुत्र से कहा, “क्या हुआ, मित्र पाथिकपुत्र? क्या आपका पिछवाड़ा मंच से चिपक गया है, या वह मंच पिछवाड़े से? ‘आ रहा हूँ, आ रहा हूँ’, कहकर रेंगना भी चाह रहे हो, तब भी आसन से उठ नहीं पा रहे हो!”

ऐसा कहने पर निर्वस्त्र पाथिकपुत्र ने फिर कहा, “आ रहा हूँ, मित्र, आ रहा हूँ!” और उसने रेंगना भी चाहा, तब भी आसन से उठ न सका।

और जब, जालिय दारुपत्तिकन्तेवासी ने भी समझ लिया, “पराभूत हुआ निर्वस्त्र पाथिकपुत्र! ‘आ रहा हूँ, आ रहा हूँ’, कहता है, किन्तु रेंगना भी चाहे, तब भी आसन से उठ नहीं पा रहा!” तब उसने निर्वस्त्र पाथिकपुत्र से कहा, “बहुत पहले की बात है, मित्र पाथिकपुत्र, मृगराज [=पशुओं का राजा] सिंह को लगा, “क्यों न मैं किसी जंगल में निश्रय लेकर रहूँ? सायंकाल के समय मैं माँद से निकलूँगा। माँद से निकलकर जम्हाई लूँगा। जम्हाई लेकर चारों दिशाओं का अवलोकन करूँगा। चारों दिशाओं का अवलोकन कर तीन बार सिंह की दहाड़ लगाकर गर्जना करूँगा। तीन बार सिंह की दहाड़ लगाकर गर्जना करने पर तब शिकार के लिए निकलूँगा। और, मृग के झुंड में श्रेष्ठ से श्रेष्ठ मृग का वध कर, नरम-नरम माँस खाने पर अपने माँद लौट आऊँगा।”

तब, मित्र, उस मृगराज सिंह ने जंगल में निश्रय लेकर रहा। सायंकाल के समय माँद से निकला। माँद से निकलकर जम्हाई लिया। जम्हाई लेकर चारों दिशाओं का अवलोकन किया। चारों दिशाओं का अवलोकन कर, तीन बार सिंह की दहाड़ लगाकर गर्जना किया। तीन बार सिंह की दहाड़ लगाकर गर्जना करने पर शिकार के लिए निकला। और, मृग के झुंड में श्रेष्ठ से श्रेष्ठ मृग का वध कर, नरम-नरम माँस खाने पर अपने माँद लौट आया।

मित्र पाथिकपुत्र, वहाँ एक बूढ़ा सियार रहता था, जो मृगराज सिंह का छोड़ा जूठा माँस खा-खाकर मोटा और बलवान हो गया था। उस बूढ़े सियार को लगा, “क्या मैं और क्या मृगराज सिंह! क्यों न मैं भी किसी जंगल में निश्रय लेकर रहूँ? सायंकाल के समय मैं माँद से निकलूँगा। माँद से निकलकर जम्हाई लूँगा। जम्हाई लेकर चारों दिशाओं का अवलोकन करूँगा। चारों दिशाओं का अवलोकन कर तीन बार सिंह की दहाड़ लगाकर गर्जना करूँगा। तीन बार सिंह की दहाड़ लगाकर गर्जना करने पर तब शिकार के लिए निकलूँगा। और, मृग के झुंड में श्रेष्ठ से श्रेष्ठ मृग का वध कर, नरम-नरम माँस खाने पर अपने माँद लौट आऊँगा।”

तब, वह बूढ़ा सियार पास के किसी जंगल में निश्रय लेकर रहा। सायंकाल के समय माँद से निकला। माँद से निकलकर जम्हाई लिया। जम्हाई लेकर चारों दिशाओं का अवलोकन किया। चारों दिशाओं का अवलोकन कर, तीन बार सिंह की दहाड़ लगाकर गर्जना करने का प्रयास किया, किन्तु केवल सियारों की ही तरह [हुँवा हुँवा] चीख निकालकर भौंक पाया। कहाँ तुच्छ सियार का भौंकना, और कहाँ सिंह की गरजती दहाड़!

ठीक उसी तरह, मित्र पाथिकपुत्र, सुगत के छोड़े दान पर जीने वाले आप, सुगत के जूठे को खाने वाले आप, भला कैसे मान बैठे थे कि ‘तथागत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध’ का मुक़ाबला करेंगे? कहाँ तुच्छ पाथिकपुत्र, और कहाँ तथागत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध का मुक़ाबला!

और, जब जालिय दारुपत्तिकन्तेवासी इस उपमा से भी निर्वस्त्र पाथिकपुत्र को उसके आसन से हिला नहीं पाया, तब उसने कहा:

‘स्वयं को सिंह समझ कर,
साक्षात मृगराज मान कर,
सियार केवल भौंक पाया,
कहाँ तुच्छ सियार, कहाँ सिंहनाद!

ठीक उसी तरह, मित्र पाथिकपुत्र, सुगत के छोड़े दान पर जीने वाले आप, सुगत के जूठे को खाने वाले आप, भला कैसे मान बैठे थे कि ‘तथागत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध’ का मुक़ाबला करेंगे? कहाँ तुच्छ पाथिकपुत्र, और कहाँ तथागत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध का मुक़ाबला!’

और, जब जालिय दारुपत्तिकन्तेवासी इस गाथा से भी निर्वस्त्र पाथिकपुत्र को उसके आसन से हिला नहीं पाया, तब उसने आगे कहा:

‘दूसरे के पथ पर चलकर,
जूठा खाकर, स्वयं को मोटा देख,
जब तक स्वयं को न देख ले,
सियार माने बाघ स्वयं को।
किन्तु, केवल भौंक पाए,
कहाँ तुच्छ सियार, कहाँ सिंहनाद!

ठीक उसी तरह, मित्र पाथिकपुत्र, सुगत के छोड़े दान पर जीने वाले आप, सुगत के जूठे को खाने वाले आप, भला कैसे मान बैठे थे कि ‘तथागत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध’ का मुक़ाबला करेंगे? कहाँ तुच्छ पाथिकपुत्र, और कहाँ तथागत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध का मुक़ाबला!’

और, जब जालिय दारुपत्तिकन्तेवासी इस गाथा से भी निर्वस्त्र पाथिकपुत्र को उसके आसन से हिला नहीं पाया, तब उसने आगे कहा:

‘खेत के मेंढक, चूहे खाकर,
श्मशान में फेंके मुर्दे नोच कर,
सियार केवल भौंक ही पाया,
कहाँ तुच्छ सियार, कहाँ सिंहनाद!

ठीक उसी तरह, मित्र पाथिकपुत्र, सुगत के छोड़े दान पर जीने वाले आप, सुगत के जूठे को खाने वाले आप, भला कैसे मान बैठे थे कि ‘तथागत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध’ का मुक़ाबला करेंगे? कहाँ तुच्छ पाथिकपुत्र, और कहाँ तथागत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध का मुक़ाबला!’

और, जब जालिय दारुपत्तिकन्तेवासी इस गाथा से भी निर्वस्त्र पाथिकपुत्र को उसके आसन से हिला नहीं पाया, तब उसने भी परिषद में लौटकर कहा, “पराभूत हुआ निर्वस्त्र पाथिकपुत्र! ‘आ रहा हूँ, आ रहा हूँ’, कहता है, किन्तु रेंगना भी चाहे, तब भी आसन से उठ नहीं पा रहा!”

जब ऐसा कहा गया, तब, भग्गव, मैंने उस परिषद से फिर से कहा, “वह निर्वस्त्र पाथिकपुत्र मेरे सामने नहीं आएगा… आएगा, तो उसका सिर फट जाएगा। भले ही आप आयुष्मान लिच्छवियों को लगता हो कि — ‘हम उस निर्वस्त्र पाथिकपुत्र को रस्सी से बाँधकर बैलों की जोड़ी से घसीटते हुए यहाँ लाएँगे!’ तब भी रस्सी टूट जाएगी या पाथिकपुत्र। किन्तु, जब तक वह उस तरह कहना न छोड़ दे, उस तरह का चित्त न छोड़ दे, उस तरह की धारणा का त्याग न कर दे… आएगा, तो उसका सिर फट जाएगा।”

तब, भग्गव, मैंने उस परिषद को धर्म-चर्चा से निर्देशित किया, उत्प्रेरित किया, उत्साहित किया, हर्षित किया। और, मैंने उस परिषद को धर्म-चर्चा से निर्देशित, उत्प्रेरित, उत्साहित, और हर्षित कर महाबंधन से मोक्ष [=आजाद] कराया। और चौरासी हजार लोगों को महा-दलदल से उबार कर, अग्नि-धातु में प्रवेश कर के सात ताल ऊपर आकाश में उड़कर, सात ताल ऊँची ज्वालाओं की रचना कर, प्रज्वलित और धुआँ देते हुए, महावन के कुटागार-शाला में लौट आया। 5

तब, भग्गव, सुनक्खत लिच्छविपुत्र मेरे पास आया, और अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे सुनक्खत लिच्छविपुत्र से मैंने कहा, “तो क्या मानते हो, सुनक्खत? जैसा मैंने निर्वस्त्र पाथिकपुत्र के बारे में घोषित किया, क्या वैसा ही फल हुआ, अथवा उसके अलावा कुछ भिन्न हुआ?”

“हाँ, भंते। जैसा भगवान ने निर्वस्त्र पाथिकपुत्र के बारे में घोषित किया था, ठीक वैसा ही फल हुआ, उसके अलावा भिन्न नहीं हुआ।”

“तब क्या मानते हो, सुनक्खत? यदि ऐसा हुआ हो, तो क्या उसे अलौकिक ऋद्धि चमत्कार करना कहेंगे, अथवा नहीं?” 6

“स्पष्ट है, भंते। यदि ऐसा हुआ हो तो उसे अलौकिक ऋद्धि चमत्कार करना ही कहेंगे।”

“तो, नालायक, जब मैंने अलौकिक ऋद्धि चमत्कार कर दिया, तब क्यों कहते हो कि ‘भगवान कभी मेरे लिए अलौकिक ऋद्धि चमत्कार नहीं दिखाते है’? देखो, नालायक, तुम ही कितना भटक गए हो।”

इस तरह, भग्गव, मैंने सुनक्खत लिच्छविपुत्र से कहा, तब भी उसने इस धर्म-विनय को छोड़ दिया, मानो कोई नर्क के मार्ग पर हो।”

६. दुनिया की शुरुवात

“भग्गव, मैं दुनिया की शुरुवात को समझता हूँ। मैं उसे समझता हूँ और उसके परे भी समझता हूँ। किन्तु समझकर उसे धारण नहीं करता। धारण न करने से, भीतर निर्वृत्ति का अनुभव करता हूँ। इस तरह प्रत्यक्ष जानने पर तथागत पर बरबादी नहीं आती।

(१) भग्गव, ऐसे श्रमण और ब्राह्मण होते हैं जो [अपने गुरुओं से सुनकर] परंपरागत तौर पर बताते हैं कि दुनिया की शुरुवात ईश्वरकृत या ब्रह्मकृत है। मैं उनके पास जाकर कहता हूँ, “क्या वाकई आप परंपरागत तौर पर बताते हैं कि दुनिया की शुरुवात ईश्वरकृत या ब्रह्मकृत है?”

मेरे ऐसा पुछने पर वे “हाँ” कहते हैं। तब मैं उन्हें कहता हूँ, “किन्तु आप परंपरागत तौर पर किस तरह बताते हैं कि दुनिया की शुरुवात ईश्वरकृत या ब्रह्मकृत है?”

मेरे ऐसे पुछने पर वे स्तब्ध हो जाते हैं, और घूमकर मुझे ही पुछने लगते हैं। तब मैं उन्हें बताता हूँ, “ऐसा होता है, मित्रों, एक समय आता है जब इस लोक का संवर्त [=सिकुड़न] होता है। जब इस लोक का संवर्त होता है तब अधिकतर सत्व आभास्वर [ब्रह्मलोक] की ओर बढ़ते हैं। वे वहाँ मनोमय [=मन से रची], प्रीतिभक्षी [=समाधि से उपजी प्रफुल्लता के आहार पर जीवन व्यापन करने वाले], स्वयंप्रभा [=भीतरी प्रकाश फैलाने वाले], अन्तरिक्षचर [=अन्तरिक्ष से यात्रा करने वाले], मोहक सौंदर्यता से युक्त होकर दीर्घकाल तक रहते हैं।

तब दीर्घकाल बीतने पर अंततः एक समय आता है जब इस लोक का विवर्त [=विस्तार] होता है। जब इस लोक का विवर्त होता है तब एक रिक्त ब्रह्मविमान प्रकट होता है। तब कोई सत्व, आयु समाप्त होने पर अथवा पुण्य समाप्त होने पर, ऊँचे आभास्वर ब्रह्मलोक से गिरकर उस रिक्त ब्रह्मविमान में पुनरुत्पन्न होता है। और वहाँ वह मनोमय, प्रीतिभक्षी, स्वयंप्रभा, अन्तरिक्षचर, मोहक सौंदर्यता से युक्त होकर दीर्घकाल तक रहता है। वहाँ दीर्घकाल तक अकेले रहकर निराश और व्याकुल हो जाता है, “अरे! काश, यहाँ दूसरे सत्व आते!”

तब दूसरे सत्व, आयु समाप्त होने पर अथवा पुण्य समाप्त होने पर, ऊँचे आभास्वर ब्रह्मलोक से गिरकर उस ब्रह्मविमान में पुनरुत्पन्न होते हैं, उसी सत्व के साथ। और वहाँ वे मनोमय, प्रीतिभक्षी, स्वयंप्रभा, अन्तरिक्षचर, मोहक सौंदर्यता से युक्त होकर दीर्घकाल तक रहते हैं।

तब पहले सत्व को लगता है — “मैं ब्रह्मा हूँ, महाब्रह्मा हूँ, विजेता हूँ, अजेय हूँ, सर्वदृष्टा हूँ, वशवर्ती हूँ, ईश्वर हूँ, [असली] कर्ता हूँ, निर्माता हूँ, श्रेष्ठ हूँ, नियुक्तकर्ता हूँ, शासक हूँ, आ चुके या आने वाले सभी का पिता हूँ, मैंने ही सभी सत्व निर्मित किये हैं। ऐसा कैसे? चूंकि मुझे पहले लगा, “अरे! काश, यहाँ दूसरे सत्व आते!” जो मैंने ऐसी इच्छा की, तो ये सत्व आ गए।”

जो सत्व पश्चात उत्पन्न होते हैं, उन्हे लगता है — “यह ब्रह्मा है, महाब्रह्मा है, विजेता है, अजेय है, सर्वदृष्टा है, वशवर्ती है, ईश्वर है, कर्ता है, निर्माता है, श्रेष्ठ है, नियुक्तकर्ता है, शासक है, आ चुके या आने वाले सभी का पिता है। इसने ही सभी सत्व निर्मित किये हैं। ऐसा कैसे? इसे हमने पहले उत्पन्न देखा। जबकि हम पश्चात उत्पन्न हुए।” पहला सत्व दीर्घायु, अधिक सौंदर्यवान तथा बहुसक्षम होता है। जबकि पश्चात उत्पन्न हुए सत्व अल्पायु, अल्प-सौंदर्यवान तथा अल्प-सक्षम होते हैं।

अब ऐसा संभव है, भिक्षुओं, कि कोई सत्व वहाँ से च्युत होकर यहाँ [मानवलोक में] उत्पन्न हो। यहाँ आकर वह घर से बेघर हो संन्यासी हो जाए, जो तत्परता के जरिए, उद्यमता के जरिए, दृढ़-संकल्प के जरिए, सतर्कता के जरिए, सही तरह ध्यान केन्द्रित करने से ऐसी चेतोसमाधि प्राप्त करे, जिस समाहित चित्त में उसे मात्र पिछला जन्म स्मरण हो, किन्तु उसके पूर्व के नहीं। वह कहता है, “जो ब्रह्मा है, महाब्रह्मा है, विजेता है, अजेय है, सर्वदृष्टा है, वशवर्ती है, ईश्वर है, कर्ता है, निर्माता है, श्रेष्ठ है, नियुक्तकर्ता है, शासक है, आ चुके या आने वाले सभी का पिता है, जिसके द्वारा हम सभी निर्मित किये गए हैं — वह नित्य है, ध्रुव है, शाश्वत है, अपरिवर्तनशील है, और सदा बने रहेगा। जबकि ब्रह्मा द्वारा निर्मित, मानवलोक में आए हम — अनित्य हैं, अध्रुव हैं, अल्पायु हैं, पतन-स्वभाव के हैं।” 7

क्या आप परंपरागत तौर पर इसी तरह बताते हैं कि दुनिया की शुरुवात ईश्वरकृत या ब्रह्मकृत है?”

तब वे कहते हैं, ‘हमने ऐसा ही सुना है, मित्र गौतम, जैसा गौतम ने बताया।’

भग्गव, मैं दुनिया की शुरुवात को समझता हूँ। मैं उसे समझता हूँ और उसके परे भी समझता हूँ। किन्तु समझकर उसे धारण नहीं करता। धारण न करने से, भीतर निर्वृत्ति का अनुभव करता हूँ। इस तरह प्रत्यक्ष जानने पर तथागत पर बरबादी नहीं आती।

(२) भग्गव, ऐसे श्रमण और ब्राह्मण होते हैं जो परंपरागत तौर पर बताते हैं कि दुनिया की शुरुवात खेल-प्रदूषितकृत है। मैं उनके पास जाकर कहता हूँ, “क्या वाकई आप परंपरागत तौर पर बताते हैं कि दुनिया की शुरुवात खेल-प्रदूषितकृत है?”

मेरे ऐसा पुछने पर वे “हाँ” कहते हैं। तब मैं उन्हें कहता हूँ, “किन्तु आप परंपरागत तौर पर किस तरह बताते हैं कि दुनिया की शुरुवात खेल-प्रदूषितकृत है?”

मेरे ऐसे पुछने पर वे स्तब्ध हो जाते हैं, और घूमकर मुझे ही पुछने लगते हैं। तब मैं उन्हें बताता हूँ, “ऐसा होता है, मित्रों, ‘खेल प्रदूषित’ नामक कुछ देव हैं। वे अधिक समय तक हँसने-खेलने में लगे रहते हैं। चूंकि वे अधिक समय तक हँसने-खेलने में लगे रहते हैं, तो उससे उनकी स्मरणशीलता क्षीण हो जाती है। स्मरणशीलता के क्षीण होने पर वे देव-काया से च्युत हो जाते हैं।

अब ऐसा संभव है, भिक्षुओं, कि कोई सत्व वहाँ से च्युत होकर यहाँ [मानवलोक में] उत्पन्न हो। यहाँ आकर वह घर से बेघर हो संन्यासी हो जाए, जो तत्परता के जरिए, उद्यमता के जरिए, दृढ़-संकल्प के जरिए, सतर्कता के जरिए, सही तरह ध्यान केन्द्रित करने से ऐसी चेतोसमाधि प्राप्त करे, जिस समाहित चित्त में उसे मात्र पिछला जन्म स्मरण हो, किन्तु उसके पूर्व के नहीं। वह कहता है, “जो माननीय देवतागण ‘खेल प्रदूषित’ नहीं हैं, वे अधिक समय तक हँसने-खेलने में नहीं लगे रहते हैं। चूंकि वे अधिक समय तक हँसने-खेलने में नहीं लगे रहते हैं, तो उनकी स्मरणशीलता क्षीण नहीं होती है। स्मरणशीलता के क्षीण न होने पर वे देव-काया से च्युत नहीं होते हैं — वे नित्य हैं, ध्रुव हैं, शाश्वत हैं, अपरिवर्तनशील हैं, और सदा बने रहेंगे। जबकि हम ‘खेल प्रदूषित’ होकर अधिक समय तक हँसने-खेलने में लगे रहें। अधिक समय तक हँसने-खेलने में लगे रहने से हमारी स्मरणशीलता क्षीण हो गयी। स्मरणशीलता के क्षीण होने पर हम देव-काया से च्युत हो गए। और मानवलोक में आए हम — अनित्य हैं, अध्रुव हैं, अल्पायु हैं, पतन-स्वभाव के हैं।” 8

क्या आप परंपरागत तौर पर इसी तरह बताते हैं कि दुनिया की शुरुवात खेल-प्रदूषितकृत है?”

तब वे कहते हैं, ‘हमने ऐसा ही सुना है, मित्र गौतम, जैसा गौतम ने बताया।’

भग्गव, मैं दुनिया की शुरुवात को समझता हूँ। मैं उसे समझता हूँ और उसके परे भी समझता हूँ। किन्तु समझकर उसे धारण नहीं करता। धारण न करने से, भीतर निर्वृत्ति का अनुभव करता हूँ। इस तरह प्रत्यक्ष जानने पर तथागत पर बरबादी नहीं आती।

(३) भग्गव, ऐसे श्रमण और ब्राह्मण होते हैं जो परंपरागत तौर पर बताते हैं कि दुनिया की शुरुवात मन-प्रदूषितकृत है। मैं उनके पास जाकर कहता हूँ, “क्या वाकई आप परंपरागत तौर पर बताते हैं कि दुनिया की शुरुवात मन-प्रदूषितकृत है?”

मेरे ऐसा पुछने पर वे “हाँ” कहते हैं। तब मैं उन्हें कहता हूँ, “किन्तु आप परंपरागत तौर पर किस तरह बताते हैं कि दुनिया की शुरुवात मन-प्रदूषितकृत है?”

मेरे ऐसे पुछने पर वे स्तब्ध हो जाते हैं, और घूमकर मुझे ही पुछने लगते हैं। तब मैं उन्हें बताता हूँ, “ऐसा होता है, मित्रों, ‘मन प्रदूषित’ नामक कुछ देव हैं। वे अधिक समय तक एक-दूसरे को निहारने में लगे रहते हैं। चूंकि वे अधिक समय तक एक-दूसरे को निहारने में लगे रहते हैं, तो एक-दूसरे के लिए उनका चित्त प्रदूषित हो जाता हैं। एक-दूसरे के लिए प्रदूषित चित्त होने पर उनकी काया थकती है और चित्त थकता है। तब वे देव-काया से च्युत हो जाते हैं।

अब ऐसा संभव है, भिक्षुओं, कि कोई सत्व वहाँ से च्युत होकर यहाँ [मानवलोक में] उत्पन्न हो। यहाँ आकर वह घर से बेघर हो संन्यासी हो जाए, जो तत्परता के जरिए, उद्यमता के जरिए, दृढ़-संकल्प के जरिए, सतर्कता के जरिए, सही तरह ध्यान केन्द्रित करने से ऐसी चेतोसमाधि प्राप्त करे, जिस समाहित चित्त में उसे मात्र पिछला जन्म स्मरण हो, किन्तु उसके पूर्व के नहीं। वह कहता है, “जो माननीय देवतागण ‘मन प्रदूषित’ नहीं हैं, वे अधिक समय तक एक-दूसरे को निहारने में नहीं लगे रहते हैं। चूंकि वे अधिक समय तक एक-दूसरे को निहारने में लगे नहीं रहते हैं, तो एक-दूसरे के लिए उनका चित्त प्रदूषित नहीं होता हैं। एक-दूसरे के लिए चित्त प्रदूषित न होने से उनकी काया थकती नहीं हैं और चित्त थकता नहीं हैं। तब वे देव-काया से च्युत नहीं होते हैं — वे नित्य हैं, ध्रुव हैं, शाश्वत हैं, अपरिवर्तनशील हैं, और सदा बने रहेंगे। जबकि हम ‘मन प्रदूषित’ होकर अधिक समय तक एक-दूसरे को निहारने में लगे रहें। अधिक समय तक एक-दूसरे को निहारने में लगे रहने से एक-दूसरे के प्रति हमारा चित्त प्रदूषित हो गया। एक-दूसरे के प्रति प्रदूषित चित्त होने पर हमारी काया थक गयी और चित्त थक गया। तब हम देव-काया से च्युत हो गये। और मानवलोक में आए हम — अनित्य हैं, अध्रुव हैं, अल्पायु हैं, पतन-स्वभाव के हैं।”9

क्या आप परंपरागत तौर पर इसी तरह बताते हैं कि दुनिया की शुरुवात मन-प्रदूषितकृत है?”

तब वे कहते हैं, ‘हमने ऐसा ही सुना है, मित्र गौतम, जैसा गौतम ने बताया।’

भग्गव, मैं दुनिया की शुरुवात को समझता हूँ। मैं उसे समझता हूँ और उसके परे भी समझता हूँ। किन्तु समझकर उसे धारण नहीं करता। धारण न करने से, भीतर निर्वृत्ति का अनुभव करता हूँ। इस तरह प्रत्यक्ष जानने पर तथागत पर बरबादी नहीं आती।

(४) भग्गव, ऐसे श्रमण और ब्राह्मण होते हैं जो परंपरागत तौर पर बताते हैं कि दुनिया की शुरुवात अनायास उत्पत्ति है। मैं उनके पास जाकर कहता हूँ, “क्या वाकई आप परंपरागत तौर पर बताते हैं कि दुनिया की शुरुवात अनायास उत्पत्ति है?”

मेरे ऐसा पुछने पर वे “हाँ” कहते हैं। तब मैं उन्हें कहता हूँ, “किन्तु आप परंपरागत तौर पर किस तरह बताते हैं कि दुनिया की शुरुवात अनायास उत्पत्ति है?”

मेरे ऐसे पुछने पर वे स्तब्ध हो जाते हैं, और घूमकर मुझे ही पुछने लगते हैं। तब मैं उन्हें बताता हूँ, “ऐसा होता है, मित्रों, ‘असंज्ञी’ [=अबोधगम्य] नामक कुछ देव हैं। किन्तु नज़रिया उत्पन्न होने पर वे देव-काया से च्युत हो जाते हैं। अब ऐसा संभव है कि कोई सत्व वहाँ से च्युत होकर यहाँ [मानवलोक में] उत्पन्न हो। यहाँ आकर वह घर से बेघर हो संन्यासी हो जाए, जो तत्परता के जरिए… ऐसी चेतोसमाधि प्राप्त करे, जिस समाहित चित्त में उसे नज़रिये का उत्पन्न होना स्मरण हो, किन्तु उसके पूर्व का कुछ नहीं। वह कहता है, “आत्मा और लोक की अनायास ही उत्पत्ति हुई है। ऐसा क्यों? पहले मैं नहीं था; अब हूँ। न होकर भी मैं उत्पन्न हो गया।”10

क्या आप परंपरागत तौर पर इसी तरह बताते हैं कि दुनिया की शुरुवात अनायास उत्पत्ति है?”

तब वे कहते हैं, ‘हमने ऐसा ही सुना है, मित्र गौतम, जैसा गौतम ने बताया।’ 11

भग्गव, मैं दुनिया की शुरुवात को समझता हूँ। मैं उसे समझता हूँ और उसके परे भी समझता हूँ। किन्तु समझकर उसे धारण नहीं करता। धारण न करने से, भीतर निर्वृत्ति का अनुभव करता हूँ। इस तरह प्रत्यक्ष जानने पर तथागत पर बरबादी नहीं आती।

भग्गव, मेरे ऐसे कहने पर, ऐसे दावा करने पर भी कुछ श्रमण और ब्राह्मण होते हैं, जो असत्य, तुच्छ, झूठ और तथ्यहीन शब्दों से मेरा मिथ्यावर्णन करते हैं, “श्रमण गौतम और भिक्षुगण उल्टे [=विपरीत] हैं। श्रमण गौतम कहता है, ‘जिस समय जो शुभ विमोक्ष से संपन्न होकर रहता है, उस समय वह सब अशुभ ही देखता है।’

किन्तु, भग्गव, मैं ऐसे नहीं कहता हूँ कि ‘जिस समय जो शुभ विमोक्ष से संपन्न होकर रहता है, उस समय वह सब अशुभ ही देखता है।’ बल्कि मैं कहता हूँ कि ‘जिस समय जो शुभ विमोक्ष से संपन्न होकर रहता है, उस समय वह सब शुभ ही देखता है।’”

“भंते, वे ही लोग उल्टे हैं, जो भगवान और भिक्षुओं पर उल्टे होने का आरोप करते हैं। किन्तु, भंते, मुझे भगवान पर आस्था है। यदि भगवान मुझे धर्म उपदेश करेंगे तो मैं शुभ विमोक्ष में संपन्न होकर रहूँगा।”

“तुम्हारे जैसे, भग्गव, जिसकी कोई दूसरी दृष्टि, दूसरी धारणा, दूसरी रुचि, दूसरी उपासना, दूसरा गुरु हो, उसके लिए शुभ विमोक्ष से संपन्न होकर रहना कठिन है। भग्गव, तुम्हें मेरे प्रति जो आस्था हो, उसी को अच्छे से बचाकर रखो।”

“भंते, यदि वाकई मेरे जैसे, जिसकी दूसरी दृष्टि, दूसरी धारणा, दूसरी रुचि, दूसरी उपासना, दूसरा गुरु हो, उसके लिए शुभ विमोक्ष से संपन्न होकर रहना कठिन है। तब भंते, मुझे भगवान के प्रति जो आस्था है, पहले उसी को अच्छे से बचाकर रखूँगा।”

भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर भग्गवगोत्र के घुमक्कड़ ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।

पाथिक सुत्त समाप्त।


  1. भगवान ने जब भी किसी को प्रवज्जा या उपसम्पदा के लिए कहा, कभी उसे अपने उद्देश्य से विहार करने नहीं कहा। बल्कि उनके शब्द होते थे, “आओ, भिक्षु! यह स्पष्ट बताया धर्म है। दुःखों का सम्यक अन्त करने के लिए इस ब्रह्मचर्य को धारण करो।” ↩︎

  2. भगवान ने दो भिक्षुओं को “अग्गञ्ञ सूत्र” अर्थात, दुनिया की शुरुवात बतायी थी। वह सूत्र इसी वर्ग में आगे दीघनिकाय २७ है। ↩︎

  3. कुरु को लगभग आठ भिन्न तरह से पुकारा जाता था, जैसे थूलू, बूमू, खूलू इत्यादि। कोरक्षत्रिय, शायद कोई “कुरु का क्षत्रिय” हो सकता है, जो घर से बेघर होकर नंगा साधू बना हो। ↩︎

  4. इस तरह की घटना प्राचीन बौद्ध साहित्य में अप्रत्याशित है। सुनक्खत का मृत व्यक्ति को तीन-बार थपथपाकर उठाना और गति बुलवाना उस समय भी सामान्य नहीं रहा होगा। हालाँकि दीघनिकाय ६ : महालि सूत्र में यह उल्लेख है कि सुनक्खत को कुछ सीमित ऋद्धियाँ प्राप्त थीं, और संभव है कि उसने इनका उपयोग किया हो। इससे संकेत मिलता है कि सुनक्खत का मानसिक झुकाव कैसा था, और क्यों उसकी भगवान पर से श्रद्धा समाप्त हुई। जो ब्रह्मचर्य का ध्येय ‘दुःखमुक्ति’ के बजाय ‘ऋद्धियाँ’ या ‘तमाशापूर्ण व्रत’ मानता हो, उससे क्या ही उम्मीद की जा सकती है? ↩︎

  5. भाषा और शैली से यह स्पष्ट है कि ये वाक्य बाद में जोड़े गए हैं। इस प्रकार की बड़ी-बड़ी बातें ‘प्राचीन बौद्ध साहित्य’ में नहीं मिलतीं। “महाबंधन से मोक्ष कराना, महा-दलदल से उबारना” जैसी आडंबरपूर्ण शब्दावली का वास्तविक अर्थ क्या है? क्या चौरासी हजार लोग अरहंत, अनागामी या श्रोतापन्न बने थे? प्राचीन बौद्ध साहित्य की शैली में इस तरह की वाक्य-रचना और शब्दावली नहीं पाई जातीं। वहाँ यह बताया जाता है कि ‘अमुक को धर्मचक्षु उत्पन्न हुए, ‘जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!’ या ‘अमुक ने आस्रवों के क्षय होने से अनास्रव होकर, इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार किया है।’ ‘अमुक निचले पाँच संयोजन तोड़कर स्वप्रकट [=ओपपातिक] हुआ है, जो वही [शुद्धवास ब्रह्मलोक में] परिनिर्वाण प्राप्त करेगा, अब इस लोक में नहीं लौटेगा।’ ‘अमुक तीन संयोजन तोड़कर, राग-द्वेष-मोह को दुर्बल कर, सकृदागामी बना है, जो इस लोक में दुबारा लौटकर अपने दुःखों का अन्त करेगा।’ ‘अमुक तीन संयोजन तोड़कर श्रोतापन्न बनी है, अ-पतन स्वभाव की, निश्चित संबोधि की ओर अग्रसर।’

    इसका मतलब यह नहीं कि भगवान ऋद्धि-चमत्कार नहीं दिखा सकते थे। वे दिखा सकते थे, जैसा कि विनयपिटक में उरुवेल कश्यप के प्रसंग में बताया गया है। लेकिन उस विवरण की भाषा और संदर्भ प्राचीन पालि से मेल खाते हैं, जबकि यहाँ ऐसा नहीं लगता। भगवान ने ऋद्धि-चमत्कार के अस्तित्व को नकारा नहीं (दीघनिकाय ११: केवट्ट सुत्त पढ़ें) और ऋद्धिबल प्राप्त करने के लिए चार इद्धिपद की शिक्षा दी। फिर भी, उनका सार्वजनिक रूप से चमत्कार दिखाना, खासकर वैशाली के प्रतिष्ठित व्यक्तियों के सामने, न केवल अविश्वसनीय है, बल्कि स्वयं भगवान के अनुसार हीन कृत्य है। विनयपिटक में उल्लेख है कि कुछ भिक्षुओं ने इसी प्रकार लोगों के समक्ष ऋद्धि का प्रदर्शन किया था। इसके बाद भगवान ने उनके लिए जो गंभीर उपमा दी, उसका उल्लेख मैं यहाँ नहीं करना चाहता। ↩︎

  6. ध्यान दें कि भगवान यहाँ ऋद्धि का दावा करते हुए अपनी भविष्यवाणी का उल्लेख करते है, किन्तु सबके आगे दिखायी ऋद्धि का नहीं। यदि भगवान ने सीधा सबके आगे ऋद्धि दिखा दिया हो, तो उसका उल्लेख छोड़कर, वे घुमा-फिराकर ऐसा दावा क्यों करेंगे जिसके लिए सोचना, अनुमान लगाना और निष्कर्ष निकालना पड़े? ↩︎

  7. यह पूर्ण विवरण दीघनिकाय १ : ब्रह्मजाल सुत्त “आंशिक-शाश्वतवाद” के पहले कारण से लिया गया है। ↩︎

  8. यह पूर्ण विवरण भी दीघनिकाय १ : ब्रह्मजाल सुत्त “आंशिक-शाश्वतवाद” के दूसरे कारण से लिया गया है। ↩︎

  9. यह पूर्ण विवरण भी दीघनिकाय १ : ब्रह्मजाल सुत्त “आंशिक-शाश्वतवाद” के तिसरे कारण से लिया गया है। ↩︎

  10. यह पूर्ण विवरण भी दीघनिकाय १ : ब्रह्मजाल सुत्त के पाँचवे “अनायास-उत्पत्ति” से लिया गया है। ↩︎

  11. जब भगवान ने दो भिक्षुओं को दीघनिकाय २७: अग्गञ्ञ सूत्र में दुनिया की शुरुआत का विस्तृत विवरण दिया था, तब इस सूत्र में ब्रह्मजाल सूत्र से उठाकर भिन्न वर्णन करने का अर्थ समझना कठिन प्रतीत होता है। ऐसा लगता है कि कई वर्षों बाद, असहज हुए भिक्षुओं ने इस सूत्र को रचा होगा, ताकि वे उस समय के प्रचलित आलोचनाओं और आक्षेपों का उत्तर देने का प्रयास कर सकें। इस प्रकार, यह सूत्र शायद तत्कालीन भिक्षुसंघ की चिंताओं और विवादों के प्रति एक प्रतिक्रिया के रूप में विकसित हुआ। ↩︎

Pali

सुनक्खत्तवत्थु

. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा मल्लेसु विहरति अनुपियं नाम [अनुप्पियं नाम (स्या॰)] मल्लानं निगमो। अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय अनुपियं पिण्डाय पाविसि। अथ खो भगवतो एतदहोसि – ‘‘अतिप्पगो खो ताव अनुपियायं [अनुपियं (क॰)] पिण्डाय चरितुं। यंनूनाहं येन भग्गवगोत्तस्स परिब्बाजकस्स आरामो, येन भग्गवगोत्तो परिब्बाजको तेनुपसङ्कमेय्य’’न्ति।

. अथ खो भगवा येन भग्गवगोत्तस्स परिब्बाजकस्स आरामो, येन भग्गवगोत्तो परिब्बाजको तेनुपसङ्कमि। अथ खो भग्गवगोत्तो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच – ‘‘एतु खो, भन्ते, भगवा। स्वागतं, भन्ते, भगवतो। चिरस्सं खो, भन्ते, भगवा इमं परियायमकासि यदिदं इधागमनाय। निसीदतु, भन्ते, भगवा, इदमासनं पञ्ञत्त’’न्ति। निसीदि भगवा पञ्ञत्ते आसने। भग्गवगोत्तोपि खो परिब्बाजको अञ्ञतरं नीचं आसनं गहेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो भग्गवगोत्तो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच – ‘‘पुरिमानि, भन्ते, दिवसानि पुरिमतरानि सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो येनाहं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा मं एतदवोच – ‘पच्चक्खातो दानि मया, भग्गव, भगवा। न दानाहं भगवन्तं उद्दिस्स विहरामी’ति। कच्चेतं, भन्ते, तथेव, यथा सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो अवचा’’ति? ‘‘तथेव खो एतं, भग्गव, यथा सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो अवच’’।

. पुरिमानि, भग्गव, दिवसानि पुरिमतरानि सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो येनाहं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा मं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो मं एतदवोच – ‘पच्चक्खामि दानाहं, भन्ते, भगवन्तं। न दानाहं, भन्ते, भगवन्तं उद्दिस्स विहरिस्सामी’ति। ‘एवं वुत्ते, अहं, भग्गव, सुनक्खत्तं लिच्छविपुत्तं एतदवोचं – ‘अपि नु ताहं, सुनक्खत्त, एवं अवचं, एहि त्वं, सुनक्खत्त, ममं उद्दिस्स विहराही’ति? ‘नो हेतं, भन्ते’। ‘त्वं वा पन मं एवं अवच – अहं, भन्ते, भगवन्तं उद्दिस्स विहरिस्सामी’ति? ‘नो हेतं, भन्ते’। ‘इति किर, सुनक्खत्त, नेवाहं तं वदामि – एहि त्वं, सुनक्खत्त, ममं उद्दिस्स विहराहीति। नपि किर मं त्वं वदेसि – अहं, भन्ते, भगवन्तं उद्दिस्स विहरिस्सामीति। एवं सन्ते, मोघपुरिस, को सन्तो कं पच्चाचिक्खसि? पस्स, मोघपुरिस, यावञ्च [याव च (क॰)] ते इदं अपरद्ध’न्ति।

. ‘न हि पन मे, भन्ते, भगवा उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करोती’ति। ‘अपि नु ताहं, सुनक्खत्त, एवं अवचं – एहि त्वं, सुनक्खत्त, ममं उद्दिस्स विहराहि, अहं ते उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करिस्सामी’ति? ‘नो हेतं, भन्ते’। ‘त्वं वा पन मं एवं अवच – अहं, भन्ते, भगवन्तं उद्दिस्स विहरिस्सामि, भगवा मे उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करिस्सती’ति? ‘नो हेतं, भन्ते’। ‘इति किर, सुनक्खत्त, नेवाहं तं वदामि – एहि त्वं, सुनक्खत्त, ममं उद्दिस्स विहराहि, अहं ते उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करिस्सामी’ति; नपि किर मं त्वं वदेसि – अहं, भन्ते, भगवन्तं उद्दिस्स विहरिस्सामि, भगवा मे उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करिस्सती’ति। एवं सन्ते, मोघपुरिस, को सन्तो कं पच्चाचिक्खसि? तं किं मञ्ञसि, सुनक्खत्त, कते वा उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारिये अकते वा उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारिये यस्सत्थाय मया धम्मो देसितो सो निय्याति तक्करस्स सम्मा दुक्खक्खयाया’ति? ‘कते वा, भन्ते, उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारिये अकते वा उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारिये यस्सत्थाय भगवता धम्मो देसितो सो निय्याति तक्करस्स सम्मा दुक्खक्खयाया’ति। ‘इति किर, सुनक्खत्त, कते वा उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारिये, अकते वा उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारिये, यस्सत्थाय मया धम्मो देसितो, सो निय्याति तक्करस्स सम्मा दुक्खक्खयाय। तत्र, सुनक्खत्त, किं उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं कतं करिस्सति? पस्स, मोघपुरिस, यावञ्च ते इदं अपरद्ध’न्ति।

. ‘न हि पन मे, भन्ते, भगवा अग्गञ्ञं पञ्ञपेती’ति [पञ्ञापेतीति (पी॰)]? ‘अपि नु ताहं, सुनक्खत्त, एवं अवचं – एहि त्वं, सुनक्खत्त, ममं उद्दिस्स विहराहि, अहं ते अग्गञ्ञं पञ्ञपेस्सामी’ति? ‘नो हेतं, भन्ते’। ‘त्वं वा पन मं एवं अवच – अहं, भन्ते, भगवन्तं उद्दिस्स विहरिस्सामि, भगवा मे अग्गञ्ञं पञ्ञपेस्सती’ति? ‘नो हेतं, भन्ते’। ‘इति किर, सुनक्खत्त, नेवाहं तं वदामि – एहि त्वं, सुनक्खत्त, ममं उद्दिस्स विहराहि, अहं ते अग्गञ्ञं पञ्ञपेस्सामीति। नपि किर मं त्वं वदेसि – अहं, भन्ते, भगवन्तं उद्दिस्स विहरिस्सामि, भगवा मे अग्गञ्ञं पञ्ञपेस्सती’ति। एवं सन्ते, मोघपुरिस, को सन्तो कं पच्चाचिक्खसि? तं किं मञ्ञसि, सुनक्खत्त, पञ्ञत्ते वा अग्गञ्ञे, अपञ्ञत्ते वा अग्गञ्ञे, यस्सत्थाय मया धम्मो देसितो, सो निय्याति तक्करस्स सम्मा दुक्खक्खयाया’ति? ‘पञ्ञत्ते वा, भन्ते, अग्गञ्ञे, अपञ्ञत्ते वा अग्गञ्ञे, यस्सत्थाय भगवता धम्मो देसितो, सो निय्याति तक्करस्स सम्मा दुक्खक्खयाया’ति। ‘इति किर, सुनक्खत्त, पञ्ञत्ते वा अग्गञ्ञे, अपञ्ञत्ते वा अग्गञ्ञे, यस्सत्थाय मया धम्मो देसितो, सो निय्याति तक्करस्स सम्मा दुक्खक्खयाय। तत्र, सुनक्खत्त, किं अग्गञ्ञं पञ्ञत्तं करिस्सति? पस्स, मोघपुरिस, यावञ्च ते इदं अपरद्धं’।

. ‘अनेकपरियायेन खो ते, सुनक्खत्त, मम वण्णो भासितो वज्जिगामे – इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवाति। इति खो ते, सुनक्खत्त, अनेकपरियायेन मम वण्णो भासितो वज्जिगामे।

‘अनेकपरियायेन खो ते, सुनक्खत्त, धम्मस्स वण्णो भासितो वज्जिगामे – स्वाक्खातो भगवता धम्मो सन्दिट्ठिको अकालिको एहिपस्सिको ओपनेय्यिको पच्चत्तं वेदितब्बो विञ्ञूहीति। इति खो ते, सुनक्खत्त, अनेकपरियायेन धम्मस्स वण्णो भासितो वज्जिगामे।

‘अनेकपरियायेन खो ते, सुनक्खत्त, सङ्घस्स वण्णो भासितो वज्जिगामे – सुप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो, उजुप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो, ञायप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो, सामीचिप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो, यदिदं चत्तारि पुरिसयुगानि अट्ठ पुरिसपुग्गला, एस भगवतो सावकसङ्घो, आहुनेय्यो पाहुनेय्यो दक्खिणेय्यो अञ्जलिकरणीयो अनुत्तरं पुञ्ञक्खेत्तं लोकस्साति। इति खो ते, सुनक्खत्त, अनेकपरियायेन सङ्घस्स वण्णो भासितो वज्जिगामे।

‘आरोचयामि खो ते, सुनक्खत्त, पटिवेदयामि खो ते, सुनक्खत्त। भविस्सन्ति खो ते, सुनक्खत्त, वत्तारो, नो विसहि सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो समणे गोतमे ब्रह्मचरियं चरितुं, सो अविसहन्तो सिक्खं पच्चक्खाय हीनायावत्तोति। इति खो ते, सुनक्खत्त, भविस्सन्ति वत्तारो’ति।

एवं पि खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो मया वुच्चमानो अपक्कमेव इमस्मा धम्मविनया, यथा तं आपायिको नेरयिको।

कोरक्खत्तियवत्थु

. ‘‘एकमिदाहं, भग्गव, समयं थूलूसु [बुमूसु (सी॰ पी॰)] विहरामि उत्तरका नाम थूलूनं निगमो। अथ ख्वाहं, भग्गव, पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय सुनक्खत्तेन लिच्छविपुत्तेन पच्छासमणेन उत्तरकं पिण्डाय पाविसिं। तेन खो पन समयेन अचेलो कोरक्खत्तियो कुक्कुरवतिको चतुक्कुण्डिको [चतुकुण्डिको (सी॰ पी॰) चतुकोण्डिको (स्या॰ क॰)] छमानिकिण्णं भक्खसं मुखेनेव खादति, मुखेनेव भुञ्जति। अद्दसा खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो अचेलं कोरक्खत्तियं कुक्कुरवतिकं चतुक्कुण्डिकं छमानिकिण्णं भक्खसं मुखेनेव खादन्तं मुखेनेव भुञ्जन्तं। दिस्वानस्स एतदहोसि – ‘साधुरूपो वत, भो, अयं [अरहं (सी॰ स्या॰ पी॰)] समणो चतुक्कुण्डिको छमानिकिण्णं भक्खसं मुखेनेव खादति, मुखेनेव भुञ्जती’ति।

‘‘अथ ख्वाहं, भग्गव, सुनक्खत्तस्स लिच्छविपुत्तस्स चेतसा चेतोपरिवितक्कमञ्ञाय सुनक्खत्तं लिच्छविपुत्तं एतदवोचं – ‘त्वम्पि नाम, मोघपुरिस, समणो सक्यपुत्तियो [मोघपुरिस सक्यपुत्तियो (सी॰ स्या॰ पी॰)] पटिजानिस्ससी’ति! ‘किं पन मं, भन्ते, भगवा एवमाह – ‘त्वम्पि नाम, मोघपुरिस, समणो सक्यपुत्तियो [मोघपुरिस सक्यपुत्तियो (सी॰ स्या॰ पी॰)] पटिजानिस्ससी’ति? ‘ननु ते, सुनक्खत्त, इमं अचेलं कोरक्खत्तियं कुक्कुरवतिकं चतुक्कुण्डिकं छमानिकिण्णं भक्खसं मुखेनेव खादन्तं मुखेनेव भुञ्जन्तं दिस्वान एतदहोसि – साधुरूपो वत, भो, अयं समणो चतुक्कुण्डिको छमानिकिण्णं भक्खसं मुखेनेव खादति, मुखेनेव भुञ्जती’ति? ‘एवं, भन्ते। किं पन, भन्ते, भगवा अरहत्तस्स मच्छरायती’ति? ‘न खो अहं, मोघपुरिस, अरहत्तस्स मच्छरायामि। अपि च, तुय्हेवेतं पापकं दिट्ठिगतं उप्पन्नं, तं पजह। मा ते अहोसि दीघरत्तं अहिताय दुक्खाय। यं खो पनेतं, सुनक्खत्त, मञ्ञसि अचेलं कोरक्खत्तियं – साधुरूपो अयं समणोति [मञ्ञसि ‘‘अचेलो कोरखत्तियो साधुरूपो अरहं समणोति’’ (स्या॰)]। सो सत्तमं दिवसं अलसकेन कालङ्करिस्सति। कालङ्कतो [कालकतो (सी॰ स्या॰ पी॰)] च कालकञ्चिका [कालकञ्जा (सी॰ पी॰), कालकञ्जिका (स्या॰)] नाम असुरा सब्बनिहीनो असुरकायो, तत्र उपपज्जिस्सति। कालङ्कतञ्च नं बीरणत्थम्बके सुसाने छड्डेस्सन्ति। आकङ्खमानो च त्वं, सुनक्खत्त, अचेलं कोरक्खत्तियं उपसङ्कमित्वा पुच्छेय्यासि – जानासि, आवुसो कोरक्खत्तिय [अचेल कोरखत्तिय (क॰)], अत्तनो गतिन्ति? ठानं खो पनेतं, सुनक्खत्त, विज्जति यं ते अचेलो कोरक्खत्तियो ब्याकरिस्सति – जानामि, आवुसो सुनक्खत्त, अत्तनो गतिं; कालकञ्चिका नाम असुरा सब्बनिहीनो असुरकायो, तत्राम्हि उपपन्नोति।

‘‘अथ खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो येन अचेलो कोरक्खत्तियो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा अचेलं कोरक्खत्तियं एतदवोच – ‘ब्याकतो खोसि, आवुसो कोरक्खत्तिय, समणेन गोतमेन – अचेलो कोरक्खत्तियो सत्तमं दिवसं अलसकेन कालङ्करिस्सति। कालङ्कतो च कालकञ्चिका नाम असुरा सब्बनिहीनो असुरकायो, तत्र उपपज्जिस्सति। कालङ्कतञ्च नं बीरणत्थम्बके सुसाने छड्डेस्सन्ती’ति। येन त्वं, आवुसो कोरक्खत्तिय, मत्तं मत्तञ्च भत्तं भुञ्जेय्यासि, मत्तं मत्तञ्च पानीयं पिवेय्यासि। यथा समणस्स गोतमस्स मिच्छा अस्स वचन’न्ति।

. ‘‘अथ खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो एकद्वीहिकाय सत्तरत्तिन्दिवानि गणेसि, यथा तं तथागतस्स असद्दहमानो। अथ खो, भग्गव, अचेलो कोरक्खत्तियो सत्तमं दिवसं अलसकेन कालमकासि। कालङ्कतो च कालकञ्चिका नाम असुरा सब्बनिहीनो असुरकायो, तत्र उपपज्जि। कालङ्कतञ्च नं बीरणत्थम्बके सुसाने छड्डेसुं।

. ‘‘अस्सोसि खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो – ‘अचेलो किर कोरक्खत्तियो अलसकेन कालङ्कतो बीरणत्थम्बके सुसाने छड्डितो’ति। अथ खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो येन बीरणत्थम्बकं सुसानं, येन अचेलो कोरक्खत्तियो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा अचेलं कोरक्खत्तियं तिक्खत्तुं पाणिना आकोटेसि – ‘जानासि, आवुसो कोरक्खत्तिय, अत्तनो गति’न्ति? अथ खो, भग्गव, अचेलो कोरक्खत्तियो पाणिना पिट्ठिं परिपुञ्छन्तो वुट्ठासि। ‘जानामि, आवुसो सुनक्खत्त, अत्तनो गतिं। कालकञ्चिका नाम असुरा सब्बनिहीनो असुरकायो, तत्राम्हि उपपन्नो’ति वत्वा तत्थेव उत्तानो पपति [परिपति (स्या॰ क॰)]।

१०. ‘‘अथ खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो येनाहं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा मं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नं खो अहं, भग्गव, सुनक्खत्तं लिच्छविपुत्तं एतदवोचं – ‘तं किं मञ्ञसि, सुनक्खत्त, यथेव ते अहं अचेलं कोरक्खत्तियं आरब्भ ब्याकासिं, तथेव तं विपाकं, अञ्ञथा वा’ति? ‘यथेव मे, भन्ते, भगवा अचेलं कोरक्खत्तियं आरब्भ ब्याकासि, तथेव तं विपाकं, नो अञ्ञथा’ति। ‘तं किं मञ्ञसि, सुनक्खत्त, यदि एवं सन्ते कतं वा होति उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं, अकतं वाति? ‘अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते कतं होति उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं, नो अकत’न्ति। ‘एवम्पि खो मं त्वं, मोघपुरिस, उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करोन्तं एवं वदेसि – न हि पन मे, भन्ते, भगवा उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करोतीति। पस्स, मोघपुरिस, यावञ्च ते इदं अपरद्ध’न्ति। ‘‘एवम्पि खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो मया वुच्चमानो अपक्कमेव इमस्मा धम्मविनया, यथा तं आपायिको नेरयिको।

अचेलकळारमट्टकवत्थु

११. ‘‘एकमिदाहं, भग्गव, समयं वेसालियं विहरामि महावने कूटागारसालायं। तेन खो पन समयेन अचेलो कळारमट्टको वेसालियं पटिवसति लाभग्गप्पत्तो चेव यसग्गप्पत्तो च वज्जिगामे। तस्स सत्तवतपदानि [सत्तवत्तपदानि (स्या॰ पी॰)] समत्तानि समादिन्नानि होन्ति – ‘यावजीवं अचेलको अस्सं, न वत्थं परिदहेय्यं, यावजीवं ब्रह्मचारी अस्सं, न मेथुनं धम्मं पटिसेवेय्यं, यावजीवं सुरामंसेनेव यापेय्यं, न ओदनकुम्मासं भुञ्जेय्यं। पुरत्थिमेन वेसालिं उदेनं नाम चेतियं, तं नातिक्कमेय्यं, दक्खिणेन वेसालिं गोतमकं नाम चेतियं, तं नातिक्कमेय्यं, पच्छिमेन वेसालिं सत्तम्बं नाम चेतियं, तं नातिक्कमेय्यं, उत्तरेन वेसालिं बहुपुत्तं नाम [बहुपुत्तकं नाम (स्या॰)] चेतियं तं नातिक्कमेय्य’न्ति। सो इमेसं सत्तन्नं वतपदानं समादानहेतु लाभग्गप्पत्तो चेव यसग्गप्पत्तो च वज्जिगामे।

१२. ‘‘अथ खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो येन अचेलो कळारमट्टको तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा अचेलं कळारमट्टकं पञ्हं अपुच्छि। तस्स अचेलो कळारमट्टको पञ्हं पुट्ठो न सम्पायासि। असम्पायन्तो कोपञ्च दोसञ्च अप्पच्चयञ्च पात्वाकासि। अथ खो, भग्गव, सुनक्खत्तस्स लिच्छविपुत्तस्स एतदहोसि – ‘साधुरूपं वत भो अरहन्तं समणं आसादिम्हसे [असादियिम्हसे (स्या॰)]। मा वत नो अहोसि दीघरत्तं अहिताय दुक्खाया’ति।

१३. ‘‘अथ खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो येनाहं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा मं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नं खो अहं, भग्गव, सुनक्खत्तं लिच्छविपुत्तं एतदवोचं – ‘त्वम्पि नाम, मोघपुरिस, समणो सक्यपुत्तियो पटिजानिस्ससी’ति! ‘किं पन मं, भन्ते, भगवा एवमाह – त्वम्पि नाम, मोघपुरिस, समणो सक्यपुत्तियो पटिजानिस्ससी’ति? ‘ननु त्वं, सुनक्खत्त, अचेलं कळारमट्टकं उपसङ्कमित्वा पञ्हं अपुच्छि। तस्स ते अचेलो कळारमट्टको पञ्हं पुट्ठो न सम्पायासि। असम्पायन्तो कोपञ्च दोसञ्च अप्पच्चयञ्च पात्वाकासि। तस्स ते एतदहोसि – ‘‘साधुरूपं वत, भो, अरहन्तं समणं आसादिम्हसे। मा वत नो अहोसि दीघरत्तं अहिताय दुक्खाया’ति। ‘एवं, भन्ते। किं पन, भन्ते, भगवा अरहत्तस्स मच्छरायती’ति? ‘न खो अहं, मोघपुरिस, अरहत्तस्स मच्छरायामि, अपि च तुय्हेवेतं पापकं दिट्ठिगतं उप्पन्नं, तं पजह। मा ते अहोसि दीघरत्तं अहिताय दुक्खाय। यं खो पनेतं, सुनक्खत्त, मञ्ञसि अचेलं कळारमट्टकं – साधुरूपो अयं [अरहं (स्या॰)] समणोति, सो नचिरस्सेव परिहितो सानुचारिको विचरन्तो ओदनकुम्मासं भुञ्जमानो सब्बानेव वेसालियानि चेतियानि समतिक्कमित्वा यसा निहीनो [यसानिकिण्णो (क॰)] कालं करिस्सती’ति।

‘‘‘अथ खो, भग्गव, अचेलो कळारमट्टको नचिरस्सेव परिहितो सानुचारिको विचरन्तो ओदनकुम्मासं भुञ्जमानो सब्बानेव वेसालियानि चेतियानि समतिक्कमित्वा यसा निहीनो कालमकासि।

१४. ‘‘अस्सोसि खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो – ‘अचेलो किर कळारमट्टको परिहितो सानुचारिको विचरन्तो ओदनकुम्मासं भुञ्जमानो सब्बानेव वेसालियानि चेतियानि समतिक्कमित्वा यसा निहीनो कालङ्कतो’ति। अथ खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो येनाहं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा मं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नं खो अहं, भग्गव, सुनक्खत्तं लिच्छविपुत्तं एतदवोचं – ‘तं किं मञ्ञसि, सुनक्खत्त, यथेव ते अहं अचेलं कळारमट्टकं आरब्भ ब्याकासिं, तथेव तं विपाकं, अञ्ञथा वा’ति? ‘यथेव मे, भन्ते, भगवा अचेलं कळारमट्टकं आरब्भ ब्याकासि, तथेव तं विपाकं, नो अञ्ञथा’ति। ‘तं किं मञ्ञसि, सुनक्खत्त, यदि एवं सन्ते कतं वा होति उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं अकतं वा’ति? ‘अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते कतं होति उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं, नो अकत’न्ति। ‘एवम्पि खो मं त्वं, मोघपुरिस, उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करोन्तं एवं वदेसि – न हि पन मे, भन्ते, भगवा उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करोती’’ति। पस्स, मोघपुरिस, यावञ्च ते इदं अपरद्ध’न्ति। ‘‘एव’म्पि खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो मया वुच्चमानो अपक्कमेव इमस्मा धम्मविनया, यथा तं आपायिको नेरयिको।

अचेलपाथिकपुत्तवत्थु

१५. ‘‘एकमिदाहं, भग्गव, समयं तत्थेव वेसालियं विहरामि महावने कूटागारसालायं। तेन खो पन समयेन अचेलो पाथिकपुत्तो [पाटिकपुत्तो (सी॰ स्या॰ पी॰)] वेसालियं पटिवसति लाभग्गप्पत्तो चेव यसग्गप्पत्तो च वज्जिगामे। सो वेसालियं परिसति एवं वाचं भासति – ‘समणोपि गोतमो ञाणवादो, अहम्पि ञाणवादो। ञाणवादो खो पन ञाणवादेन अरहति उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं दस्सेतुं। समणो गोतमो उपड्ढपथं आगच्छेय्य, अहम्पि उपड्ढपथं गच्छेय्यं। ते तत्थ उभोपि उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करेय्याम। एकं चे समणो गोतमो उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करिस्सति, द्वाहं करिस्सामि। द्वे चे समणो गोतमो उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियानि करिस्सति, चत्ताराहं करिस्सामि। चत्तारि चे समणो गोतमो उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियानि करिस्सति, अट्ठाहं करिस्सामि। इति यावतकं यावतकं समणो गोतमो उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करिस्सति, तद्दिगुणं तद्दिगुणाहं करिस्सामी’ति।

१६. ‘‘अथ खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो येनाहं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा मं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो मं एतदवोच – ‘अचेलो, भन्ते, पाथिकपुत्तो वेसालियं पटिवसति लाभग्गप्पत्तो चेव यसग्गप्पत्तो च वज्जिगामे। सो वेसालियं परिसति एवं वाचं भासति – समणोपि गोतमो ञाणवादो, अहम्पि ञाणवादो। ञाणवादो खो पन ञाणवादेन अरहति उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं दस्सेतुं। समणो गोतमो उपड्ढपथं आगच्छेय्य, अहम्पि उपड्ढपथं गच्छेय्यं। ते तत्थ उभोपि उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करेय्याम। एकं चे समणो गोतमो उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करिस्सति, द्वाहं करिस्सामि। द्वे चे समणो गोतमो उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियानि करिस्सति, चत्ताराहं करिस्सामि। चत्तारि चे समणो गोतमो उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियानि करिस्सति, अट्ठाहं करिस्सामि। इति यावतकं यावतकं समणो गोतमो उत्तरि मनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करिस्सति, तद्दिगुणं तद्दिगुणाहं करिस्सामी’’ति।

‘‘एवं वुत्ते, अहं, भग्गव, सुनक्खत्तं लिच्छविपुत्तं एतदवोचं – ‘अभब्बो खो, सुनक्खत्त, अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा मम सम्मुखीभावं आगन्तुं। सचेपिस्स एवमस्स – अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्यन्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्या’ति।

१७. ‘रक्खतेतं, भन्ते, भगवा वाचं, रक्खतेतं सुगतो वाच’न्ति। ‘किं पन मं त्वं, सुनक्खत्त, एवं वदेसि – रक्खतेतं, भन्ते, भगवा वाचं, रक्खतेतं सुगतो वाच’न्ति? ‘भगवता चस्स, भन्ते, एसा वाचा एकंसेन ओधारिता [ओवादिता (क॰)] – अभब्बो अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा मम सम्मुखीभावं आगन्तुं। सचेपिस्स एवमस्स – अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्यन्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्याति। अचेलो च, भन्ते, पाथिकपुत्तो विरूपरूपेन भगवतो सम्मुखीभावं आगच्छेय्य, तदस्स भगवतो मुसा’ति।

१८. ‘अपि नु, सुनक्खत्त, तथागतो तं वाचं भासेय्य या सा वाचा द्वयगामिनी’ति? ‘किं पन, भन्ते, भगवता अचेलो पाथिकपुत्तो चेतसा चेतो परिच्च विदितो – अभब्बो अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा मम सम्मुखीभावं आगन्तुं। सचेपिस्स एवमस्स – अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्यन्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्या’ति?

‘उदाहु, देवता भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं – अभब्बो, भन्ते, अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा भगवतो सम्मुखीभावं आगन्तुं। सचेपिस्स एवमस्स – अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्यन्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्या’ति?

१९. ‘चेतसा चेतो परिच्च विदितो चेव मे, सुनक्खत्त, अचेलो पाथिकपुत्तो अभब्बो अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा मम सम्मुखीभावं आगन्तुं। सचेपिस्स एवमस्स – अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्यन्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्या’ति।

‘देवतापि मे एतमत्थं आरोचेसुं – अभब्बो, भन्ते, अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा भगवतो सम्मुखीभावं आगन्तुं। सचेपिस्स एवमस्स – अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्यन्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्या’ति।

‘अजितोपि नाम लिच्छवीनं सेनापति अधुना कालङ्कतो तावतिंसकायं उपपन्नो। सोपि मं उपसङ्कमित्वा एवमारोचेसि – अलज्जी, भन्ते, अचेलो पाथिकपुत्तो; मुसावादी, भन्ते, अचेलो पाथिकपुत्तो। मम्पि, भन्ते, अचेलो पाथिकपुत्तो ब्याकासि वज्जिगामे – अजितो लिच्छवीनं सेनापति महानिरयं उपपन्नोति। न खो पनाहं, भन्ते, महानिरयं उपपन्नो; तावतिंसकायम्हि उपपन्नो। अलज्जी, भन्ते, अचेलो पाथिकपुत्तो; मुसावादी, भन्ते, अचेलो पाथिकपुत्तो; अभब्बो च, भन्ते, अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा भगवतो सम्मुखीभावं आगन्तुं। सचेपिस्स एवमस्स – अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्यन्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्या’ति।

‘इति खो, सुनक्खत्त, चेतसा चेतो परिच्च विदितो चेव मे अचेलो पाथिकपुत्तो अभब्बो अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा मम सम्मुखीभावं आगन्तुं। सचेपिस्स एवमस्स – अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्यन्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्याति। देवतापि मे एतमत्थं आरोचेसुं – अभब्बो, भन्ते, अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा भगवतो सम्मुखीभावं आगन्तुं। सचेपिस्स एवमस्स – अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्यन्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्या’ति।

‘सो खो पनाहं, सुनक्खत्त, वेसालियं पिण्डाय चरित्वा पच्छाभत्तं पिण्डपातप्पटिक्कन्तो येन अचेलस्स पाथिकपुत्तस्स आरामो तेनुपसङ्कमिस्सामि दिवाविहाराय। यस्सदानि त्वं, सुनक्खत्त, इच्छसि, तस्स आरोचेही’ति।

इद्धिपाटिहारियकथा

२०. ‘‘अथ ख्वाहं [अथ खो स्वाहं (स्या॰)], भग्गव, पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय वेसालिं पिण्डाय पाविसिं। वेसालियं पिण्डाय चरित्वा पच्छाभत्तं पिण्डपातप्पटिक्कन्तो येन अचेलस्स पाथिकपुत्तस्स आरामो तेनुपसङ्कमिं दिवाविहाराय। अथ खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो तरमानरूपो वेसालिं पविसित्वा येन अभिञ्ञाता अभिञ्ञाता लिच्छवी तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा अभिञ्ञाते अभिञ्ञाते लिच्छवी एतदवोच – ‘एसावुसो, भगवा वेसालियं पिण्डाय चरित्वा पच्छाभत्तं पिण्डपातप्पटिक्कन्तो येन अचेलस्स पाथिकपुत्तस्स आरामो तेनुपसङ्कमि दिवाविहाराय। अभिक्कमथायस्मन्तो अभिक्कमथायस्मन्तो, साधुरूपानं समणानं उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं भविस्सती’ति। अथ खो, भग्गव, अभिञ्ञातानं अभिञ्ञातानं लिच्छवीनं एतदहोसि – ‘साधुरूपानं किर, भो, समणानं उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं भविस्सति; हन्द वत, भो, गच्छामा’ति। येन च अभिञ्ञाता अभिञ्ञाता ब्राह्मणमहासाला गहपतिनेचयिका नानातित्थिया [नानातित्थिय (स्या॰)] समणब्राह्मणा तेनुपसङ्कमि। उपसङ्कमित्वा अभिञ्ञाते अभिञ्ञाते नानातित्थिये [नानातित्थिय (स्या॰)] समणब्राह्मणे एतदवोच – ‘एसावुसो, भगवा वेसालियं पिण्डाय चरित्वा पच्छाभत्तं पिण्डपातप्पटिक्कन्तो येन अचेलस्स पाथिकपुत्तस्स आरामो तेनुपसङ्कमि दिवाविहाराय। अभिक्कमथायस्मन्तो अभिक्कमथायस्मन्तो, साधुरूपानं समणानं उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं भविस्सती’ति। अथ खो, भग्गव, अभिञ्ञातानं अभिञ्ञातानं नानातित्थियानं समणब्राह्मणानं एतदहोसि – ‘साधुरूपानं किर, भो, समणानं उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं भविस्सति; हन्द वत, भो, गच्छामा’ति।

‘‘अथ खो, भग्गव, अभिञ्ञाता अभिञ्ञाता लिच्छवी, अभिञ्ञाता अभिञ्ञाता च ब्राह्मणमहासाला गहपतिनेचयिका नानातित्थिया समणब्राह्मणा येन अचेलस्स पाथिकपुत्तस्स आरामो तेनुपसङ्कमिंसु। सा एसा, भग्गव, परिसा महा होति [परिसा होति (सी॰ स्या॰ पी॰)] अनेकसता अनेकसहस्सा।

२१. ‘‘अस्सोसि खो, भग्गव, अचेलो पाथिकपुत्तो – ‘अभिक्कन्ता किर अभिञ्ञाता अभिञ्ञाता लिच्छवी, अभिक्कन्ता अभिञ्ञाता अभिञ्ञाता च ब्राह्मणमहासाला गहपतिनेचयिका नानातित्थिया समणब्राह्मणा। समणोपि गोतमो मय्हं आरामे दिवाविहारं निसिन्नो’ति। सुत्वानस्स भयं छम्भितत्तं लोमहंसो उदपादि। अथ खो, भग्गव, अचेलो पाथिकपुत्तो भीतो संविग्गो लोमहट्ठजातो येन तिन्दुकखाणुपरिब्बाजकारामो तेनुपसङ्कमि।

‘‘अस्सोसि खो, भग्गव, सा परिसा – ‘अचेलो किर पाथिकपुत्तो भीतो संविग्गो लोमहट्ठजातो येन तिन्दुकखाणुपरिब्बाजकारामो तेनुपसङ्कन्तो’ति [तेनुपसङ्कमन्तो (सी॰ पी॰ क॰)]। अथ खो, भग्गव, सा परिसा अञ्ञतरं पुरिसं आमन्तेसि –

‘एहि त्वं, भो पुरिस, येन तिन्दुकखाणुपरिब्बाजकारामो, येन अचेलो पाथिकपुत्तो तेनुपसङ्कम। उपसङ्कमित्वा अचेलं पाथिकपुत्तं एवं वदेहि – अभिक्कमावुसो, पाथिकपुत्त, अभिक्कन्ता अभिञ्ञाता अभिञ्ञाता लिच्छवी, अभिक्कन्ता अभिञ्ञाता अभिञ्ञाता च ब्राह्मणमहासाला गहपतिनेचयिका नानातित्थिया समणब्राह्मणा, समणोपि गोतमो आयस्मतो आरामे दिवाविहारं निसिन्नो; भासिता खो पन ते एसा, आवुसो पाथिकपुत्त, वेसालियं परिसति वाचा समणोपि गोतमो ञाणवादो, अहम्पि ञाणवादो। ञाणवादो खो पन ञाणवादेन अरहति उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं दस्सेतुं। समणो गोतमो उपड्ढपथं आगच्छेय्य अहम्पि उपड्ढपथं गच्छेय्यं। ते तत्थ उभोपि उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करेय्याम। एकं चे समणो गोतमो उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करिस्सति, द्वाहं करिस्सामि। द्वे चे समणो गोतमो उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियानि करिस्सति, चत्ताराहं करिस्सामि। चत्तारि चे समणो गोतमो उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियानि करिस्सति, अट्ठाहं करिस्सामि। इति यावतकं यावतकं समणो गोतमो उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करिस्सति, तद्दिगुणं तद्दिगुणाहं करिस्सामी’ति अभिक्कमस्सेव [अभिक्कमयेव (सी॰ स्या॰ पी॰)] खो; आवुसो पाथिकपुत्त, उपड्ढपथं। सब्बपठमंयेव आगन्त्वा समणो गोतमो आयस्मतो आरामे दिवाविहारं निसिन्नो’ति।

२२. ‘‘एवं, भोति खो, भग्गव, सो पुरिसो तस्सा परिसाय पटिस्सुत्वा येन तिन्दुकखाणुपरिब्बाजकारामो, येन अचेलो पाथिकपुत्तो तेनुपसङ्कमि। उपसङ्कमित्वा अचेलं पाथिकपुत्तं एतदवोच – ‘अभिक्कमावुसो पाथिकपुत्त, अभिक्कन्ता अभिञ्ञाता अभिञ्ञाता लिच्छवी, अभिक्कन्ता अभिञ्ञाता अभिञ्ञाता च ब्राह्मणमहासाला गहपतिनेचयिका नानातित्थिया समणब्राह्मणा। समणोपि गोतमो आयस्मतो आरामे दिवाविहारं निसिन्नो। भासिता खो पन ते एसा, आवुसो पाथिकपुत्त, वेसालियं परिसति वाचा – समणोपि गोतमो ञाणवादो; अहम्पि ञाणवादो। ञाणवादो खो पन ञाणवादेन अरहति उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं दस्सेतुं…पे॰… तद्दिगुणं तद्दिगुणाहं करिस्सामीति। अभिक्कमस्सेव खो, आवुसो पाथिकपुत्त, उपड्ढपथं। सब्बपठमंयेव आगन्त्वा समणो गोतमो आयस्मतो आरामे दिवाविहारं निसिन्नो’ति।

‘‘एवं वुत्ते, भग्गव, अचेलो पाथिकपुत्तो ‘आयामि आवुसो, आयामि आवुसो’ति वत्वा तत्थेव संसप्पति [संसब्बति (क॰)], न सक्कोति आसनापि वुट्ठातुं। अथ खो सो, भग्गव, पुरिसो अचेलं पाथिकपुत्तं एतदवोच – ‘किं सु नाम ते, आवुसो पाथिकपुत्त, पावळा सु नाम ते पीठकस्मिं अल्लीना, पीठकं सु नाम ते पावळासु अल्लीनं? आयामि आवुसो, आयामि आवुसोति वत्वा तत्थेव संसप्पसि, न सक्कोसि आसनापि वुट्ठातु’न्ति। एवम्पि खो, भग्गव, वुच्चमानो अचेलो पाथिकपुत्तो ‘आयामि आवुसो, आयामि आवुसो’ति वत्वा तत्थेव संसप्पति, न सक्कोति आसनापि वुट्ठातुं।

२३. ‘‘यदा खो सो, भग्गव, पुरिसो अञ्ञासि – ‘पराभूतरूपो अयं अचेलो पाथिकपुत्तो। आयामि आवुसो, आयामि आवुसोति वत्वा तत्थेव संसप्पति, न सक्कोति आसनापि वुट्ठातु’न्ति। अथ तं परिसं आगन्त्वा एवमारोचेसि – ‘पराभूतरूपो, भो [पराभूतरूपो भो अयं (स्या॰ क॰), पराभूतरूपो (सी॰ पी॰)], अचेलो पाथिकपुत्तो। आयामि आवुसो, आयामि आवुसोति वत्वा तत्थेव संसप्पति, न सक्कोति आसनापि वुट्ठातु’न्ति। एवं वुत्ते, अहं, भग्गव, तं परिसं एतदवोचं – ‘अभब्बो खो, आवुसो, अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा मम सम्मुखीभावं आगन्तुं। सचेपिस्स एवमस्स – ‘अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्य’न्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्याति।

पठमभाणवारो निट्ठितो।

२४. ‘‘अथ खो, भग्गव, अञ्ञतरो लिच्छविमहामत्तो उट्ठायासना तं परिसं एतदवोच – ‘तेन हि, भो, मुहुत्तं ताव आगमेथ, यावाहं गच्छामि [पच्चागच्छामि (?)]। अप्पेव नाम अहम्पि सक्कुणेय्यं अचेलं पाथिकपुत्तं इमं परिसं आनेतु’न्ति।

‘‘अथ खो सो, भग्गव, लिच्छविमहामत्तो येन तिन्दुकखाणुपरिब्बाजकारामो, येन अचेलो पाथिकपुत्तो तेनुपसङ्कमि। उपसङ्कमित्वा अचेलं पाथिकपुत्तं एतदवोच – ‘अभिक्कमावुसो पाथिकपुत्त, अभिक्कन्तं ते सेय्यो, अभिक्कन्ता अभिञ्ञाता अभिञ्ञाता लिच्छवी, अभिक्कन्ता अभिञ्ञाता अभिञ्ञाता च ब्राह्मणमहासाला गहपतिनेचयिका नानातित्थिया समणब्राह्मणा। समणोपि गोतमो आयस्मतो आरामे दिवाविहारं निसिन्नो। भासिता खो पन ते एसा, आवुसो पाथिकपुत्त, वेसालियं परिसति वाचा – समणोपि गोतमो ञाणवादो…पे॰… तद्दिगुणं तद्दिगुणाहं करिस्सामीति। अभिक्कमस्सेव खो, आवुसो पाथिकपुत्त, उपड्ढपथं। सब्बपठमंयेव आगन्त्वा समणो गोतमो आयस्मतो आरामे दिवाविहारं निसिन्नो। भासिता खो पनेसा, आवुसो पाथिकपुत्त, समणेन गोतमेन परिसति वाचा – अभब्बो खो अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा मम सम्मुखीभावं आगन्तुं। सचेपिस्स एवमस्स – अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्यन्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्याति। अभिक्कमावुसो पाथिकपुत्त, अभिक्कमनेनेव ते जयं करिस्साम, समणस्स गोतमस्स पराजय’न्ति।

‘‘एवं वुत्ते, भग्गव, अचेलो पाथिकपुत्तो ‘आयामि आवुसो, आयामि आवुसो’ति वत्वा तत्थेव संसप्पति, न सक्कोति आसनापि वुट्ठातुं। अथ खो सो, भग्गव, लिच्छविमहामत्तो अचेलं पाथिकपुत्तं एतदवोच – ‘किं सु नाम ते, आवुसो पाथिकपुत्त, पावळा सु नाम ते पीठकस्मिं अल्लीना, पीठकं सु नाम ते पावळासु अल्लीनं? आयामि आवुसो, आयामि आवुसोति वत्वा तत्थेव संसप्पसि, न सक्कोसि आसनापि वुट्ठातु’न्ति। एवम्पि खो, भग्गव, वुच्चमानो अचेलो पाथिकपुत्तो ‘आयामि आवुसो, आयामि आवुसो’ति वत्वा तत्थेव संसप्पति, न सक्कोति आसनापि वुट्ठातुं।

२५. ‘‘यदा खो सो, भग्गव, लिच्छविमहामत्तो अञ्ञासि – ‘पराभूतरूपो अयं अचेलो पाथिकपुत्तो आयामि आवुसो, आयामि आवुसोति वत्वा तत्थेव संसप्पति, न सक्कोति आसनापि वुट्ठातु’न्ति। अथ तं परिसं आगन्त्वा एवमारोचेसि – ‘पराभूतरूपो, भो [पराभूतरूपो (सी॰ पी॰), पराभूतरूपो अयं (स्या॰)], अचेलो पाथिकपुत्तो आयामि आवुसो, आयामि आवुसोति वत्वा तत्थेव संसप्पति, न सक्कोति आसनापि वुट्ठातु’न्ति। एवं वुत्ते, अहं, भग्गव, तं परिसं एतदवोचं – ‘अभब्बो खो, आवुसो, अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा मम सम्मुखीभावं आगन्तुं। सचेपिस्स एवमस्स – अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्यन्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्य। सचे पायस्मन्तानं लिच्छवीनं एवमस्स – मयं अचेलं पाथिकपुत्तं वरत्ताहि [याहि वरत्ताहि (स्या॰ क॰)] बन्धित्वा गोयुगेहि आविञ्छेय्यामाति [आविञ्जेय्यामाति (स्या॰), आविज्झेय्यामाति (सी॰ पी॰)], ता वरत्ता छिज्जेय्युं पाथिकपुत्तो वा। अभब्बो पन अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा मम सम्मुखीभावं आगन्तुं। सचेपिस्स एवमस्स – अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्यन्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्या’ति।

२६. ‘‘अथ खो, भग्गव, जालियो दारुपत्तिकन्तेवासी उट्ठायासना तं परिसं एतदवोच – ‘तेन हि, भो, मुहुत्तं ताव आगमेथ, यावाहं गच्छामि; अप्पेव नाम अहम्पि सक्कुणेय्यं अचेलं पाथिकपुत्तं इमं परिसं आनेतु’’न्ति।

‘‘अथ खो, भग्गव, जालियो दारुपत्तिकन्तेवासी येन तिन्दुकखाणुपरिब्बाजकारामो, येन अचेलो पाथिकपुत्तो तेनुपसङ्कमि। उपसङ्कमित्वा अचेलं पाथिकपुत्तं एतदवोच – ‘अभिक्कमावुसो पाथिकपुत्त, अभिक्कन्तं ते सेय्यो। अभिक्कन्ता अभिञ्ञाता अभिञ्ञाता लिच्छवी, अभिक्कन्ता अभिञ्ञाता अभिञ्ञाता च ब्राह्मणमहासाला गहपतिनेचयिका नानातित्थिया समणब्राह्मणा। समणोपि गोतमो आयस्मतो आरामे दिवाविहारं निसिन्नो। भासिता खो पन ते एसा, आवुसो पाथिकपुत्त, वेसालियं परिसति वाचा – समणोपि गोतमो ञाणवादो…पे॰… तद्दिगुणं तद्दिगुणाहं करिस्सामीति। अभिक्कमस्सेव, खो आवुसो पाथिकपुत्त, उपड्ढपथं। सब्बपठमंयेव आगन्त्वा समणो गोतमो आयस्मतो आरामे दिवाविहारं निसिन्नो। भासिता खो पनेसा, आवुसो पाथिकपुत्त, समणेन गोतमेन परिसति वाचा – अभब्बो अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा मम सम्मुखीभावं आगन्तुं। सचेपिस्स एवमस्स – अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्यन्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्य। सचे पायस्मन्तानं लिच्छवीनं एवमस्स – मयं अचेलं पाथिकपुत्तं वरत्ताहि बन्धित्वा गोयुगेहि आविञ्छेय्यामाति। ता वरत्ता छिज्जेय्युं पाथिकपुत्तो वा। अभब्बो पन अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा मम सम्मुखीभावं आगन्तुं। सचेपिस्स एवमस्स – अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं आगच्छेय्यन्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्याति। अभिक्कमावुसो पाथिकपुत्त, अभिक्कमनेनेव ते जयं करिस्साम, समणस्स गोतमस्स पराजय’न्ति।

‘‘एवं वुत्ते, भग्गव, अचेलो पाथिकपुत्तो ‘आयामि आवुसो, आयामि आवुसो’ति वत्वा तत्थेव संसप्पति, न सक्कोति आसनापि वुट्ठातुं। अथ खो, भग्गव, जालियो दारुपत्तिकन्तेवासी अचेलं पाथिकपुत्तं एतदवोच – ‘किं सु नाम ते, आवुसो पाथिकपुत्त, पावळा सु नाम ते पीठकस्मिं अल्लीना, पीठकं सु नाम ते पावळासु अल्लीनं? आयामि आवुसो, आयामि आवुसोति वत्वा तत्थेव संसप्पसि, न सक्कोसि आसनापि वुट्ठातु’न्ति। एवम्पि खो, भग्गव, वुच्चमानो अचेलो पाथिकपुत्तो ‘‘आयामि आवुसो, आयामि आवुसो’’ति वत्वा तत्थेव संसप्पति, न सक्कोति आसनापि वुट्ठातुन्ति।

२७. ‘‘यदा खो, भग्गव, जालियो दारुपत्तिकन्तेवासी अञ्ञासि – ‘पराभूतरूपो अयं अचेलो पाथिकपुत्तो ‘आयामि आवुसो, आयामि आवुसोति वत्वा तत्थेव संसप्पति, न सक्कोति आसनापि वुट्ठातु’न्ति, अथ नं एतदवोच –

‘भूतपुब्बं, आवुसो पाथिकपुत्त, सीहस्स मिगरञ्ञो एतदहोसि – यंनूनाहं अञ्ञतरं वनसण्डं निस्साय आसयं कप्पेय्यं। तत्रासयं कप्पेत्वा सायन्हसमयं आसया निक्खमेय्यं, आसया निक्खमित्वा विजम्भेय्यं, विजम्भित्वा समन्ता चतुद्दिसा अनुविलोकेय्यं, समन्ता चतुद्दिसा अनुविलोकेत्वा तिक्खत्तुं सीहनादं नदेय्यं, तिक्खत्तुं सीहनादं नदित्वा गोचराय पक्कमेय्यं। सो वरं वरं मिगसंघे [मिगसंघं (स्या॰ क॰)] वधित्वा मुदुमंसानि मुदुमंसानि भक्खयित्वा तमेव आसयं अज्झुपेय्य’न्ति।

‘अथ खो, आवुसो, सो सीहो मिगराजा अञ्ञतरं वनसण्डं निस्साय आसयं कप्पेसि। तत्रासयं कप्पेत्वा सायन्हसमयं आसया निक्खमि, आसया निक्खमित्वा विजम्भि, विजम्भित्वा समन्ता चतुद्दिसा अनुविलोकेसि, समन्ता चतुद्दिसा अनुविलोकेत्वा तिक्खत्तुं सीहनादं नदि, तिक्खत्तुं सीहनादं नदित्वा गोचराय पक्कामि। सो वरं वरं मिगसङ्घे वधित्वा मुदुमंसानि मुदुमंसानि भक्खयित्वा तमेव आसयं अज्झुपेसि।

२८. ‘तस्सेव खो, आवुसो पाथिकपुत्त, सीहस्स मिगरञ्ञो विघाससंवड्ढो जरसिङ्गालो [जरसिगालो (सी॰ स्या॰ पी॰)] दित्तो चेव बलवा च। अथ खो, आवुसो, तस्स जरसिङ्गालस्स एतदहोसि – को चाहं, को सीहो मिगराजा। यंनूनाहम्पि अञ्ञतरं वनसण्डं निस्साय आसयं कप्पेय्यं। तत्रासयं कप्पेत्वा सायन्हसमयं आसया निक्खमेय्यं, आसया निक्खमित्वा विजम्भेय्यं, विजम्भित्वा समन्ता चतुद्दिसा अनुविलोकेय्यं, समन्ता चतुद्दिसा अनुविलोकेत्वा तिक्खत्तुं सीहनादं नदेय्यं, तिक्खत्तुं सीहनादं नदित्वा गोचराय पक्कमेय्यं। सो वरं वरं मिगसङ्घे वधित्वा मुदुमंसानि मुदुमंसानि भक्खयित्वा तमेव आसयं अज्झुपेय्य’न्ति।

‘अथ खो सो, आवुसो, जरसिङ्गालो अञ्ञतरं वनसण्डं निस्साय आसयं कप्पेसि। तत्रासयं कप्पेत्वा सायन्हसमयं आसया निक्खमि, आसया निक्खमित्वा विजम्भि, विजम्भित्वा समन्ता चतुद्दिसा अनुविलोकेसि, समन्ता चतुद्दिसा अनुविलोकेत्वा तिक्खत्तुं सीहनादं नदिस्सामीति सिङ्गालकंयेव अनदि भेरण्डकंयेव [भेदण्डकंयेव (क॰)] अनदि, के च छवे सिङ्गाले, के पन सीहनादेति [सीहनादे (?)]।

‘एवमेव खो त्वं, आवुसो पाथिकपुत्त, सुगतापदानेसु जीवमानो सुगतातिरित्तानि भुञ्जमानो तथागते अरहन्ते सम्मासम्बुद्धे आसादेतब्बं मञ्ञसि। के च छवे पाथिकपुत्ते, का च तथागतानं अरहन्तानं सम्मासम्बुद्धानं आसादना’ति।

२९. ‘‘यतो खो, भग्गव, जालियो दारुपत्तिकन्तेवासी इमिना ओपम्मेन नेव असक्खि अचेलं पाथिकपुत्तं तम्हा आसना चावेतुं। अथ नं एतदवोच –

‘सीहोति अत्तानं समेक्खियान,

अमञ्ञि कोत्थु मिगराजाहमस्मि।

तथेव [तमेव (स्या॰)] सो सिङ्गालकं अनदि,

के च छवे सिङ्गाले के पन सीहनादे’ति॥

‘एवमेव खो त्वं, आवुसो पाथिकपुत्त, सुगतापदानेसु जीवमानो सुगतातिरित्तानि भुञ्जमानो तथागते अरहन्ते सम्मासम्बुद्धे आसादेतब्बं मञ्ञसि। के च छवे पाथिकपुत्ते, का च तथागतानं अरहन्तानं सम्मासम्बुद्धानं आसादना’ति।

३०. ‘‘यतो खो, भग्गव, जालियो दारुपत्तिकन्तेवासी इमिनापि ओपम्मेन नेव असक्खि अचेलं पाथिकपुत्तं तम्हा आसना चावेतुं। अथ नं एतदवोच –

‘अञ्ञं अनुचङ्कमनं, अत्तानं विघासे समेक्खिय।

याव अत्तानं न पस्सति, कोत्थु ताव ब्यग्घोति मञ्ञति॥

तथेव सो सिङ्गालकं अनदि।

के च छवे सिङ्गाले के पन सीहनादे’ति॥

‘एवमेव खो त्वं, आवुसो पाथिकपुत्त, सुगतापदानेसु जीवमानो सुगतातिरित्तानि भुञ्जमानो तथागते अरहन्ते सम्मासम्बुद्धे आसादेतब्बं मञ्ञसि। के च छवे पाथिकपुत्ते, का च तथागतानं अरहन्तानं सम्मासम्बुद्धानं आसादना’ति।

३१. ‘‘यतो खो, भग्गव, जालियो दारुपत्तिकन्तेवासी इमिनापि ओपम्मेन नेव असक्खि अचेलं पाथिकपुत्तं तम्हा आसना चावेतुं। अथ नं एतदवोच –

‘भुत्वान भेके [भिङ्गे (क॰)] खलमूसिकायो,

कटसीसु खित्तानि च कोणपानि [कूणपानि (स्या॰)]।

महावने सुञ्ञवने विवड्ढो,

अमञ्ञि कोत्थु मिगराजाहमस्मि॥

तथेव सो सिङ्गालकं अनदि।

के च छवे सिङ्गाले के पन सीहनादे’ति॥

‘एवमेव खो त्वं, आवुसो पाथिकपुत्त, सुगतापदानेसु जीवमानो सुगतातिरित्तानि भुञ्जमानो तथागते अरहन्ते सम्मासम्बुद्धे आसादेतब्बं मञ्ञसि। के च छवे पाथिकपुत्ते, का च तथागतानं अरहन्तानं सम्मासम्बुद्धानं आसादना’ति।

३२. ‘‘यतो खो, भग्गव, जालियो दारुपत्तिकन्तेवासी इमिनापि ओपम्मेन नेव असक्खि अचेलं पाथिकपुत्तं तम्हा आसना चावेतुं। अथ तं परिसं आगन्त्वा एवमारोचेसि – ‘पराभूतरूपो, भो, अचेलो पाथिकपुत्तो आयामि आवुसो, आयामि आवुसोति वत्वा तत्थेव संसप्पति, न सक्कोति आसनापि वुट्ठातु’न्ति।

३३. ‘‘एवं वुत्ते, अहं, भग्गव, तं परिसं एतदवोचं – ‘अभब्बो खो, आवुसो, अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा मम सम्मुखीभावं आगन्तुं। सचेपिस्स एवमस्स – अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्यन्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्य। सचेपायस्मन्तानं लिच्छवीनं एवमस्स – मयं अचेलं पाथिकपुत्तं वरत्ताहि बन्धित्वा नागेहि [गोयुगेहि (सब्बत्थ) अट्ठकथा पस्सितब्बा] आविञ्छेय्यामाति। ता वरत्ता छिज्जेय्युं पाथिकपुत्तो वा। अभब्बो पन अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा मम सम्मुखीभावं आगन्तुं। सचेपिस्स एवमस्स – अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्यन्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्या’ति।

३४. ‘‘अथ ख्वाहं, भग्गव, तं परिसं धम्मिया कथाय सन्दस्सेसिं समादपेसिं समुत्तेजेसिं सम्पहंसेसिं, तं परिसं धम्मिया कथाय सन्दस्सेत्वा समादपेत्वा समुत्तेजेत्वा सम्पहंसेत्वा महाबन्धना मोक्खं करित्वा चतुरासीतिपाणसहस्सानि महाविदुग्गा उद्धरित्वा तेजोधातुं समापज्जित्वा सत्ततालं वेहासं अब्भुग्गन्त्वा अञ्ञं सत्ततालम्पि अच्चिं [अग्गिं (स्या॰)] अभिनिम्मिनित्वा पज्जलित्वा धूमायित्वा [धूपायित्वा (सी॰ पी॰)] महावने कूटागारसालायं पच्चुट्ठासिं।

३५. ‘‘अथ खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो येनाहं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा मं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नं खो अहं, भग्गव, सुनक्खत्तं लिच्छविपुत्तं एतदवोचं – ‘तं किं मञ्ञसि, सुनक्खत्त, यथेव ते अहं अचेलं पाथिकपुत्तं आरब्भ ब्याकासिं, तथेव तं विपाकं अञ्ञथा वा’ति? ‘यथेव मे, भन्ते, भगवा अचेलं पाथिकपुत्तं आरब्भ ब्याकासि, तथेव तं विपाकं, नो अञ्ञथा’ति।

‘तं किं मञ्ञसि, सुनक्खत्त, यदि एवं सन्ते कतं वा होति उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं, अकतं वा’ति? ‘अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते कतं होति उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं, नो अकत’न्ति। ‘एवम्पि खो मं त्वं, मोघपुरिस, उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करोन्तं एवं वदेसि – न हि पन मे, भन्ते, भगवा उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करोतीति। पस्स, मोघपुरिस, यावञ्च ते इदं अपरद्धं’ति।

‘‘एवम्पि खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो मया वुच्चमानो अपक्कमेव इमस्मा धम्मविनया, यथा तं आपायिको नेरयिको।

अग्गञ्ञपञ्ञत्तिकथा

३६. ‘‘अग्गञ्ञञ्चाहं, भग्गव, पजानामि। तञ्च पजानामि [‘‘तञ्चपजानामी’’ति इदं स्यापोत्थकेनत्थि], ततो च उत्तरितरं पजानामि, तञ्च पजानं [पजाननं (स्या॰ क॰) अट्ठकथासंवण्णना पस्सितब्बा] न परामसामि, अपरामसतो च मे पच्चत्तञ्ञेव निब्बुति विदिता, यदभिजानं तथागतो नो अनयं आपज्जति।

३७. ‘‘सन्ति, भग्गव, एके समणब्राह्मणा इस्सरकुत्तं ब्रह्मकुत्तं आचरियकं अग्गञ्ञं पञ्ञपेन्ति। त्याहं उपसङ्कमित्वा एवं वदामि – ‘सच्चं किर तुम्हे आयस्मन्तो इस्सरकुत्तं ब्रह्मकुत्तं आचरियकं अग्गञ्ञं पञ्ञपेथा’ति? ते च मे एवं पुट्ठा, ‘आमो’ति [आमाति (स्या॰)] पटिजानन्ति। त्याहं एवं वदामि – ‘कथंविहितकं पन [कथं विहितकंनो पन (क॰)] तुम्हे आयस्मन्तो इस्सरकुत्तं ब्रह्मकुत्तं आचरियकं अग्गञ्ञं पञ्ञपेथा’ति? ते मया पुट्ठा न सम्पायन्ति, असम्पायन्ता ममञ्ञेव पटिपुच्छन्ति। तेसाहं पुट्ठो ब्याकरोमि –

३८. ‘होति खो सो, आवुसो, समयो यं कदाचि करहचि दीघस्स अद्धुनो अच्चयेन अयं लोको संवट्टति। संवट्टमाने लोके येभुय्येन सत्ता आभस्सरसंवत्तनिका होन्ति। ते तत्थ होन्ति मनोमया पीतिभक्खा सयंपभा अन्तलिक्खचरा सुभट्ठायिनो चिरं दीघमद्धानं तिट्ठन्ति।

‘होति खो सो, आवुसो, समयो यं कदाचि करहचि दीघस्स अद्धुनो अच्चयेन अयं लोको विवट्टति। विवट्टमाने लोके सुञ्ञं ब्रह्मविमानं पातुभवति। अथ खो [अथ (सी॰ स्या॰ पी॰)] अञ्ञतरो सत्तो आयुक्खया वा पुञ्ञक्खया वा आभस्सरकाया चवित्वा सुञ्ञं ब्रह्मविमानं उपपज्जति। सो तत्थ होति मनोमयो पीतिभक्खो सयंपभो अन्तलिक्खचरो सुभट्ठायी, चिरं दीघमद्धानं तिट्ठति।

‘तस्स तत्थ एककस्स दीघरत्तं निवुसितत्ता अनभिरति परितस्सना उप्पज्जति – अहो वत अञ्ञेपि सत्ता इत्थत्तं आगच्छेय्युन्ति। अथ अञ्ञेपि सत्ता आयुक्खया वा पुञ्ञक्खया वा आभस्सरकाया चवित्वा ब्रह्मविमानं उपपज्जन्ति तस्स सत्तस्स सहब्यतं। तेपि तत्थ होन्ति मनोमया पीतिभक्खा सयंपभा अन्तलिक्खचरा सुभट्ठायिनो, चिरं दीघमद्धानं तिट्ठन्ति।

३९. ‘तत्रावुसो, यो सो सत्तो पठमं उपपन्नो, तस्स एवं होति – अहमस्मि ब्रह्मा महाब्रह्मा अभिभू अनभिभूतो अञ्ञदत्थुदसो वसवत्ती इस्सरो कत्ता निम्माता सेट्ठो सजिता [सञ्जिता (सी॰ पी॰), सज्जिता (स्या॰ कं॰)] वसी पिता भूतभब्यानं, मया इमे सत्ता निम्मिता। तं किस्स हेतु? ममञ्हि पुब्बे एतदहोसि – अहो वत अञ्ञेपि सत्ता इत्थत्तं आगच्छेय्युन्ति; इति मम च मनोपणिधि। इमे च सत्ता इत्थत्तं आगताति।

‘येपि ते सत्ता पच्छा उपपन्ना, तेसम्पि एवं होति – अयं खो भवं ब्रह्मा महाब्रह्मा अभिभू अनभिभूतो अञ्ञदत्थुदसो वसवत्ती इस्सरो कत्ता निम्माता सेट्ठो सजिता वसी पिता भूतभब्यानं; इमिना मयं भोता ब्रह्मुना निम्मिता। तं किस्स हेतु? इमञ्हि मयं अद्दसाम इध पठमं उपपन्नं; मयं पनाम्ह पच्छा उपपन्नाति।

४०. ‘तत्रावुसो, यो सो सत्तो पठमं उपपन्नो, सो दीघायुकतरो च होति वण्णवन्ततरो च महेसक्खतरो च। ये पन ते सत्ता पच्छा उपपन्ना, ते अप्पायुकतरा च होन्ति दुब्बण्णतरा च अप्पेसक्खतरा च।

‘ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्जति, यं अञ्ञतरो सत्तो तम्हा काया चवित्वा इत्थत्तं आगच्छति। इत्थत्तं आगतो समानो अगारस्मा अनगारियं पब्बजति। अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो समानो आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते तं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति; ततो परं नानुस्सरति।

‘सो एवमाह – यो खो सो भवं ब्रह्मा महाब्रह्मा अभिभू अनभिभूतो अञ्ञदत्थुदसो वसवत्ती इस्सरो कत्ता निम्माता सेट्ठो सजिता वसी पिता भूतभब्यानं, येन मयं भोता ब्रह्मुना निम्मिता। सो निच्चो धुवो [सस्सतो दीघायुको (स्या॰ क॰)] सस्सतो अविपरिणामधम्मो सस्सतिसमं तथेव ठस्सति। ये पन मयं अहुम्हा तेन भोता ब्रह्मुना निम्मिता, ते मयं अनिच्चा अद्धुवा [अद्धुवा असस्सता (स्या॰ क॰)] अप्पायुका चवनधम्मा इत्थत्तं आगता’ति। एवंविहितकं नो तुम्हे आयस्मन्तो इस्सरकुत्तं ब्रह्मकुत्तं आचरियकं अग्गञ्ञं पञ्ञपेथाति। ‘ते एवमाहंसु – एवं खो नो, आवुसो गोतम, सुतं, यथेवायस्मा गोतमो आहा’ति। ‘‘अग्गञ्ञञ्चाहं, भग्गव, पजानामि। तञ्च पजानामि, ततो च उत्तरितरं पजानामि, तञ्च पजानं न परामसामि, अपरामसतो च मे पच्चत्तञ्ञेव निब्बुति विदिता। यदभिजानं तथागतो नो अनयं आपज्जति।

४१. ‘‘सन्ति, भग्गव, एके समणब्राह्मणा खिड्डापदोसिकं आचरियकं अग्गञ्ञं पञ्ञपेन्ति। त्याहं उपसङ्कमित्वा एवं वदामि – ‘सच्चं किर तुम्हे आयस्मन्तो खिड्डापदोसिकं आचरियकं अग्गञ्ञं पञ्ञपेथा’ति? ते च मे एवं पुट्ठा ‘आमो’ति पटिजानन्ति। त्याहं एवं वदामि – ‘कथंविहितकं पन तुम्हे आयस्मन्तो खिड्डापदोसिकं आचरियकं अग्गञ्ञं पञ्ञपेथा’ति? ते मया पुट्ठा न सम्पायन्ति, असम्पायन्ता ममञ्ञेव पटिपुच्छन्ति, तेसाहं पुट्ठो ब्याकरोमि –

४२. ‘सन्तावुसो, खिड्डापदोसिका नाम देवा। ते अतिवेलं हस्सखिड्डारतिधम्मसमापन्ना [हसखिड्डारतिधम्मसमापन्ना (क॰)] विहरन्ति। तेसं अतिवेलं हस्सखिड्डारतिधम्मसमापन्नानं विहरतं सति सम्मुस्सति, सतिया सम्मोसा [सतिया सम्मोसाय (स्या॰)] ते देवा तम्हा काया चवन्ति।

‘ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्जति, यं अञ्ञतरो सत्तो तम्हा काया चवित्वा इत्थत्तं आगच्छति, इत्थत्तं आगतो समानो अगारस्मा अनगारियं पब्बजति, अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो समानो आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते तं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति; ततो परं नानुस्सरति।

‘सो एवमाह – ये खो ते भोन्तो देवा न खिड्डापदोसिका ते न अतिवेलं हस्सखिड्डारतिधम्मसमापन्ना विहरन्ति। तेसं नातिवेलं हस्सखिड्डारतिधम्मसमापन्नानं विहरतं सति न सम्मुस्सति, सतिया असम्मोसा ते देवा तम्हा काया न चवन्ति, निच्चा धुवा सस्सता अविपरिणामधम्मा सस्सतिसमं तथेव ठस्सन्ति। ये पन मयं अहुम्हा खिड्डापदोसिका ते मयं अतिवेलं हस्सखिड्डारतिधम्मसमापन्ना विहरिम्हा, तेसं नो अतिवेलं हस्सखिड्डारतिधम्मसमापन्नानं विहरतं सति सम्मुस्सति, सतिया सम्मोसा एवं [सम्मोसा एव (सी॰ पी॰) सम्मोसा ते (स्या॰ क॰)] मयं तम्हा काया चुता, अनिच्चा अद्धुवा अप्पायुका चवनधम्मा इत्थत्तं आगताति। एवंविहितकं नो तुम्हे आयस्मन्तो खिड्डापदोसिकं आचरियकं अग्गञ्ञं पञ्ञपेथा’ति। ‘ते एवमाहंसु – एवं खो नो, आवुसो गोतम, सुतं, यथेवायस्मा गोतमो आहा’ति। ‘‘अग्गञ्ञञ्चाहं, भग्गव, पजानामि…पे॰… यदभिजानं तथागतो नो अनयं आपज्जति।

४३. ‘‘सन्ति, भग्गव, एके समणब्राह्मणा मनोपदोसिकं आचरियकं अग्गञ्ञं पञ्ञपेन्ति। त्याहं उपसङ्कमित्वा एवं वदामि – ‘सच्चं किर तुम्हे आयस्मन्तो मनोपदोसिकं आचरियकं अग्गञ्ञं पञ्ञपेथा’ति? ते च मे एवं पुट्ठा ‘आमो’ति पटिजानन्ति। त्याहं एवं वदामि – ‘कथंविहितकं पन तुम्हे आयस्मन्तो मनोपदोसिकं आचरियकं अग्गञ्ञं पञ्ञपेथा’ति? ते मया पुट्ठा न सम्पायन्ति, असम्पायन्ता ममञ्ञेव पटिपुच्छन्ति। तेसाहं पुट्ठो ब्याकरोमि –

४४. ‘सन्तावुसो, मनोपदोसिका नाम देवा। ते अतिवेलं अञ्ञमञ्ञं उपनिज्झायन्ति। ते अतिवेलं अञ्ञमञ्ञं उपनिज्झायन्ता अञ्ञमञ्ञम्हि चित्तानि पदूसेन्ति। ते अञ्ञमञ्ञं पदुट्ठचित्ता किलन्तकाया किलन्तचित्ता। ते देवा तम्हा काया चवन्ति।

‘ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्जति, यं अञ्ञतरो सत्तो तम्हा काया चवित्वा इत्थत्तं आगच्छति। इत्थत्तं आगतो समानो अगारस्मा अनगारियं पब्बजति। अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो समानो आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते तं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, ततो परं नानुस्सरति।

‘सो एवमाह – ये खो ते भोन्तो देवा न मनोपदोसिका ते नातिवेलं अञ्ञमञ्ञं उपनिज्झायन्ति। ते नातिवेलं अञ्ञमञ्ञं उपनिज्झायन्ता अञ्ञमञ्ञम्हि चित्तानि नप्पदूसेन्ति। ते अञ्ञमञ्ञं अप्पदुट्ठचित्ता अकिलन्तकाया अकिलन्तचित्ता। ते देवा तम्हा [अकिलन्तचित्ता तम्हा (क॰)] काया न चवन्ति, निच्चा धुवा सस्सता अविपरिणामधम्मा सस्सतिसमं तथेव ठस्सन्ति। ये पन मयं अहुम्हा मनोपदोसिका, ते मयं अतिवेलं अञ्ञमञ्ञं उपनिज्झायिम्हा। ते मयं अतिवेलं अञ्ञमञ्ञं उपनिज्झायन्ता अञ्ञमञ्ञम्हि चित्तानि पदूसिम्हा [पदोसियिम्हा (स्या॰), पदूसयिम्हा (?)]। ते मयं अञ्ञमञ्ञं पदुट्ठचित्ता किलन्तकाया किलन्तचित्ता। एवं मयं [किलन्तचित्ताएव मयं (सी॰ पी॰), किलन्तचित्ता (क॰)] तम्हा काया चुता, अनिच्चा अद्धुवा अप्पायुका चवनधम्मा इत्थत्तं आगताति। एवंविहितकं नो तुम्हे आयस्मन्तो मनोपदोसिकं आचरियकं अग्गञ्ञं पञ्ञपेथा’ति। ‘ते एवमाहंसु – एवं खो नो, आवुसो गोतम, सुतं, यथेवायस्मा गोतमो आहा’ति। ‘‘अग्गञ्ञञ्चाहं, भग्गव, पजानामि…पे॰… यदभिजानं तथागतो नो अनयं आपज्जति।

४५. ‘‘सन्ति, भग्गव, एके समणब्राह्मणा अधिच्चसमुप्पन्नं आचरियकं अग्गञ्ञं पञ्ञपेन्ति। त्याहं उपसङ्कमित्वा एवं वदामि – ‘सच्चं किर तुम्हे आयस्मन्तो अधिच्चसमुप्पन्नं आचरियकं अग्गञ्ञं पञ्ञपेथा’ति? ते च मे एवं पुट्ठा ‘आमो’ति पटिजानन्ति। त्याहं एवं वदामि – ‘कथंविहितकं पन तुम्हे आयस्मन्तो अधिच्चसमुप्पन्नं आचरियकं अग्गञ्ञं पञ्ञपेथा’ति? ते मया पुट्ठा न सम्पायन्ति, असम्पायन्ता ममञ्ञेव पटिपुच्छन्ति। तेसाहं पुट्ठो ब्याकरोमि –

४६. ‘सन्तावुसो, असञ्ञसत्ता नाम देवा। सञ्ञुप्पादा च पन ते देवा तम्हा काया चवन्ति।

‘ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्जति। यं अञ्ञतरो सत्तो तम्हा काया चवित्वा इत्थत्तं आगच्छति। इत्थत्तं आगतो समानो अगारस्मा अनगारियं पब्बजति। अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो समानो आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते तं [इदं पदं ब्रह्मजालसुत्ते न दिस्सति। एवं (पी॰ क॰)] सञ्ञुप्पादं अनुस्सरति, ततो परं नानुस्सरति।

‘सो एवमाह – अधिच्चसमुप्पन्नो अत्ता च लोको च। तं किस्स हेतु? अहञ्हि पुब्बे नाहोसिं, सोम्हि एतरहि अहुत्वा सन्तताय [सत्तकाय (सी॰ पी॰), सत्ताय (क॰ सी॰)] परिणतोति। एवंविहितकं नो तुम्हे आयस्मन्तो अधिच्चसमुप्पन्नं आचरियकं अग्गञ्ञं पञ्ञपेथा’ति? ‘ते एवमाहंसु – एवं खो नो, आवुसो गोतम, सुतं यथेवायस्मा गोतमो आहा’ति। ‘‘अग्गञ्ञञ्चाहं, भग्गव, पजानामि तञ्च पजानामि, ततो च उत्तरितरं पजानामि, तञ्च पजानं न परामसामि, अपरामसतो च मे पच्चत्तञ्ञेव निब्बुति विदिता। यदभिजानं तथागतो नो अनयं आपज्जति।

४७. ‘‘एवंवादिं खो मं, भग्गव, एवमक्खायिं एके समणब्राह्मणा असता तुच्छा मुसा अभूतेन अब्भाचिक्खन्ति – ‘विपरीतो समणो गोतमो भिक्खवो च। समणो गोतमो एवमाह – यस्मिं समये सुभं विमोक्खं उपसम्पज्ज विहरति, सब्बं तस्मिं समये असुभन्त्वेव [असुभन्तेव (सी॰ स्या॰ पी॰)] पजानाती’ति [सञ्जानातीति (सी॰ पी॰)]। न खो पनाहं, भग्गव, एवं वदामि – ‘यस्मिं समये सुभं विमोक्खं उपसम्पज्ज विहरति, सब्बं तस्मिं समये असुभन्त्वेव पजानाती’ति। एवञ्च ख्वाहं, भग्गव, वदामि – ‘यस्मिं समये सुभं विमोक्खं उपसम्पज्ज विहरति, सुभन्त्वेव तस्मिं समये पजानाती’ति।

‘‘ते च, भन्ते, विपरीता, ये भगवन्तं विपरीततो दहन्ति भिक्खवो च। एवंपसन्नो अहं, भन्ते, भगवति। पहोति मे भगवा तथा धम्मं देसेतुं, यथा अहं सुभं विमोक्खं उपसम्पज्ज विहरेय्य’’न्ति।

४८. ‘‘दुक्करं खो एतं, भग्गव, तया अञ्ञदिट्ठिकेन अञ्ञखन्तिकेन अञ्ञरुचिकेन अञ्ञत्रायोगेन अञ्ञत्राचरियकेन सुभं विमोक्खं उपसम्पज्ज विहरितुं। इङ्घ त्वं, भग्गव, यो च ते अयं मयि पसादो, तमेव त्वं साधुकमनुरक्खा’’ति। ‘‘सचे तं, भन्ते, मया दुक्करं अञ्ञदिट्ठिकेन अञ्ञखन्तिकेन अञ्ञरुचिकेन अञ्ञत्रायोगेन अञ्ञत्राचरियकेन सुभं विमोक्खं उपसम्पज्ज विहरितुं। यो च मे अयं, भन्ते, भगवति पसादो, तमेवाहं साधुकमनुरक्खिस्सामी’’ति। इदमवोच भगवा। अत्तमनो भग्गवगोत्तो परिब्बाजको भगवतो भासितं अभिनन्दीति।

पाथिकसुत्तं [पाटिकसुत्तन्तं (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰)] निट्ठितं पठमं।