नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

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भिक्षुओं, जो स्वयं जानता है, देखता है—मैं कहता हूँ उसके बहाव «आसव» थमते है। जो स्वयं नहीं जानता, नहीं देखता, उसके बहाव नहीं थमते। क्या स्वयं जानता है, देखता है?

• «योनिसो मनसिकार» उचित बात पर गौर करना, और

• «अयोनिसो मनसिकार» अनुचित बात पर गौर करना।

जब कोई व्यक्ति ‘अनुचित बात’ पर गौर करता है, तो अनुत्पन्न बहाव उत्पन्न होने लगते है, और उत्पन्न हुए बहाव बढ़ने लगते है। जबकि ‘उचित बात’ पर गौर करने पर अनुत्पन्न बहाव उत्पन्न नहीं होते, और उत्पन्न हो चुके बहाव थमने लगते है।

भिक्षुओं, कुछ प्रकार के बहाव होते हैं, जो [योग्य तरह] देखकर त्यागे जाते है, तो कुछ बहाव [इंद्रिय] संयम कर। कुछ प्रकार के बहाव होते है, जो [आवश्यकताओं का उचित] उपयोग कर त्यागे जाते है, तो कुछ बहाव [कष्ट] सहन कर। कुछ प्रकार के बहाव होते है, जो [ख़तरे] टालकर त्यागे जाते है, तो कुछ बहाव [अकुशलताए] हटाकर। जबकि कुछ प्रकार के बहाव होते है, जो [संबोधिअंग] साधना कर के त्यागे जाते है।

(१) कौन-से बहाव देखकर त्यागे «दस्सना पहातब्बा» जाते है?

कोई जो आर्यदर्शन से वंचित, आर्यधर्म से अपरिचित, आर्यधर्म में न अनुशासित हो; या सत्पुरूषदर्शन से वंचित, सत्पुरूषधर्म से अपरिचित, सत्पुरूषधर्म में न अनुशासित हो—ऐसा धर्म न सुने आम आदमी को पता नहीं चलता कि कौन-सी बात पर गौर करना ‘उचित’ है, और कौन-सी बात पर ‘अनुचित’। इस कारण वह उचित बात पर नहीं गौर करता, बल्कि अनुचित पर करता है।

कौन-सी बात अनुचित है? जिसपर गौर करने से अनुत्पन्न कामुक-बहाव उत्पन्न होने लगे, और उत्पन्न हुए बढ़ने लगे; अनुत्पन्न अस्तित्व-बहाव उत्पन्न होने लगे, और उत्पन्न हुए बढ़ने लगे; अनुत्पन्न अविद्या-बहाव उत्पन्न होने लगे, और उत्पन्न हुए बढ़ने लगे।

— ऐसी बातों पर गौर करना ‘अनुचित’ होता है, जिसपर वह [=आम आदमी] गौर करता है।

तब कौन-सी बात उचित है? जिसपर गौर करने से अनुत्पन्न कामुक-बहाव… अस्तित्व-बहाव… अविद्या-बहाव उत्पन्न न हो, और उत्पन्न हुए थमने लगे। ऐसी बातों पर गौर करना ‘उचित’ होता है, किंतु जिसपर वह [=आम आदमी] गौर नहीं करता।

और इस तरह ‘अनुचित’ बात पर गौर करने से, तथा ‘उचित’ बात पर गौर न करने से उसके अनुत्पन्न बहाव उत्पन्न होते रहते है, और उत्पन्न हुए बढ़ते रहते है।

कोई धर्म न सुना, आम आदमी इस तरह ‘अनुचित’ बातों पर गौर करता है—‘क्या मैं अतीतकाल में था?’ ‘क्या मैं अतीतकाल में नहीं था?’ ‘ मैं अतीतकाल में क्या था?’ ‘मैं अतीतकाल में कैसा था?’ ‘मैं अतीतकाल में क्या बनकर फ़िर क्या बना था?’

‘क्या मैं भविष्यकाल में रहूँगा?’ ‘क्या मैं भविष्यकाल में नहीं रहूँगा?’ ‘क्या मैं भविष्यकाल में रहूँगा?’ ‘मैं भविष्यकाल में कैसा रहूँगा?’ ‘मैं भविष्यकाल में क्या बनकर फ़िर क्या बनूँगा?’

या वह वर्तमानकाल को लेकर भ्रमित रहता है—‘क्या मैं हूँ?’ ‘क्या मैं नहीं हूँ?’ ‘मैं क्या हूँ?’ ‘मैं कैसा हूँ?’ ‘यह सत्व कहाँ से आया है?’ ‘वह कहाँ जानेवाला है?’

इस प्रकार अनुचित बातों पर गौर करने से, उसमें छह-दृष्टियों में से एक [मिथ्या] दृष्टी उत्पन्न होती है—

• ‘मेरा आत्म है’—उसे यह उत्पन्न हुई दृष्टि सच लगती है, जिसे वह धारण करता है। या

• ‘मेरा आत्म नहीं [^23] है’… या

• ‘आत्म के द्वारा आत्म महसूस करता हूँ’… या

• ‘आत्म के द्वारा अनात्म महसूस करता हूँ’… या

• ‘अनात्म के द्वारा आत्म महसूस करता हूँ’—उसे यह उत्पन्न हुई दृष्टि सच लगती है, जिसे वह धारण करता है।

• या उसे उत्पन्न हुई दृष्टि कुछ इस तरह होती है—‘मेरा यह जो आत्म है, जो यहाँ वहाँ भले-बुरे कर्मों के फ़ल-परिणाम भोगता है—वह नित्य ध्रुव शाश्वत है। वह कभी नहीं बदलेगा। अनन्तकाल तक वैसा ही बना रहेगा।’

इन्हें कहते है, भिक्षुओं—‘दृष्टियो का झुरमुट! दृष्टियो का जंगल! दृष्टियो का रेगिस्तान! दृष्टियो की विकृति! दृष्टियों की पीड़ापूर्ण ऐठन! दृष्टियो का बंधन!’ इस तरह दृष्टिबंधन में बँधा, धर्म न सुना, आम आदमी—जन्म बुढ़ापा मौत, शोक विलाप दर्द व्यथा निराशा से छूट नहीं पाता! मैं कहता हूँ, वह दुःख से छूट नहीं पाता!

किंतु भिक्षुओं, कोई आर्यदर्शन लाभान्वित, आर्यधर्म से सुपरिचित, आर्यधर्म में अनुशासित हो; या सत्पुरूषदर्शन लाभान्वित, सत्पुरूषधर्म से सुपरिचित, सत्पुरूषधर्म में अनुशासित हो—ऐसा धर्म सुने आर्यश्रावक को पता चलता है कि कौन-सी बातों पर गौर करना उचित है, और कौन-सी बात पर अनुचित। इस कारण वह ‘उचित’ बात पर ही गौर करता है, अनुचित पर नहीं।

कौन-सी बात उचित होती है?

जिसपर गौर करने से अनुत्पन्न कामुक-बहाव… अस्तित्व-बहाव… अविद्या-बहाव उत्पन्न न हो, और उत्पन्न हुआ थमने लगे। ऐसी बातों पर गौर करना ‘उचित’ होता है, जिनपर वह [=आर्यश्रावक] गौर करता है। उसके ‘उचित बात’ पर गौर करने, और अनुचित बात पर गौर न करने से उसमें अनुत्पन्न बहाव उत्पन्न नहीं होते, और उत्पन्न हुए थमने लगते है।

धर्म सुना आर्यश्रावक इन उचित बातों पर गौर करता है—

• ‘ऐसा दुःख होता है।’

• ‘ऐसे दुःख की उत्पत्ति होती है।’

• ‘ऐसे दुःख का निरोध होता है।’

• ‘यह दुःख निरोध करानेवाला प्रगतिपथ है।’

इस तरह ‘उचित बात’ पर ही गौर करने से उसके तीन बंधन «संयोजन» टूट जाते [=श्रोतापन्नफ़ल] है—आत्मिय दृष्टि «सक्कायदिट्ठि», अनिश्चितता, और शील व्रतों पर अटकना «सीलब्बतपरामासो»।

— यह बहाव ‘देखकर त्यागे जाते’ है।


(२) कौन-से बहाव संयम कर त्यागे जाते «संवरा पहातब्बा» है?

भिक्षु उचित चिंतन कर आँख-इंद्रिय पर पहरा देते हुए ‘संयमपूर्वक’ रहता है। इस तरह आँखों का संयम करने से परेशानी व ताप देनेवाले वह बहाव उसमें उत्पन्न नहीं होते, जो असंयमित रहने से उत्पन्न हुए होते।

वह उचित चिंतन कर कान-इंद्रिय… नाक-इंद्रिय… जीभ-इंद्रिय… काया-इंद्रिय… मन-इंद्रिय पर पहरा देते हुए ‘संयमपूर्वक’ रहता है। इस तरह मन का संयम करने से परेशानी व ताप देनेवाले वह बहाव उसमें उत्पन्न नहीं होते, जो असंयमित रहने से उत्पन्न हुए होते।

— यह बहाव ‘संयम कर त्यागे जाते’ है।


(३) कौन-से बहाव उपयोग कर त्यागे «पटिसेवना पहातब्बा» जाते है?

• भिक्षु उचित चिंतन करते हुए वस्त्र का उपयोग करता है—मात्र सर्दी-गर्मी से बचने के लिए। मक्खियाँ मच्छर हवा धूप बिच्छु साँप का संस्पर्श रोकने के लिए। और लज्जांगो को ढ़कने के लिए।

• भिक्षु उचित चिंतन करते हुए भिक्षान्न का उपयोग करता है—न मज़े के लिए, न मदहोशी के लिए, न सुडौलता के लिए, न ही सौंदर्य के लिए। बल्कि काया को मात्र टिकाने के लिए। उसकी [भूख] पीड़ाएँ समाप्त करने के लिए। ब्रह्मचर्य के लिए। [सोचते हुए] ‘पुरानी पीड़ा ख़त्म करूँगा! [अधिक खाकर] नई पीड़ा नहीं उत्पन्न करूँगा! मेरी जीवनयात्रा निर्दोष रहेगी, और राहत से रहूँगा!’

• भिक्षु उचित चिंतन करते हुए निवास का उपयोग करता है—केवल सर्दी-गर्मी से बचने के लिए। मक्खियाँ मच्छर हवा धूप बिच्छु साँप का संस्पर्श रोकने के लिए। ऋतु की पीड़ा से बचने के लिए। और एकांतवास का उपयोग करने के लिए।

• भिक्षु उचित चिंतन करते हुए रोगावश्यक औषधि-भैषज्य का उपयोग करता है—केवल रोग से उत्पन्न पीड़ाएँ रोकने के लिए। और रोग से अधिकाधिक दूर रहने के लिए।

इस तरह उपयोग करने से परेशानी व ताप देनेवाले वह बहाव उसमें उत्पन्न नहीं होते, जो इस तरह उपयोग न करने से उत्पन्न हुए होते।

— यह बहाव ‘उपयोग कर त्यागे जाते’ है।


(४) कौन-से बहाव सहन करके त्यागे «अधिवासना पहातब्बा» जाते है?

कोई भिक्षु उचित चिंतन करते हुए [कष्ट] बर्दाश्त करता है। वह सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, मक्खियाँ मच्छर हवा धूप बिच्छु साँप का संस्पर्श सहन करता है। वह कटु वचन, नापसंदीदा आवाज, काया में उत्पन्न होती—तीक्ष्ण तीव्र भेदती चीरती, प्राण-हरति अनिच्छित पीड़ाएँ बर्दाश्त करता है।

इस तरह बर्दाश्त करने से परेशानी व ताप देनेवाले वह बहाव उसमें उत्पन्न नहीं होते, जो बर्दाश्त न करने से हुए होते।

— यह बहाव ‘सहन करके त्यागे जाते’ है।


(५) कौन-से बहाव टाल कर त्यागे «परिवज्जना पहातब्बा» जाते है?

कोई भिक्षु उचित चिंतन करते हुए—चण्ड हाथी, चण्ड घोड़ा, चण्ड सांड, चण्ड कुत्ते [के समीप जाना] टालता है। वह साँप, कटा पेड़, कँटीली झाड़ी, खाईं प्रपात गड्ढा नाला टालता है। वह उचित चिंतन करते हुए ऐसी सभी हरकतें टालता है, जिसे जानकर समझदार सहब्रह्मचारी उसपर पाप की शंका करते—जैसे अनुचित जगह बैठना, अनुचित बस्ती में जाना, बुरे मित्र से मेलमिलाप।

इस तरह टालने से परेशानी व ताप देनेवाले वह बहाव उसमें उत्पन्न नहीं होते, जो न टालने से हुए होते।

— यह बहाव ‘टालकर त्यागे जाते’ है।


(६) कौन-से बहाव दूर हटाकर त्यागे «विनोदना पहातब्बा» जाते है?

• भिक्षु उचित चिंतन करते हुए, उत्पन्न कामुक-विचार बर्दाश्त नहीं करता। बल्कि उसे त्यागता है, हटाता है, दूर करता है, अस्तित्व से मिटा देता है।

• भिक्षु उचित चिंतन करते हुए उत्पन्न दुर्भावनापूर्ण-विचार बर्दाश्त नहीं करता। बल्कि उसे त्यागता है, हटाता है, दूर करता है, अस्तित्व से मिटा देता है।

• भिक्षु उचित चिंतन करते हुए उत्पन्न हिंसात्मक-विचार बर्दाश्त नहीं करता। बल्कि उसे त्यागता है, हटाता है, दूर करता है, अस्तित्व से मिटा देता है।

• भिक्षु उचित चिंतन करते हुए उत्पन्न पाप/अकुशल स्वभाव बर्दाश्त नहीं करता। बल्कि उसे त्यागता है, हटाता है, दूर करता है, अस्तित्व से मिटा देता है।

इस तरह हटाने से परेशानी व ताप देनेवाले वह बहाव उसमें उत्पन्न नहीं होते, जो न हटाने से हुए होते।

— यह बहाव ‘हटाकर त्यागे जाते’ है।


(७) कौन-से बहाव साधना कर के त्यागे «भावना पहातब्बा» जाते है?

भिक्षु उचित चिंतन करते हुए स्मृति संबोधिअंग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, वैराग्य के सहारे, निरोध के सहारे करता है, और अंततः उसे भी त्याग देता है।

भिक्षु उचित चिंतन करते हुए स्वभाव-जाँच संबोधिअंग… ऊर्जा संबोधिअंग… प्रफुल्लता संबोधिअंग… प्रशान्ति संबोधिअंग… समाधि संबोधिअंग… तटस्थता संबोधिअंग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, वैराग्य के सहारे, निरोध के सहारे करता है, और अंततः उसे भी त्याग देता है।

इस तरह [सात संबोधिअंग] साधना करने से परेशानी व ताप देनेवाले वह बहाव उसमें उत्पन्न नहीं होते, जो न करने से हुए होते।

— यह बहाव ‘साधना कर के त्यागे जाते’ है।

भिक्षुओं, जब भिक्षु ‘देखकर’ त्यागे जानेवाले बहाव को देखकर त्यागे, ‘संयम कर’ त्यागे जानेवाले बहाव को संयम कर त्यागे, ‘उपयोग कर’ त्यागे जानेवाले बहाव को उपयोग कर त्यागे, ‘सहन कर’ त्यागे जानेवाले बहाव को सहन कर के त्यागे, ‘टालकर’ त्यागे जानेवाले बहाव को टालकर त्यागे, ‘हटाकर’ त्यागे जानेवाले बहाव को हटाकर त्यागे, ‘साधना कर’ त्यागे जानेवाले बहाव को साधना कर त्यागे—तब वह सभी बहावों के प्रति संयमपूर्वक रहता है। वह तृष्णा को काट, बंधनों को फेंक, अहंभाव «मान» का सम्यकभेदन कर अभी यही दुःखों का अंत कर देता है।

Pali